बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की तक़रीर के अरबी भाग का अनुवादः

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व नबी हज़रत अबिल क़ासिम मुस्तफ़ा और उनकी सबसे नेक, सबसे पाक, चुनी हुयी, हिदायत याफ़्ता, हिदायत करने वाली, मासूम और सम्मानित नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

अल्लाह इमाम ख़ुमैनी पर अपनी रहमतें नाज़िल करे जिन्होंने हालिया सदियों में हथियारबंद जेहालत के दौर में इलाही मिशन का झंडा उठा रखा था।

30 बरस से ज़्यादा वक़्त से यह शानदार प्रोग्राम किया जा रहा है और हर साल इस प्रोग्राम में ख़ास तौर पर इमाम ख़ुमैनी की शख़्सियत पर बात की जाती है और इस प्रोग्राम का ज़्यादा वक़्त हमारे महान इमाम, इमाम ख़ुमैनी के बारे में बात करते हुए गुज़रता है। मेरे ख़याल में हमारे मुल्क की नयी नस्ल को इमाम ख़ुमैनी को ज़्यादा पहचानने की ज़रूरत है और हम पुरानी नस्ल के लोगों को भी उनके बारे में ज़्यादा जानने की ज़रूरत है। हम सबके लिए यह ज़रूरी है कि हम इस कई पहलू वाली अज़ीम शख़्सियत को ज़्यादा जानें क्योंकि यह चीज़ हमारी तरक़्क़ी में और हमें अपनी राह पर जमे रहने में मदद देगी।

आज मैं इमाम ख़ुमैनी के बारे में कुछ बातों का ज़िक्र करूंगा, एक बात अपने लोगों के बारे में और उस सबक़ के बारे में भी कुछ कहूंगा जो हमें लेना चाहिए और जो काम हमें करना चाहिए।

इमाम ख़ुमैनी के बारे में पहली बात तो यह है कि वह सिर्फ़ हमारे दौर की ही नहीं बल्कि हमारी तारीख़ की सबसे अहम हस्ती हैं। हमारी तारीख़ की उन हस्तियों में सबसे ऊपर हैं जिन्होंने किसी भी मैदान में, इल्म व अमल के मैदान में बड़े कारनामे किये हैं। तारीख़ की बड़ी बड़ी हस्तियों में कुछ हस्तियां, दूसरों से बड़ी होती हैं और उन्हें ही सबसे ऊपर कहा जाता है। हर दौर में एक हस्ती सबसे बड़ी होती है लेकिन कुछ हस्तियां सिर्फ़ अपने दौर की नहीं होतीं बल्कि वह तारीख़ की सभी बड़ी हस्तियों में सबसे ऊपर होती हैं।

इस तरह की अहम हस्तियों को तारीख़ से हटाया नहीं जा सकता, हमारी अस्ल बात यह है कि इमाम ख़ुमैनी जैसी बड़ी और अहम हस्ती को तारीख़ से न मिटाया जा सकता है और न ही उनको तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि दुश्मनों के प्रोपेगंडों से, इस तरह की बड़ी हस्तियों की छवि ख़राब नहीं की जा सकती, क्यों नहीं,  की जा सकती, प्रोपगंडों के लिए इस्तेमाल होने वाला मीडिया जो हर दिन ज़्यादा से ज़्यादा मार्डन हो रहा है, जिसका आधुनिकीकरण हो रहा है, जिसे हर रोज़ नयी नयी चीज़ों से लैस किया जा रहा है और जो रात को दिन और दिन को रात बता सकता है, वह मशहूर और लोकप्रिय हस्तियों के बारे में भी झूठ बोल सकता है। लेकिन यह पानी का झाग है यह “और झाग तो बाहर निकल जाता है।” (2) वाली बात है। सूरज हमेशा बादलों के पीछे तो नहीं रहता। इब्ने सीना और शेख तूसी अपने दौर के हज़ार साल बाद आज बड़ी साफ़ आवाज़ में ख़ुद को पहचनवा सकते हैं, उनकी हस्तियों को मिटाया नहीं जा सकता, उन्हें तारीख़ की याददाश्त से हटाया नहीं जा सकता, उनकी छवि को बिगाड़ा नहीं जा सकता। हमारे महान इमाम ख़ुमैनी की हस्ती के पहलू, इब्ने सीना और शेख़ तूसी से कहीं ज़्यादा हैं। इमाम ख़ुमैनी की जो ख़ूबियां हैं वह इस तरह की तारीख़ की मशहूर हस्तियों की ख़ूबियों से कहीं ज़्यादा हैं। इमाम ख़ुमैनी हर मैदान में आगे हैं, दीनी मालूमात में सबसे आगे हैं, वह फ़िक़्ह, दर्शनशास्त्र और वैचारिक अध्यात्म में काफ़ी आगे हैं, और इसी तरह ईमान, तक़वा और परहेज़गारी में भी सबसे आगे हैं, इसी तरह वह मज़बूत पर्सनाल्टी और पक्के इरादे का होने के मामले में भी सबसे आगे हैं, इसी तरह वह अल्लाह के लिए खड़े होने, इन्क़ेलाबी पॉलीसियों और इन्सानी समाज में बदलाव लाने के लिहाज़ से भी बड़ी और बेमिसाल हस्ती हैं। इतनी सारी ख़ूबियां, हमारे इतिहास की किसी भी बड़ी और महान हस्ती में एक साथ इकट्ठा नहीं हुई हैं लेकिन इमाम ख़ुमैनी में यह सारी ख़ूबियां एक साथ नज़र आती हैं। जिसकी वजह से इमाम ख़ुमैनी को कोई भी तारीख़ से मिटा नहीं सकता, न आज और न ही आने वाली सदियों में, और न ही कोई उनकी छवि को बिगाड़ सकता है, कुछ समय तक हो सकता है कि झूठ फैलाया जाए, छवि को धूमिल किया जाए, लेकिन आख़िर में इमाम ख़ुमैनी का चमकता चेहरा, मज़बूत आवाज़ में ख़ुद को दुनिया के सामने पेश कर देगा क्योंकि इस सूरज को हमेशा बादलों के पीछे नहीं छिपाया जा सकता, यह तो पहली बात है।

दूसरी बात यह है इमाम ख़ुमैनी ने बहुत बड़े और तारीख़ी कारनामे अंजाम दिये हैं, तीन बड़े बदलाव पैदा किये हैं, एक ईरान के अंदर, एक इस्लामी उम्मत में और एक पूरी दुनिया में, इन तीनों बदलावों की मिसाल नहीं मिलती, और शायद यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो कि आगे भी कोई इन्सान इस तरह के बदलाव पैदा कर सकता है, यह इमाम ख़ुमैनी की ख़ूबी थी।

