आयतुल्लाह ख़ामेनेई की स्पीचः

बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

 

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

भाइयो और बहनो, आप सबका स्वागत है!

आदरणीय सांसद गण! यह सालाना मुलाक़ात इस बात का एक मौक़ा है कि संसद का एहतेराम किया जाए, इस अहम मरकज़ पर निगाहें टिकी रहें और सभी संसद की अहमियत व अज़मत पर ध्यान दें। यह इस बात का मौक़ा भी है कि सांसदों की क़द्रदानी की जाए। एक साल आपने मेहनत की -इस बार तो तीन साल मेहनत की है- और हक़ तो यह है कि हर साल के अंत पर दिल की गहराई से आदरणीय सासंदों की क़द्रदानी की जाए, इस बैठक का एक मक़सद यह है। इसके अलावा कुछ नसीहतें और याद दहानियां भी हो सकती हैं जिन्हें हम समझते हैं कि फ़ायदेमंद हो सकती हैं और संविधान के आर्टिकल 57 का तक़ाज़ा भी है कि हम कुछ याद दहानियां और कुछ नसीहतें आपको करें।

मैंने कुछ बातें आपसे अर्ज़ करने के लिए तैयार की हैं, लेकिन इन बातों को शुरू करने से पहले, ख़ुर्रमशहर की फ़तह की याद ज़रूरी है। हक़ीक़त में यह कारनामा था। यानी सन 1982 के मार्च के अंत में, 22 मार्च को फ़त्हुल मुबीन ऑप्रेशन अंजाम दिया गया, जिसमें अज़ीम फ़तह हासिल हुई और उस ऑप्रेशन में दुश्मन के 15000 से ज़्यादा फ़ौजी गिरफ़्तार हुए, कोई सोच भी नहीं सकता था कि इतनी जल्दी हमारे सशस्त्र बल दूसरे ऑप्रेशन की फ़िक्र में होंगे, ऐसे ऑप्रेशन की फ़िक्र में जो ऑप्रेशन फ़त्हुल मुबीन से कई गुना बड़ा हो, लेकिन यह हुआ। जब हम ख़ुर्रमशहर पर नज़र डालते हैं तो (देखते हैं) कि यह एक चमत्कार जैसा वाक़ेया था, यानी हक़ीक़त में चमत्कार लगता था। ख़ुर्रमशहर की फ़तह के बाद, मध्यस्थता करने वाले, कुछ राष्ट्रपति ईरान आते हैं, मिस्टर सीको तोरे (2) जो अफ़्रीक़ा की अहम व लोकप्रिय शख़्सियत थे, आए और मुझसे कहा कि आज आपकी पोज़ीशन ख़ुर्रमशहर की फ़तह की वजह से कल से अलग है, अब बात की पृष्ठिभूमि अलग है।