इमाम ख़ुमैनी ने ईरान में जो बदलाव किया वह यह था कि वह ईरान में इस्लामी इन्क़ेलाब ले आए, इन्क़ेलाब तो जनता ने कामयाब किया था लेकिन इन्क़ेलाब को वजूद, इमाम ख़ुमैनी ने बख़्शा था। इस इन्क़ेलाब ने एक शाही राजनीतिक व्यवस्था को ख़त्म कर दिया और डेमोक्रेसी को उसकी जगह दे दी, इस इन्क़ेलाब ने एक पिट्ठू और बड़ी ताक़तों के सामने घुटने टेकने वाली सरकार को अखाड़े से बाहर कर दिया और उसकी जगह पर एक ऐसी व्यवस्था को स्थापित किया जो अपने पैरों पर खड़ी था और जिसकी ताक़त देश की जनता थी, इस इन्क़ेलाब ने, इस्लाम की दुश्मन एक हुकूमत को बाहर किया और उसकी जगह पर इस्लामी हुकूमत की बुनियाद रखी, इस इन्क़ेलाब ने, तानाशाही की जगह आज़ादी, ईरानियों को राष्ट्रीय पहचान और आत्मविश्वास का उपहार दिया, इस इन्क़ेलाब ने दूसरों से उम्मीद लगाने वाले राष्ट्र को, “हम कर सकते हैं” का मंत्र देकर ताक़तवर बना दिया। यह सब इस महान इन्क़ेलाब के चमत्कार और वह बड़े बदलाव हैं जो इमाम ख़ुमैनी के हाथों संभव हुए हैं। यह जो मैं ने “हम कर सकते हैं” के मंत्र की बात की है वह हर समस्या के समाधान की कुंजी है। हमारे देश में समस्याएं रही हैं, अब भी हैं और आगे भी रहेंगीं, लेकिन जो चीज़ इन प्राब्लम्स को ख़त्म कर सकती  है और जिसने पिछली समस्याओं को ख़त्म किया है और आगे भी हमारी समस्याओं का समाधान है, वह यही “हम कर सकते हैं“ की भावना और सोच है और इमाम ख़ुमैनी के इन्क़ेलाब की वजह से हमारे मुल्क में यह जज़्बा और यह सोच पैदा हुई है।

इस्लामी उम्मत में जो बदलाव हुआ है वह यह था कि इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी चेतना के आंदोलन की शुरुआत की। इस्लामी दुनिया में कमज़ोरी और सुस्ती छायी थी लेकिन इमाम ख़ुमैनी के इन्क़ेलाब की वजह इस्लामी दुनिया में नया जीवन फूंक दिया गया। इस लिए हम देखते हैं कि इस्लामी दुनिया, ईरान के इस्लामी इन्क़ेलाब और इमाम ख़ुमैनी के दौर से पहले के मुक़ाबले में आज ज़्यादा सक्रिय, तैयार, और जिंदा हो गयी है। हालांकि अब भी इस सिलसिले में अब भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत महसूस की जाती है। ज़ायोनियों और उनके सहायकों  ने फ़िलिस्तीन के मुद्दे को एक ख़त्म हो जाने वाला मुद्दा समझ लिया था और कहीं भी फ़िलिस्तीन के लिए कोई आवाज़ उठने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी थी लेकिन इमाम ख़ुमैनी के क़दम से और इस्लामी दुनिया में उन्होंने जो बदलाव पैदा किये थे उनकी वजह से, फ़िलिस्तीन का मुद्दा, इस्लामी दुनिया का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। आज फ़िलिस्तीन का मुद्दा, इस्लामी दुनिया का सबसे बड़ा मुद्दा समझा जाता है। आज फ़िलिस्तीन पर पूरी दुनिया के मुसलमान ध्यान दे रहे हैं। ईरान में इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी के बाद, तेहरान में ज़ायोनी शासन के दूतावास से फ़िलिस्तीनियों नेताओं की दहाड़ से पूरी दुनिया हिल गयी थी और उस पर कपकपी छा गयी थी, सबकी समझ में आ गया था कि फ़िलिस्तीन के सिलसिले में एक नये दौर की शुरुआत हो चुकी है, फ़िलिस्तीनी क़ौम के बेजान बदन में नयी जान फूंक दी गयी थी और आज आप सब देख ही रहे हैं कि किस तरह से फ़िलिस्तीनी, ताक़त के साथ अपनी मौजूदगी साबित कर रहे हैं और किस तरह से अपनी बातें दुनिया वालों तक पहुंचा रहे हैं। विश्व क़ुद्स दिवस के मौक़े पर सिर्फ़ ईरान या तेहरान में ही नहीं, यहां तक कि गैर इस्लामी देशों की राजधानियों में भी लोग, फ़िलिस्तीनियों का साथ देते हैं उनकी हिमायत करते हैं, यह वह बदलाव है जो इमाम ख़ुमैनी के हाथों इस्लामी दुनिया में आया।

तीसरा बदलाव, दुनिया की सतह पर आने वाला बदलाव है। इमाम ख़ुमैनी ने अध्यात्म और स्पिरिचुअलिटी को दुनिया में नयी ज़िंदगी दी यहां तक कि गैर इस्लामी देशों में भी। स्पिरिचुअलिटी और अध्यात्म, मैटेरियलिज़्म की पॉलीसियों तले कुचल दिया गया था। ज़ायोनी शासन और साम्राज्यवादियों की ओर से मैटेरियलिज़्म का जिस तरह से प्रचार किया जा रहा था उसके सामने दुनिया के लोगों का रिएक्शन, कमज़ोर और डिफेन्सिव था और लोग स्पिरिचुअलिटी को भूल चुके थे।

इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन से दुनिया पर फिर से स्पिरिचुअलिटी और रूहानियत का रंग चढ़ा। यक़ीनी तौर पर इसी लिए इस पर दुनिया की बड़ी ताक़तों ने कड़ा रिएक्शन दिखाया और आज भी ज़्यादा ताक़त के साथ, पूरी दुनिया में जहां जहां भी मुमकिन है, रुहानियत और स्पिरिचुअलिटी पर ख़ास तरीक़ों से हमले किये जा रहे हैं जिनमें से कुछ तरीक़े तो इतने शर्मनाक हैं कि इन्सान को उनका ज़िक्र करने में भी शर्म आती है। यह इमाम ख़ुमैनी के बारे में दूसरी बात थी। पहली बात यह थी कि इमाम ख़ुमैनी के नाम को इतिहास के पन्नों से मिटाया नहीं जा सकता, वह ज़िन्दा हैं। इमाम ख़ुमैनी की आवाज़ को, उनकी बातों को दबाया नहीं जा सकता और दूसरी बात यह कि इमाम ख़ुमैनी ने अपनी इतनी ख़ूबियों से भरी अहम और सबसे अलग पर्सनालिटी के साथ इन तीन तरह के बदलाव को वजूद बख़्शा।

अगली जो बात है वह काफ़ी अहम है और वह यह है कि हमें ख़ुद से यह सवाल करना चाहिए कि इमाम ख़ुमैनी ने इतने बड़े-बड़े काम किस चीज़ या भरोसे पर किये? जिस चीज़ ने इमाम ख़ुमैनी की मदद की उन्हें इस मैदान में आगे बढ़ते रहने का हौसला दिया, उन्हें थकने नहीं दिया, और जिसकी वजह से वह बड़े-बड़े काम कर पाए और रास्ते से पहाड़ जैसी रुकावटों को हटाने में कामयाब हुए वह क्या थी? इमाम ख़ुमैनी के पास मदद करने वाली चीज़ें नहीं थीं, न पैसा था, न मीडिया था, न रेडियो था, न न्यूज़ एजेन्सी थी, न ही दुनिया में चलने वाली किसी भी प्रकार की पॉलिसी का उन्हें साथ मिला न ही कोई कोई मदद मिली। इमाम ख़ुमैनी के पास मौजूद चीज़ एक कागज़ का टुकड़ा था जिस पर वह अपना बयान लिखते थे, एक कैसिट थी जिस में उनका पैग़ाम रिकार्ड किया जाता था और इनके उनके कानों तक पहुंचाया जाता था। उनके पास काम आने वाली चीज़ें और साधन नहीं थे, इमाम ख़ुमैनी के पास जो कुछ भी था वह नज़रिया और सोच थी, उनके पास साधन और चीज़ें नहीं थीं तो इमाम ख़ुमैनी के पास मौजूद साफ़्ट पावर क्या था? यह बहुत अहम सवाल है।

इस साफ़्ट पावर को कई तरह से बयान किया जा सकता है। मैंने आज के  बयान के लिए इनमें से दो चीज़ों को चुना है जिन्होंने इमाम ख़ुमैनी की इस राह में मदद की है। आज मैं उन दो साफ़्ट चीज़ों को बयान करूंगा। एक चीज़ “ईमान” थी और दूसरी “उम्मीद” थी। जिस चीज़ ने इमाम ख़ुमैनी की मदद की, उन्हें इस राह में आगे बढ़ाया और ईरान में, इस्लामी उम्मत में और पूरी दुनिया और तारीख़ में इस तरह के बदलाव करने की ताक़त दी वह दर अस्ल उनमें ईमान और उम्मीद थी, ईमान और उम्मीद।

शहीद मुतह्हरी ने पेरिस में इमाम ख़ुमैनी से एक मुलाक़ात की थी, ख़ुद शहीद मुतह्हरी का ईमान बहुत ज़्यादा मज़बूत था लेकिन वह भी इमाम ख़ुमैनी के ईमान की ताक़त पर हैरत ज़ाहिर करते थे। उन्होंने वापसी पर बताया कि मैंने इमाम ख़ुमैनी में चार तरह के ईमानों को देखा हैः एक मक़सद पर ईमान, मक़सद यानी इस्लाम, इमाम ख़ुमैनी का मक़सद इस्लाम था, एक अपने रास्ते पर ईमान यानी वह रास्ता जिस पर वह चल रहे थे, इमाम ख़ुमैनी की राह, जद्दो जहेद और संघर्ष की राह थी, एक और ईमान लोगों पर ईमान था यानी मोमिनों पर यानी वही काम जिसके बारे में ख़ुदा ने पैग़म्बरे इस्लाम के सिलसिले में कहा है कि “वह अल्लाह पर और मोमिनों पर ईमान रखते हैं” (3) कि जिसके बारे में बाद में मैं कुछ बातें करूंगा। और चौथा ईमान जो सबसे बड़ा और अहम है वह अपने रब पर ईमान, ख़ुदा पर ईमान, उस पर भरोसा था। मैं यह चौथे तरह के ईमान के बारे में यानी ख़ुदा पर ईमान के बारे में कुछ बातें कहना चाहता हूं।

जब हम ईमान की बातें प्रेक्टिकल चीज़ों के बारे में करते हैं जैसे साम्राज्य के ख़िलाफ़ संघर्ष के सिलसिले में जब हम ईमान की बात करते हैं तो उसका मतलब कुछ ख़ास होता है। इस तरह के मौक़े पर ख़ुदा पर ईमान का मतलब उसके वादों पर भरोसा होता है। ख़ुदा ने क़ुरआने मजीद में कई वादे किये हैं जो किसी भी हालत में टूट नहीं सकते। उसने वादा किया है कि “अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह भी तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हारे क़दम जमाए रखेगा।“ (4) इसी तरह उसने वादा किया है कि “और यक़ीनी तौर पर अल्लाह ज़रूर उसकी मदद करता है जो अल्लाह की मदद करता है।“ (5) इसी तरह उसने वादा किया है कि “बेशक अल्लाह उन लोगों का बचाव करता है जो ईमान लाए हैं।“ (6) अल्लाह ने वादा किया है कि “और जो कुछ लोगों के लिए फ़ायदेमंद होता है वह ज़मीन पर रह जाता है।“ (7) "अल्लाह की मदद करोगे तो वह भी तुम्हारी मदद करेगा जो कुछ लोगों के फ़ायदे में होता है वह बाक़ी रहता है और पानी के ऊपर पैदा होने वाली झाग चली जाती है और ग़लत और बातिल दर अस्ल, पानी के ऊपर पैदा होने वाली झाग है और हक़ यानी इस्लामी की सच्चाई, वह है जो बाकी रहने वाली चीज़ है और "ख़ुदा कभी अपना वादा नहीं तोड़ता।" (8) अल्लाह पर ईमान, अपने रब पर ईमान जिसका इमाम ख़ुमैनी के हवाले से शहीद मुतह्हरी ने ज़िक्र किया है उसका मतलब यह है उन्हें अल्लाह के वादों पर भरोसा है, ईमान है, यह कहां और वह कहां जो किसी राह पर चलता है और कहता है कि चलो चल कर देखते हैं कि क्या होता है? यह अल्लाह पर ईमान ही है जिसकी वजह से इमाम ख़ुमैनी बेहद मज़बूत क़दमों से इस राह में आगे बढ़ते रहे।

इस्लाम पर ईमान उन चार तरह के ईमानों का एक हिस्सा है जिनका ज़िक्र इमाम ख़ुमैनी के हवाले से किया गया है। इमाम ख़ुमैनी ने इस इस्लाम को अपनी कई तक़रीरों में बयान किया है। यह इस्लाम, न तो कैपिटलिज्म का इस्लाम है और न ही खुले दिमाग़ का होने का दावा करने वाले अंजान व नादान लोगों का इस्लाम है।

इमाम ख़ुमैनी इस्लाम को जब बयान करते और उसे समझाते हैं तो यह जो मार्डन नज़रिये के दावे के साथ जो कुछ कहा जाता है उसे क़ुबूल नहीं करते क्योंकि यह वह ख़यालात हैं जिन्हें पेश करने वाले न तो इस्लामी शरीअत को मानते हैं, न ही इस्लामी फ़िक़्ह को क़ुबूल करते हैं लेकिन इस्लाम का दावा ज़रूर करते हैं! इमाम ख़ुमैनी इस तरह के सभी नज़रियों और ख़यालों का खंडन करते हैं, इसी तरह इमाम ख़ुमैनी उन रूढ़िवादी और पुराने ख़यालात के मालिक लोगों के इस्लाम को भी क़ुबूल नहीं करते जिनमें इतनी भी ताक़त नहीं होती कि वह इस्लामी किताबों से एक मार्डन नज़रिया क़ायम कर सकें और उसे मान लें और उसमें यक़ीन कर लें, इमाम ख़ुमैनी इन दोनों तरह के नज़रिया रखने वालों के इस्लाम को स्वीकार नहीं करते। इमाम ख़ुमैनी की नज़र में इस्लाम वह है जिसकी बुनियाद किताब, सुन्नत, मज़बूत इज्तेहाद और सही समझ हो। यह इमाम ख़ुमैनी का इस्लाम है। कट्टरपंथी इस्लाम का नाम लेते हैं, हो सकता है इस्लाम का सबक़ भी पढ़ाते हों लेकिन उस इस्लाम को नहीं मानते जिसके अक्सर क़ानून, समाज, सरकार और पॉलिटिक्स के सिलसिले में हैं और वह हुकूमती और सोशल व पॉलिटिकल मामलों में बेपरवाही का प्रचार करते हैं, इमाम ख़ुमैनी इस इस्लाम को नहीं मानते। यह थी इस्लाम की बात।