ख़ुर्रमशहर की फ़तह की अज़मत निगाहों को अपनी ओर खींचती है, लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि ख़ुर्रमशहर की फ़तह से भी ज़्यादा या कम से कम इतना ही अहम ऑप्रेशन “बैतुल मुक़द्स” है। इस ऑप्रेशन का नतीजा ख़ुर्रमशहर की फ़तह के रूप में सामने आया। वो बलिदान, वो बिल्कुल अनोखे सैनिक आप्रेशन और वो जंग की योजनाएं, मेरे ख़याल में डिफ़ेन्स यूनिवर्सिटियों में पढ़ाई जानी चाहिए। बीच के रास्ते निकालना, दुश्मन को ज़मीन से लगा देना, दुश्मन को घेरे में ले लेना, नफ़री और हथियारों की कमी के बावजूद दृढ़ता और इस ऑप्रेशन में हमारे सिपाहियों की शहादत, ये सब बहुत अहम हैं। लोग इससे संबंधित किताबें पढ़ें। मैं नहीं जानता कि आप प्रिय भाइयों व बहनों को इन आप्रेशनों के बारे में जो किताबें लिखी गयीं हैं उन्हें पढ़ने का वक़्त मिलता है या नहीं लेकिन मैं समझता हूं कि वक़्त मिले तो इन्हें ज़रूर पढ़िए। अगर आपको अपने शहर में चुनावी कार्यवाहियों और प्रचारिक सरगर्मियों का मौक़ा मिलता है तो अवाम के बीच जाएं, उनसे बातें करें और फिर अवाम संतोष के साथ पोलिंग स्टेशनों पर जाएं और आपको वोट दें, फिर आप चार साल संसद में रहें, ये सब उन बलिदानों की वजह से है, उन शहादतों की वजह से और सही मानी में उन जांबाज़ियों की वजह से है। जब एक कमांडर जंग के बीच यह महसूस करता है कि उसके फ़ौजी थके हुए हैं, उनके पास जंग के लिए संसाधन व उपकरण नहीं हैं और दुश्मन 200 टैंकों के साथ हमारे मोर्चों की ओर बढ़ रहा है तो वह अपने फ़ौजियों का हौसला बढ़ाने के लिए मोर्चे के ऊपर जाकर अपने फ़ौजियों से ख़िताब करता है! तो यह ज़बान से बयान करना आसान है, लेकिन बहुत बड़ा काम है, वाक़ई यह आम इंसानी ताक़त से बाहर की चीज़ है। यानी आम तौर पर इंसान में यह ताक़त नहीं होती। ये बहुत अज़ीम काम हैं, इसको मिटने न दीजिए। आपके पास बहुत अहम ट्रिब्यून है, संसद के रूप में मौजूद ट्रिब्यून। आपकी आवाज़ पूरे मुल्क में बल्कि पूरी दुनिया में पहुंचती है, वे अज़ीम वाक़यात और फ़ख़्र के क़ाबिल कारनामे मिटने व भूलने न दें। ख़ुर्रमशहर की फ़तह की तारीख़ पूरी ईरानी क़ौम को मुबारक हो!

मैंने कुछ बातें नोट की हैं जो अर्ज़ करुंगा। पहली बात क़ानून से संबंधित है। इस बारे में दो तीन प्वाइंट्स पेश करुंगा, दूसरी बात ग्यारहवीं संसद के बारे में है, यही आपकी संसद, तीसरी बात कुछ अनुशंसाएं हैं जो अर्ज़ करुंगा।

आज जो बातें मैं आपसे करुंगा उनमें से बहुत सी बातें ऐसी हैं जो बार बार कही जा चुकी हैं, पिछले साल इसी जगह बहुत सी बातें हम ने कही हैं (3) इससे पहले के बरसों में भी इसी तरह। लेकिन सुनना, नसीहत करना और बार बार कहना अपनी जगह ज़रूरी है।

क़ानून और क़ानून साज़ी की अहमियत के बारे में अर्ज़ करुंगा कि यह सही है कि आप संसद को दोहरी अहमियत देते हैं, क़ानूने बनाने और निगरानी दोनो लेहाज़ से। जैसा कि क़ानून में निगरानी की व्याख्या भी की गयी है। लेकिन क़ानून बनाना, निगरानी से ज़्यादा अहमियत रखता है, संसद के लिए क़ानून बनाना मुख्य विषय है। क़ानून का मक़सद क्या है? अस्ल में हमें क़ानून की ज़रूरत क्यों है? इसलिए कि ज़िन्दगी में स्थिरता बुनियादी अहमियत रखती है। अगर स्थिरता न हो तो समाज की हालत के बारे में अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकेगा और उसके लिए कोई योजना नहीं बन पाएगी। योजनाबंदी इस बात पर निर्भर होती है कि आप भविष्य की ओर से संतुष्ट हों ताकि मिड टर्म और लॉन्ग टर्म योजना बना सकें। कैसे मुतमइन होंगे? क़ानून से। सभी मामलों में, आर्थिक मामलों में, राजनैतिक मामलों में, कल्चर वग़ैरह के मामलों में। क़ानून नियम व उसूल बनाता है, क़ानून यह है। अगर क़ानून न हो तो ज़िन्दगी बिखर जाएगी। कहते हैं कि दुनिया में बुरा क़ानून भी सिरे से क़ानून न होने से बेहतर है। हालांकि बुरा क़ानून बहुत बड़ी मुसीबत है, लेकिन कहते हैं कि वो भी क़ानून न होने से बेहतर है। इसलिए क़ानून बनाने का विषय बहुत अहम है। क़ानून बनाने से, अवाम को भी अपनी ज़िन्दगी के बारे में योजना बनाने का मौक़ा मिलता है और कल्चर व आर्थिक क्षेत्र के मुख़्तलिफ़ विभागों व संगठनों को भी मुल्क के अधिकारियों और सरकारों को भी यह मौक़ा मिलता है। क़ानून (अहम है) क़ानून बनाने की अहमियत यह है। जी हां, अगर क़ानून न हो तो ज़ाहिर है कि अराजकता होगी। मशहूर है कि क़ानून बनाना, हक़ीक़त में पटरी बिछाने की तरह है, हमने भी बार बार कहा है, अभी जनाब क़ालीबाफ़ ने जो स्पीच दी, उसमें भी यह बात थी, सही बात है। पटरी बिछाना यानी मुल्क की कार्यपालिका के लिए रास्ता तैयार करना है कि वो उस रास्ते पर आगे बढ़े। लेकिन पटरी बिछाने की एक ख़ूबी है और वह यह है कि उस पर चलने वाले के लिए दाएं और बाएं भटक जाने की संभावना नहीं होती। रेलगाड़ी, पटरी पर ही चलती है। जबकि तारीख़ में कार्यपालिका और सरकार के कुछ अधिकारी कभी कभी क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते भी नज़र आते हैं। इसलिए बेहतर है कि हम क़ानून साज़ी की मिसाल रास्ते और सड़क के निर्माण से दें। लेकिन बहरहाल क़ानून बनाना, रास्ता निर्धारित करना है।

क़ानून बनाने का मूल नीतियों से संबंध होता है, क्योंकि संविधान में मूल नीतियां बयान की गयी हैं। कभी कभी यह सवाल किया जाता है कि मूल नीतियां क्या हैं और फिर क़ानून साज़ी क्या है? इसके जवाब में अर्ज़ करता हूं: मूल नीतियां दिशा तय करती हैं और क़ानून वह रास्ता तैयार करता है जो उस दिशा में जाता है, फ़र्क़ यह है। मिसाल के तौर पर मूल नीति में कहा जाता है कि उत्तर की ओर जाएं, लेकिन उत्तर की ओर जाने के कई रास्ते हैं, एक हुकूमत कहती है कि हम फ़ुलां रास्ते को चुनेंगे और दूसरी हुकूमत कहती है कि हम फ़ुलां रास्ते को चुनेंगे, कोई हरज नहीं है। यह संसद कहती है कि हम इस सिलसिले में इस क़ानून का चयन करते हैं, दूसरी संसद एक दूसरे क़ानून का चयन करती है, फ़र्क़ यह है। लेकिन यह बहुत अहम है कि दिशा भूलने न पाएं। कानून को दिशा को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए, नीति बनाने और क़ानून बनाने में यह संबंध पाया जाता है।

ख़ुद क़ानून लिखने और क़ानून बनाने का भी एक उसूल है, यह उसूल क़ानून बनाने की नीतियों में बयान किया गया है, उन नीतियों को भी क़ानून में तब्दील होना चाहिए था लेकिन अफ़सोस कि नहीं हुआ और कई साल से ऐसे ही बाक़ी है। एक काम जिसका अंजाम पाना ज़रूरी है, वह क़ानून बनाने के नियम का निर्धारण है- क़ानून बनाने के तरीक़े का क़ानून बनाना- ताकि स्पष्ट हो कि क़ानून किस तरह से बनाया जाए।

हमने मूल नीतियों (4) को जो हित संरक्षक काउंसिल और अनेक माहिरों के सुझाव पर तैयार की गयी है, क़ानून की ख़ुसूसियतों के बारे में कुछ बिन्दुओ का ज़िक्र किया जिनमें से तीन चार बातें यहाँ अर्ज़ करुंगा।