जनता पर ईमान की जो बात इस आयत “अल्लाह पर और मोमिनों पर ईमान रखते हैं“ में हैं हो सकता है कि कुछ लोग उसका दूसरा मतलब बयान करें लेकिन “मोमिनों के लिए ईमान“ का मतलब “मोमिनों पर ईमान“ ही है। क़ुरआने मजीद में ईमान की जहां भी बात की गयी है वहां उसके लिए “लिए” इस्तेमाल किया गया है जैसे ”उसके लिए लूत ईमान लाए।“ (9) “मोमिनों पर ईमान” यानी लोगों पर भरोसा, लोगों में यक़ीन। इन सभी बरसों में कई बार लोग इमाम ख़ुमैनी के पास आते थे और कहते थे कि हो सकता है कि लोग बरदाश्त न कर पाएं और इस कठिन राह पर इमाम ख़ुमैनी के साथ क़दम मिला कर न चल सकें लेकिन इमाम ख़ुमैनी कहते थे कि मैं लोगों को तुमसे बेहतर पहचानता हूं, और वह सही कहते थे, उन्हें पता था कि अगर लोगों की यह समझ में आ जाए कि यह अल्लाह का रास्ता है तो वह इस राह की सभी मुश्किलों को बरदाश्त करेंगे। जिन घरानों के लोग शहीद हुए हैं उन्होंने इमाम ख़ुमैनी के इस ख़याल को सही साबित किया है, इतने बरसों के दौरान क़ुर्बानी देने वाले नौजवानों ने इमाम ख़ुमैनी के इस ख़याल को सही साबित किया और दीनी और इन्क़ेलाबी प्रोग्रामों में अवाम की भारी मौजूदगी ने भी इमाम ख़ुमैनी के इस ख़याल को सही साबित किया। इमाम ख़ुमैनी को लोगों पर भरोसा था, लोगों के कामों पर, लोगों के जज़्बे पर, लोगों के वोटों पर भी। इस्लामी जुम्हूरी में जो यह “जुम्हूरी” है वह जनता पर इमाम ख़ुमैनी के भरोसा का नतीजा है। कुछ लोगों ने इमाम ख़ुमैनी के इस क़दम का अपनी समझ से कुछ और ही मतलब निकाल लिया और यह दिखाने की कोशिश की कि इमाम ख़ुमैनी ने मुरव्वत में पड़ कर जुम्हूरी का बात की! इमाम ख़ुमैनी ऐसे इन्सान नहीं थे जो तकल्लुफ़ और मुरव्वत के जाल में फंस जाएं। इमाम ख़ुमैनी ऐसे इन्सान नहीं थे जो इनकी उनकी चापलूसी की वजह से कोई बात कहें, उनका ईमान था, इस लिए उन्होंने डेमोक्रेसी की बात की। इमाम ख़ुमैनी ने अपने उम्र के आख़िरी दिनों में बताया था कि उन्होंने पहले प्रेसिडेंट को वोट नहीं दिया था। (10) वह कहते थे कि वोट दिया था लेकिन मैंने फ़लां को वोट नहीं दिया था, लेकिन जिस प्रेसिडेंट को वह नहीं मानते थे उसके ओहदे का इन्डोस्मेंट किया, क्यों? क्योंकि लोगों ने उस प्रेसिडेंट को ही वोट दिया था, वह जनता के वोटों को अहमियत देते थे। इमाम ख़ुमैनी का बुनियादी नज़रिया यह था। तो यह था  इमाम ख़ुमैनी के ईमान के बारे में छोटा सा बयान।

लेकिन जहां तक उम्मीद की बात है तो उम्मीद हमेशा इमाम ख़ुमैनी के दिल में बसी रहती थी। उम्मीद, इमाम ख़ुमैनी को ताक़त देती थी और इस उम्मीद को इमाम ख़ुमैनी की बातों और उनके कामों में अच्छी तरह से देखा जा सकता है।

इमाम ख़ुमैनी ने  40 के दशक में अपने उस मशहूर बयान में अल्लाह के लिए खड़े होने की बात की। (11) उन्होंने क़ुरआन मजीद की आयत “और यह कि तुम अकेले या दो-दो करके खड़े हो जाओ” (12) का ज़िक्र किया। यह बयान उन्होंने ख़ुद अपने हाथों से लिखा है और जो ख़ुद इमाम ख़ुमैनी की राइटिंग में यज़्द में मरहूम वज़ीरी की लाइब्रेरी में मौजूद है, यह सन 1940 के दशक की बात है। 60 के दशक में उन्होंने ख़ुद खड़े होकर इस पर अमल किया और संघर्ष के मैदान में क़दम रखा। 80 के दशक में जब हर तरफ़ फौजी, सिक्योरिटी और हैबतनाक (13) सियासी आंधियां  चल रही थीं, इमाम ख़ुमैनी के माथे पर एक शिकन तक न आयी। 40 के दशक से लेकर 60 के दशक तक और फिर 80 के दशक तक उम्मीद का यह कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला जारी रहा, यह इमाम ख़ुमैनी के दिल में उबलते उम्मीद के इस सोते का कमाल था। ख़ुद इमाम ख़ुमैनी ने अपने एक बयान में जो अब लिखित रूप में मौजूद है, कहा है कि मैं आंदोलन के दौर से लेकर इन्क़ेलाब की कामयाबी के बाद तक कभी भी मायूस नहीं हुआ और मुझे हमेशा यह यक़ीन था कि जब एक क़ौम कुछ चाहती है तो वह होकर रहता है। (14) इमाम ख़ुमैनी के दिल में यह उम्मीद भी दर अस्ल उनके ईमान का नतीजा थी। जब आपको अल्लाह पर पूरी सच्चाई के साथ ईमान होता है तो आपके दिल में भी उम्मीद की यह मशाल जल उठती है और जो कभी नहीं बुझती। उम्मीद और ईमान एक दूसरे पर अपना असर डालते हैं, ईमान उम्मीद पैदा करता है। उम्मीदें पूरी होने से ईमान बढ़ता है, यह दोनों एक दूसरे पर असर डालते हैं।

वैसे यह भी याद रखना चाहिए कि जब हम उम्मीद की बात करते हैं तो उसे ग़लतफ़हमी और धोखा देने वाले ख़यालों के जैसा नहीं समझना चाहिए। उम्मीद वह चीज़ है जिसके साथ काम भी शामिल होता है, उम्मीद, सुस्ती और ठहराव के साथ नहीं हो सकती। जिसे अपनी मंज़िल तक पहुंचने की उम्मीद होती है वह रास्ता चलता है। अब अगर कोई बैठ जाए और इसके साथ यह भी उम्मीद रखे कि वह अपनी मंज़िल तक पहुंच जाएगा तो यह नामुमकिन है। यह एक धोखा है और रिवायतों और दुआओं में इसे “अल्लाह के नाम पर धोखा“ कहा गया है और इस बात को बुरा कहा गया है कि कोई इन्सान बिना कुछ किये ही और बिना किसी कोशिश के अपना कोई मक़सद हासिल करना चाहे, जी नहीं, कोशिश ज़रूरी है, इमाम ख़ुमैनी को उम्मीद थी और उसके लिए वह कोशिश करते थे।

यहां तक तो इमाम ख़ुमैनी के सिलसिले में जो बातें थीं उनमें हमने इमाम ख़ुमैनी के बारे में तीन बुनियादी बातें बता दीं। अब बारी है हमारी और इमाम ख़ुमैनी से कुछ सीखने की। आज इमाम ख़ुमैनी हमसे क्या सिफ़ारिश करते हैं? भाइयो! बहनो! ईरान की महान कौम़! पूरे मुल्क के जोश भरे जवानो! इमाम ख़ुमैनी की सिफ़ारिशों पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। इमाम ख़ुमैनी बहुत बड़ी हस्ती हैं, सबसे आगे हैं, जीवित हैं, हम से कुछ कह रहे हैं, हम से बातें करते हैं, हमारे सामने भी लंबा रास्ता है, हमें भी बड़े बड़े काम करने हैं, इस लिए हमें इमाम ख़ुमैनी की सिफ़ारिशों की ज़रूरत है। इमाम ख़ुमैनी क्या सिफ़ारिश करते हैं? यक़ीनी तौर पर इमाम ख़ुमैनी की सबसे अहम सिफ़ारिश, उनके मिशन को जारी रखना है, उनकी विरासत की हिफ़ाज़त करना है, यह इमाम ख़ुमैनी की सबसे बड़ी सिफ़ारिश है। हमें उन तीनों बदलावों पर जो इमाम ख़ुमैनी ने मुल्क में, इस्लामी उम्मत में और दुनिया में किये हैं, नज़र रखनी चाहिए, उनकी पैरवी करना चाहिए, उनकी हिफ़ाज़त करना चाहिए। यक़ीनी तौर पर आज इस मक़सद के लिए आगे बढ़ने के लिए कुछ चीज़ों की ज़रूरत है, इमाम ख़ुमैनी का दौर अलग था, यह हम सब को मालूम है। यक़ीनी तौर पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम, इंटरनेट और इस तरह की साइंटिफ़िक तरक़्क़ी के ज़माने में आज से 40 बरस पहले के तरीक़ों से, उस तरह के टेप रिकार्डर, टेलीफ़ोनों से आज काम नहीं किया जा सकता। आज के दौर में उस मक़सद को पूरा करने के लिए आज के दौर के हिसाब से चीज़ें होनी चाहिएं। इस में तो कोई शक नहीं है। साधन और ज़रिया बदल जाते है लेकिन जो चीज़ नहीं बदलती व मोर्चा और स्टैंड होता है। मोर्चे नहीं बदले, न बदले हैं न ही बदलेंगे। मक़सद नहीं बदलते, धड़े नहीं बदलते, दुश्मन का मोर्चा, साम्राज्य का मोर्चा, ज़ोर ज़बरदस्ती का मोर्चा, ज़ायोनिज़्म और दुनिया की तानाशाह और नाजायज़ क़ब्ज़ा करने वाली ताक़तों का मोर्चा आज भी कल की तरह, ईरानी क़ौम के सामने खड़ा है, लेकिन आज इस मोर्चे में जो बदलाव पैदा हुआ है वह यह है कि ईरानी क़ौम ज़्यादा मज़बूत हो गयी है और वह ज़्यादा कमज़ोर हो गये हैं, लेकिन धड़ेबंदी और मोर्चाबंदी वही है। हमारे मिशन और आंदोलन के लिए जो चीज़ गहरी खाईं की तरह ख़तरनाक हो सकती है वह यह है कि हम इस दुश्मनी को भूल जाएं, इस मोर्चाबंदी को भूल जाएं, क्योंकि हम जब भी यह बात भूलें हैं हमें चोट पहुंची है। यह जो बदलाव इमाम ख़ुमैनी ने पैदा किये उसे जारी रखना ईरानी क़ौम के लिए ज़रूरी है। ईरानी क़ौम की ज़िंदगी, ताक़त, इज़्ज़त और उसका फ़ायदा, इमाम ख़ुमैनी की तरफ़ से किये गये बदलाव को जारी रखना है और इन बदलावों के कड़े दुशमन हैं जिन के दिल नफ़रत व दुश्मनी से भरे हैं। पूरी दुनिया में जहां कहीं भी वो लोग जो दूसरी क़ौमों पर हमला करना चाहते हैं और हमला करते हैं, छावनियां बनाते हैं, दूसरों के तेल चुराते हैं, वहां के लोगों का क़त्ले आम करते हैं, जहां उनके बस में होता है, हर क़िस्म का जुर्म करते हैं, वहां यह दुश्मनी और उनके दिलों में यह दुश्मनी मौजूद है। अब अगर इस तरह की हरकतों के सामने ईरानी क़ौम डट जाना चाहे तो उसे किस चीज़ की ज़रूरत होगी? मैं कह रहा हूं, उसे उसी साफ़्ट पावर और प्लानिंग की ज़रूरत होगी जो इमाम ख़ुमैनी की ख़ासियत थी और जिसकी वह लोगों को सिफ़ारिश करते थे यानी, ईमान और उम्मीद।

इस बात पर भी ख़ास तौर पर हमारे नौजवान ध्यान दें कि ईरानी क़ौम के साथ साम्राज्यवादियों की दुश्मनी, कुछ मामलों में पीछे हट जाने से ख़त्म नहीं होने वाली। बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में हैं वो लोग जो यह समझते हैं कि मिसाल के तौर पर अगर हमं फ़ुलां मामले में पीछे हट जाएं तो इसकी वजह से हम से अमरीका की, साम्राज्यवाद की या फिर ज़ायोनियों की दुश्मनी कम हो जाएगी, जी नहीं, यह सोच ग़लत है। कई मामलों में हमारे पीछे हटने के बाद उन्होंने और भी चढ़ाई कर दी और ज़्यादा आक्रामक हो गए। दुनिया के कई मुल्कों में इन कुछ दहाइयों में कुछ सरकारों में ऐसे लोग गुज़रे हैं जिनका यह मानना था कि कुछ चीज़ों में सामने वाले को, मुक़ाबले में खड़े मोर्चे को कुछ रियायत देना चाहिए और थोड़ा पीछे हट जाना चाहिए। हमने जिन मुल्कों के सामने पीछे हटने का फ़ैसला किया था उन्हीं में से एक ने हमारे प्रेसिडेंट के ख़िलाफ़ उनकी ग़ैर मौजूदगी में अदालत में मुक़द्दमा दायर कर दिया और ईरान के प्रेसिडेंट के ख़िलाफ अदालत में चार्जशीट दाख़िल की। (15) इसी तरह एक सरकार में जब अफ़सोस के साथ अमरीकियों की मदद भी की गयी थी तो ईरान को दुष्टता की धुरी (exis of evil) कह दिया गया। (16) यह लोग पीछे हटने पर संतुष्ट नहीं होते। वह जो चाहते हैं वह यह है कि ईरान को, इन्क़ेलाब से पहले वाले दौर में वापस ले जाएं, वह ईरान जो उनके सहारे पर था, जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी, वह ईरान जो इनकी-उनकी तरफ़ देखता रहता था, वह यह चाहते हैं। वह इस तरह से कुछ मामलों में पीछे हटने पर ख़ुश नहीं होंगें, हम ग़लती न करें।