एक बात क़ानून का साफ़ व स्पष्ट होना है, ऐसा नहीं होना चाहिए कि इसके लिए संसद की ओर से नए सिरे से व्याख्या की ज़रूरत हो और एक बार फिर उस पर बहस की ज़रूरत पड़े, महारत पर निर्भर होना चाहिए, ठोस होना चाहिए, इसमें महारत से काम लिया गया हो और अमल करने के क़ाबिल हो। अच्छे क़ानून की एक ख़ुसूसियत उसका लागू होने के योग्य होना है, अगर कोई क़ानून, मुल्क के वित्तीय संसाधनों और मुल्क की गुंजाइशों के लेहाज़ से लागू होने के क़ाबिल नहीं है तो वह क़ानून, अच्छा क़ानून नहीं है। इंसान की बहुत सी आरज़ूएं होती हैं, लेकिन देखना यह है कि हम उस आरज़ू को कैसे व्यवहारिक शक्ल दें, यानी अगर मिसाल के तौर पर आप सांसद होने के बजाए, सरकार के क़ानून मंत्री होते, किसी सरकार के ज़िम्मेदार होते, तो उसको लागू कर सकते थे? यह देखना अहम है। इसको नज़र में रखने की ज़रूरत है। जब हम क़ानून बनाएं तो हमें यह मालूम होना चाहिए कि वह लागू होने के क़ाबिल है। स्थिरता भी क़ानून की एक ख़ुसूसियत है, इसमें कोई शक नहीं है लेकिन क़ानून का अपडेट होना एक बात है और उसमें बार बार बदलाव और अनुच्छेदों का इज़ाफ़ा दूसरी बात है, इससे उसकी क़ानूनी हैसियत गिर जाती है।

क़ानून का पाक व साफ़ (5) होना चाहिए, किसी विरोधाभास और टकराव के बिना होना चाहिए। ये वो बातें हैं जिन्हें होना चाहिए, इन्हीं से यह भी समझा जा सकता है कि क्या नहीं होना चाहिए।

एक बात जो नहीं होनी चाहिए, वह क़ानून का ढेर लगना है, जो रिपोर्ट मुझे पेश की गयी है, उसमें कहा गया है कि क़ानून को आर्टिफ़िशल इंटेलिजेंस के ज़रिए विरोधाभासों को दूर करने के लिए पाक किया जा रहा है। क़ानून में विरोधाभास उसके ढेर लगने से होता है। मिसाल के तौर पर साल के बजट क़ानून में पर्यावरण से संबंधित क़ानून के अनुच्छेद बयान किए जाते हैं और कुछ दूसरे क़ानूनों में भी (इस सिलसिले में अनुच्छेद मौजूद होते हैं) ये क़ानून मुमिकन है कि एक दूसरे से समन्वित न हों, जब मुख़्तलिफ़ क़ानूनों के बीच फ़रीज़ा अधर में लटक जाए, तो जो उससे ग़लत फ़ायदा उठाना चाहता है, ग़लत फ़ायदा उठा लेता है। ये क़ानून के माहिर क़ानून तोड़ने वाले, मैंने बार बार इस बात को कहा है(6) इन्हीं जगहों पर ग़लत फ़ायदा उठाते हैं।

लोगों के हित में क़ानून बनाना। क़ानून साज़ी की मुश्किलों में से एक यह है कि टारगेट यह हो कि फ़ुलां क़ानून से फ़ुलां तबक़े, या फ़ुलां शख़्स या फ़ुलां ग्रुप को फ़ायदा पहुंचे, ये क़ानून की राह में मुश्किलें हैं जिन पर नज़र रखने की ज़रूरत है।