मैं ईरानी क़ौम और आप प्यारे नौजवानों से जो कहना चाहता हूं वह यह है कि मेरा यह कहना है कि जो भी ईरान से मुहब्बत करता है, जो भी ईरान के नेशनल इंट्रेस्ट से लगाव रखता है, जो भी इकानॉमी के मैदान में तरक़्क़ी चाहता है और इस मैदान में पैदा होने वाली प्राब्लम्स से परेशान है और उसमें सुधार चाहता है, जो भी फ़्यूचर में, न्यू वर्ल्ड आर्डर में ईरान की इज़्ज़तदार पोज़ीशन की ख़्वाहिश रखता है, जो भी  यह सब कुछ चाहता है, उसे क़ौम में ईमान और उम्मीद को फैलाना चाहिए। यह एक ज़िम्मेदारी है। यह हम सब का फ़र्ज़ है। यह मुल्क के सभी पढ़े लिखे लोगों, इन्क़ेलाबियों, सियासी धड़ों और सभी ज़िम्मेदार नागरिकों से मेरी सिफ़ारिशों का निचोड़ है। हम सब को यह कोशिश करना चाहिए कि हमारे मुल्क में ईमान व उम्मीद हमेशा ज़िंदा रहे।

मेरी सिफ़ारिश, ईमान और उम्मीद को मज़बूत करना है, और दुश्मन इसी ईमान और उम्मीद को निशाने पर ले रहा है। दुश्मनों की भरपूर कोशिश है, मैं इस बारे में भी कुछ बातें कह रहा हूं कि वो किसी तरह जनता के बीच ईमान और उम्मीद को ख़त्म कर दें, लोगों के ईमान को कमज़ोर कर दें, लोगों ख़ास तौर पर जवानों के दिलों में उम्मीद की मशाल बुझा दे। हमारी सिफ़ारिश है कि लोगों में ईमान और उम्मीद को मज़बूत किया जाए। दुश्मन ईमान और उम्मीद को ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है। हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता ईमान और उम्मीद पर टिकी है। राष्ट्रीय सम्मान, नेश्नल इंट्रेस्ट की हिफ़ाज़त, ईमान और उम्मीद से की जा सकती है, यह सब चीज़ें दुश्मनों के निशाने पर हैं। हमारे नेश्नल इंट्रेस्ट के बड़े बड़े दुश्मन हैं, हठधर्मी व ज़िद्दी दुश्मन हैं, उनके बस में जो होता है वो करते हैं और अब तक कर चुके हैं। इन कुछ दशकों में साम्राज्यवाद की ज़िद्दी और दुश्मनी से भरी एजेन्सियों ने, उनकी सेक्यूरिटी एजेन्सियों ने, उनकी सरकारों ने और उनकी दौलत ने, जो कुछ उनके बस में था, ईरानी क़ौम के ख़िलाफ़ किया, कुछ मामलों में उन्हें कामयाबी भी मिली लेकिन अक्सर मामलों में ख़ुदा के शुक्र से ईरानी क़ौम ने उन्हें धूल चटा दी।

सब लोग ध्यान दें! दुश्मन की आख़िरी कोशिश मतलब अब तक की आख़िरी कोशिश, क्योंकि आगे वो और भी बहुत कुछ करेंगे, यही पिछले साल पतझड़ के मौसम में होने वाले दंगे थे। ध्यान दें! पिछले साल के इन दंगों की प्लानिंग, वेस्टर्न मुल्कों के थिकं टैंकों ने की थी, वहां सब कुछ तैयार किया गया। सब कुछ सोच समझ कर प्लानिंग की गयी थी, वेस्ट में प्लानिंग की गयी और पैसे का इंतेज़ाम किया गया और वेस्टर्न एजेन्सियों की मदद से हथियार सप्लाई किये गये। हर तरह से उन्होंने मदद की, पैसे का इंतेज़ाम किया, हथियारों का इंतेज़ाम किया और इसके साथ ही बड़े पैमाने पर मीडिया के ज़रिए मदद की। ज़मीन पर यह काम उनके कुछ पिटठुओं ने किया जो अपने मुल्क के ग़द्दार थे, वो यहां से चले गये, ईरान के दुश्मनों के एजेन्ट बन गये, सिर्फ़ इस्लाम या इस्लामी जुम्हूरिया के दुश्मन नहीं बने बल्कि ईरान के दुश्मन बन गये। कुछ लोग यहां मुल्क के अंदर उनके पियादे थे। दुश्मन के इन पियादों में कुछ दुश्मनी रखने वाले लोग थे, लेकिन ज़्यादातर लोग अंजान, जज़्बाती और गहरी सोच न रखने वाले थे। जबकि कुछ सड़क छाप ग़ुंडे थे, यह लोग पिछले साल के दंगों में दुश्मन के पियादे थे। वेस्टर्न मुल्कों के थिंक टैंकों से लेकर तेहरान और कुछ दूसरे शहरों के सड़क छाप ग़ुंडो तक, इन सब ने मिल कर दंगा किया था। सब कुछ सोच लिया था, दूसरे मुल्कों के रेडियो और टीवी चैनल बिना किसी संकोच के, बिना किसी मुरव्वत के लोगों को हथगोले बनाने की ट्रेनिंग दे रहे थे, उन्हें ईरान के टुकड़े करने के नारे सिखा रहे थे, तस्करी से मुल्क में लाये गये हथियारों की मदद से सड़कों पर फायरिंग का प्रचार कर रहे थे। इन ग़ुंडों ने स्टूडेंट्स, ‘बसीजी नौजवानों’, पुलिस अफ़सरों या बसीज फ़ोर्स के सदस्यों को सड़कों पर, लोगों के सामने टार्चर करके मार डाला, शहीद कर दिया। (17) तवज्जो कीजिए! इन सबसे ईरानी क़ौम की अज़मत व महानता और ईरानी क़ौम के दिल में ईमान का जज़्बा और भी बढ़ गया। मुल्क के अंदर क़ातिलों और ग़ुडों ने यह सब किया और दुश्मनी रखने वालों ने नारे लगाए, जबकि ईरान से बाहर कई बड़े बड़े राजनेताओं ने इन्ही दुश्मनों के साथ फोटो खिंचवाए। इन्हें यह लगता था कि सब कुछ ख़त्म हो चुका है। उन्होंने वह प्लान तैयार किया था जिसकी वजह से उन्हें यह लगता था कि इस्लामी जुम्मरिया का काम तमाम हो चुका है, वो यह समझ बैठे थे कि ईरानी क़ौम को अपनी ग़ुलामी करने पर मजबूर कर सकते हैं। बेवक़ूफ़ों ने एक बार फिर ग़लती की, इस बार भी ईरानी क़ौम को पहचान न पाए। यक़ीनी तौर पर ईरानी क़ौम ने उन्हें अनदेखा किया, उनकी कॉल पर ध्यान नहीं दिया। बहुत से नौजवान सड़कों पर, यूनिवर्सिटियों में बड़े बड़े काम करने में कामयाब रहे। बसीजी स्टूडेंट्स ने, शहरों में बसीजियों, ज़िम्मेदार व दीनदार शहरियों ने, अपनी ज़िम्मेदारी पूरी की और उन्होंने दुश्मन को नाकाम बना दिया। दुश्मन के मंसूबे पर पानी फिर गया लेकिन सब को यह बता दिया गया कि दुश्मनों की मक्कारी से कभी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, दुश्मनों की साज़िश की अनदेखी न करें!

दुश्मन की यह कोशिश है कि वो ईरानी नौजवानों को नाउम्मीद करे। यह सही है कि हमारे मुल्क में कुछ प्राब्लम्स हैं, लेकिन वो इन प्राब्लम्स को ईरानी नौजवानों के सामने बार बार पेश करते हैं। इकोनॉमी के मैदान में समस्याएं हैं, महंगाई की समस्या है, करेंसी की क़ीमत में गिरावट की प्राब्लम है, यह सब समस्याएं हैं, दुश्मन की यह कोशिश होती है कि इन समस्याओं को जो सबकी सब दूर की जा सकती हैं और अल्लाह की मदद से इंशाअल्लाह सब दूर भी होंगी, अपना हथियार बनाए और उसकी मदद से नौजवानों के दिलों में उम्मीद का चिराग़ बुझा दे। जबकि इन सब प्राब्लम्स को दूर किया जा सकता है। समस्याओं से उम्मीद कमज़ोर नहीं पड़नी चाहिए। अगर हम प्राब्लम्स देखें तो उससे समाधान और रास्ता तलाश करने और जो इन प्राब्लम्स के सामने खड़े हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश कर रह रहें हैं  उनकी मदद के लिए हमारा जज़्बा मज़बूत होना चाहिए। यक़ीनी तौर पर हमारे मुल्क में प्राब्लम्स हैं लेकिन दूसरी तरफ़ ऐसी चीज़ें भी हैं जो उम्मीद पैदा करती हैं। मैं अपने प्यारे नौजवानों से कहता हूं कि दुश्मन हमें उम्मीद जगाने वाली सच्चाइयों को नहीं देखने देना चाहता। उम्मीद पैदा करने वाली हक़ीक़तें समस्याओं से कई गुना ज़्यादा हैं। साइंस के मैदान में मुल्क की तरक़्क़ी, तकनीक के मैदान में, इंडस्ट्री और एग्रीकल्चर के बुनियादी ढांचों के मैदान में, बहुत ज़्यादा अहम ट्रांस्पोर्टेशन के इंफ़्रास्ट्रक्चर के मैदान में तरक़्क़ी, एक्सपर्ट मैन पावर की ट्रेनिंग के मैदान में तरक़्क़ी, मुल्क के दूर-दराज़ के इलाक़ों में बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स के मामले में जो इस वक़्त चल रहे हैं, इन्टरनेशनल पॉलीसियों के मैदान में, क़ौमी इज़्ज़त, फ़ौजी ताक़त, डिफ़ेन्स में तरक़्क़ी यह सब उम्मीद बढ़ाने वाली सच्चाइयां हैं, दुश्मन यह चाहता है कि हम इन सच्चाइयों को भूल जाएं, उन्हें भुला दें और हमारे नौजवानों को इन सब के बारे में पता ही न चले। यह सच्चाइयां एक रौशन मुस्तक़बिल और उज्जवल भविष्य का पता देती हैं।

जब आप उम्मीद के बारे में बात करते हैं, तो कुछ लोगों का दिल चाहता है कि आप की इस उम्मीद को इन प्राब्लम्स का ज़िक्र करके धचका पहुंचाएं। अगर आप उम्मीद की बात करते हैं तो वो कहते हैं कि आप को सच्चाई का पता ही नहीं है। यह कैसे हो सकता है कि सच्चाई का किसी को पता ही न हो? वो जिस सच्चाई की बात करते हैं वह वही इकॉनोमी के मैदान की सच्चाइयां हैं, यह आर्थिक समस्याएं हैं, इस के बारे में तो सब को पता है, सब इन समस्याओं से जूझ रहे हैं, इस में तो कोई शक नहीं। कुछ लोग दूसरों के दिलों में उम्मीद के पौधे को जड़ से उखाड़ देने के लिए यह कहते हैं कि हमारे समाज में ऐसे लोग हैं जिन्हें दीन, ईमान और इन्क़ेलाब से कोई मतलब नहीं है। हां सही है! लेकिन यह आज ही की बात तो नहीं है, 80 के दशक में भी जब हर मोर्चा, नौजवान मोमिनों से छलक रहा था तो कुछ लोग बड़े-बड़े शहरों में तेहरान में बेपरवाह होकर घूमते फिरते थे, उन्हें न सिर्फ़ यह कि ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं था बल्कि वो सरकारी ओहदेदारों का मज़ाक़ भी उड़ाते थे! आप पढ़ें! शहीदों और फ़ौजियों की ज़िंदगी के बारे में, यह लोग जब बड़े-बड़े शहरों में आते, ख़ास तौर पर बड़े शहरों में जब आते तो उनका दिल नहीं लगता था और उनकी यह हालत इसी वजह से थी। 80 का दशक, इन्क़ेलाब की कामयाबी का पहला दशक था लेकिन उस वक़्त भी यह सब था, इसमें हैरत की कोई बात नहीं। आज भी यक़ीनी तौर पर ऐसे लोग हैं जिन्हें न तो इन्क़ेलाब से, न इस्लाम से, न ही ईरानी होने से कोई मतलब है। बेशक हैं, लेकिन ईरानी क़ौम यह लोग नहीं हैं। ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम के दौर में भी कुछ लोग शहादत से बेहद लगाव रखते थे, जेहाद का शौक़ रखते थे, अगर मोर्चे पर जाने का मौक़ा नहीं मिलता था तो रोते थे, लेकिन वहीं मदीने में कुछ लोग थे जिन्हें मुनाफ़ेक़त की आदत पड़ गयी थी। (18) क़ुरआने मजीद उनके बारे में कहता है कि “उन्हें नेफ़ाक़ की आदत पड़ गयी थी।” या एक और जगह क़ुरआन में कहा गया है कि “अगर मुनाफ़िक़ और जिनके दिलों में बीमारी है वो और मदीना के अफ़वाह फैलाने वाले अपनी हरकतों से बाज़ न आए..” (19) पैग़म्बरे इस्लाम के मदीने में भी ऐसे लोग थे जिन्हें क़ुरआने मजीद में “अफ़वाह फैलाने वाले” कहा गया है, अफ़वाह फैलाने वाले, डर का माहौल पैदा करने वाले, शक पैदा करने वाले, वह भी पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में! जब कि उनके ज़माने में न इंटरनेट था, न सोशल मीडिया था, न ही इतने सारे टीवी चैनल थे। आज इन सब चीज़ों के होने के बावजूद आप ग़ौर करें कि ईरानी नौजवान किस तरह से अपनी अज़मत व महानता का लोहा मनवा रहा है।

हम आज पूरे मुल्क में मस्जिदों और अंजुमनों में रेज़िस्टेंस के सेन्टर हैं जहां से नौजवान, मुक़द्दस रौज़ों की हिफ़ाज़त के लिए उठ खड़े होते हैं, मुल्क में सेक्युरिटी के लिए नौजवान तैयार होते हैं, वहां से बसीजी स्टूडेंट्स तैयार होते हैं।

उम्मीद पैदा करने वाली बात यह है कि दुश्मन की इन भरपूर कोशिशों में, आप यह देखते हैं कि इन हालात में कि जब दुश्मन पूरी तरह से तलवार न्याम से बाहर निकाले हुए है और टूट पड़ने के लिए बेचैन है, किसी युनिवर्सिटी में एक इन्क़ेलाबी स्टूडेंट, गालियां सुन कर भी, मैदान से बाहर नहीं निकलता, बसीजी तालिबे इल्म को टार्चर करके शहीद कर दिया जाता है लेकिन वह अपनी ज़बान पर वह बात लाने पर तैयार नहीं होता जो दुश्मन उससे कहलाना चाहता था। क़ुरबानी पेश करने वाले मुजाहिद, मुक़द्दस रौज़ों की हिफ़ाज़त करने वाले, बयान के जेहाद में मेहनत करने वाले, ईमानी व इंसानी जज़्बे के तहत मदद करने वाले, सोशल वर्करों के कैंप, यह सब कुछ हमारे मुल्क के नौजवानों की मेहनतें हैं। इंटरनेट के बावजूद, सोशल मीडिया के बावजूद, गुमराह करने वाली इन तमाम चीज़ों के बावजूद, हमारे नौजवान इस राह पर डटे हुए हैं और आगे बढ़ रहे हैं। कभी-कभी आप देखते हैं कि एक गांव से एक रूहानी व नूरानी हस्ती उठती है, शहरयार के आस पास के एक गांव से मुस्तफ़ा सद्रज़ादे जैसा क़ुरबानी पेश करने वाला नौजवान सामने आता है। हमारे पास पूरे मुल्क में मुस्तफ़ा सद्रज़ादे जैसे नौजवान बहुत ज़्यादा हैं, हज़ारों हैं, यह सब उम्मीद पैदा करने वाली चीज़ें हैं। हम सबकी ज़िम्मेदारी है, पढ़े-लिखे लोगों की ज़िम्मेदारी है, इन्क़ेलाबी युनिटों की ज़िम्मेदारी है, युनिवर्सिटियों से जुड़े लोगों की, दीनी मदरसों से जुड़े लोगों की और समाज में अच्छी पोज़ीशन रखने वालों की ख़ासतौर पर उन लोगों की जिनकी बातें लोग सुनते हैं, इन सबकी ज़िम्मेदारी है, ज़िम्मेदारी भी यह है कि वो लोगों के ईमान को मज़बूत करें, उम्मीद बढ़ाएं, शक को हटाएं, नाउम्मीदी और शक पैदा करने के दुश्मनों के हथकंडों को नाकाम बनाएं।

मैं आप से कह रहा हूं एक हथकंडा मुल्क के ओहदेदारों की तरफ़ से, मुल्क की तरफ़ से, मुल्क की पॉलीसियों की तरफ़ से, मुल्क में इकॉनोमी के मैदान में तरक़्क़ी की तरफ़ से और आपस में एक-दूसरे की तरफ़ से नौजवानों में ग़लतफ़हमी पैदा करना है। यह दुश्मन का हथकंडा है, इस का मुक़ाबला करें। दुश्मनों का एक और हथकंडा, चुनाव के बारे में बदगुमानी फैलाना है, मैं साल के आख़िर में होने वाले चुनाव के बारे में अगर ज़िंदा रहा और मौक़ा मिला तो बाद में कुछ बातें कहूंगा। यहां पर बस यही कहूंगा कि यह चुनाव, बहुत ज़्यादा अहम हैं और दुश्मन ने अभी से अपनी तोपों का रुख़ इस चुनाव की ओर कर लिया है, वह चुनाव पर गोलाबारी कर रहा है, जबकि अभी कम से कम 9 महीने बचे हैं इलेक्शन में। हमारे नौजवानों को, हमारी क़ौम को चाहिए कि वह इस बेदारी और चेतना को, इस जज़्बे को, इस ईमान और उम्मीद को हर दिन बढ़ाएं और दुश्मन को नाकाम बनाएं।

पालने वाले, तुझे मुहम्मद और आले मुहम्मद का वास्ता, हमारी क़ौम पर रहमत नाज़िल कर, बरकत, हिदायत और मुकम्मल कामयाबी दे। पालने वाले! इमाम ख़ुमैनी का हिसाब किताब पैग़म्बरे इस्लाम के साथ कर। पालने वाले हमें इमामे ज़माना के सिपाहियों में क़रार दे। पाने वाले! इमाम ज़माना को हम से राज़ी कर, और हमें उनकी दुआओं के क़ाबिल बना, ख़ास  तौर पर हमारे नौजवानों को। पालने वाले! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद का वास्ता, मुल्क के ओहदेदारों के जज़्बे और मेहनत से हमारे मुल्क के मसाइल को ख़त्म कर दे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोहू

1) इस प्रोग्राम की शुरुआत में इमाम ख़ुमैनी के मज़ार के मुतवल्ली हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद हसन ख़ुमैनी ने तक़रीर की।

2) सूरए रअद आयत 17

3)सूरए तौबा आयत 61

4) सूरए मुहम्मद, आयत 7

5) सूरए हज आयत 40

6) सूरए हज आयत 38

7) सूरए रअद आयत 17

8) सूरए आले इमरान में भी, आयत 9

9) सूरए अनकबूत, आयत 26

10) सहीफ़ए इमाम, जिल्द 21, पेज 330, मुंतज़ेरी साहब के नाम ख़त

11) सहीफ़ए नूर, जिल्द 1 पेज 3

12) सूरए सबा, आयत 46

13) भयानक, डरावना

14) सहीफ़ए इमाम, जिल्द 9 पेज 81, युरोप व अमरीका में पढ़ने वाले छात्रों के बीच तक़रीर

15) जर्मनी के मैकोनोस रेस्टोरेंट की घटना की तरफ़ इशारा है जिसके बाद ईरान के उस वक़्त के प्रेसिडेंट हुज्तुल इस्लाम वलमुसलेमीन हाशेमी रफ़संजानी के ख़िलाफ अदालती कार्यवाही की गयी थी। 

16) 9/11 के हमले के बाद उस वक़्त की ईरानी सरकार ने अफ़गानिस्तान में अलक़ायदा दहशतगर्द गिरोह से मुक़ाबले के लिए आतंकवाद के ख़िलाफ बने गठजोड़ की मदद की थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर ने, इस से फ़ायदा उठाने और अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करने के बाद, उसी साल ईरान को दुष्टता धुरी का हिस्सा क़रार देकर फ़ौजी हमले की धमकी दी।

17) लोगों ने नारे लगाए

18) सूरए तौबा, आयत 101

19) सूरए अहज़ाब, आयत 60