मैंने इससे पहले -अब मुझे याद नहीं है कि पिछले साल या और पहले- प्राइवेट मेम्बरों के प्रपोज़लों में इज़ाफ़े के संबंध में एक नसीहत की थी और दोस्तों से कहा था कि (7) प्रपोज़लों को गवर्नमेंट बिल पर हावी न होने दें। जब गवर्नमेंट बिल आता है तो हक़ीक़त में हुकूमत ख़ुद कह रही होती है कि हम यह काम कर सकते हैं लेकिन प्रोपोज़ल में यह बात नहीं है। मुमकिन है आप बहुत मेहनत से कोई प्रपोज़ल और प्लानिंग तैयार करें, फिर बहुत मेहनत और कोशिशों के बाद उसको संसद से पास करवाएं, लेकिन जब वह सुझाव और प्लान सरकार के पास पहुंचे तो वह कहे कि हमारे लिए यह मुमकिन नहीं है, इस पर अमल नहीं हो सकता, तो यह सारी मेहनत ख़ाक में मिल जाएगी। यह जो हमने कहा कि क़ानून को लागू होने के लायक़ होना चाहिए, इसका एक हिस्सा प्रपोज़लों में कमी से संबंधित है। अलबत्ता कुछ मामलों में प्रपोज़ल और प्लानिंग होनी चाहिए जिसकी ओर हम बाद में इशारा करेंगे, इसका एक मौक़ा यह है कि अगर संसद ख़ुद कोई काम न करे और प्रपोज़ल पेश न करे (8) तो मुल्क गतिरोध का शिकार हो जाएगा, लेकिन मूल नीति यह होनी चाहिए कि संसद का काम प्रपोज़लों से ज़्यादा गवर्नमेंट बिलों पर ज़्यादा ध्यान देना हो।

क़ानून बनाने की राह में मौजूद मुश्किलों में से एक मुश्किल जिससे हमारे दोस्त वाक़िफ़ भी हैं, क़ानून साज़ी में सांसदों का माहौल से प्रभावित हो जाना है, माहौल के असर में आ जाना है। कभी कभी प्रचार के माहिरों का प्रोपैगंडा, चाहे वे दुश्मन हों या दुश्मन न हों, लेकिन बहरहाल प्रोपैगंडा अभियान के माहिर हैं, वे एक तरह की हवा बनाते और माहौल तैयार करते हैं, इसका क़ानून साज़ी और उसकी सोच पर कोई असर नहीं होना चाहिए, मेरा कहना यह है। अब यह बात कि “उन्हें बुरा लगेगा” “लोगों के बीच यह हो जाएगा” “वे लोग एतेराज़ करेंगे” इन बातों का क़ानून साज़ी पर कोई असर नहीं होना चाहिए। इस प्रक्रिया को माहौल, दलीय रुजहानों या मुख़्तलिफ़ क़िस्म की धड़ेबंदी के प्रभाव में नहीं आना चाहिए।

धड़ेबंदियां हैं, संसद के भीतर भी हैं, आपकी संसद में भी है, पहले वाली संसद में भी थीं। इसका कोई चारा भी नहीं हैं, सोचने का तरीक़ा अलग अलग होता है। एक समूह मसलों के बारे में एक तरह से सोचता है और दूसरा दूसरी तरह। यह धड़ेबंदी किसी हद तक अपरिहार्य है, लेकिन क़ानून बनाने पर इसका असर नहीं पड़ना चाहिए। यह जो दो धड़ेबंदी की बात की जाती है, दो धड़े इसी मानी में हैं। दो धड़े का मतलब पसंद में मतभेद नहीं है। पसंद और सोच में अंतर तो हमेशा रहता है, हमेशा रहा है। दो धड़े का मतलब यह है कि सोच का फ़र्क़ इस हद तक पहुंच जाए कि हर फ़ैसले में बजाए इसके कि हक़ और इंसाफ़ के बारे में सोचें, अपने धड़े की पोज़ीशन के बारे में सोचना शुरू कर दें कि हमारा धड़ा इस तरह चाहता है इसलिए यह होना चाहिए, अब यह हक़ हो न हो, मसलेहत हो न हो, (इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता) ये क़ानून बनाने की राह की मुश्किलें हैं। क़ानून साफ़ सुथरा, सही, अल्लाह के नाम पर, अल्लाह के लिए इस तरह लिखना चाहिए। अगर इस तरह हुआ तो बरकत आएगी। क़ानून अगर इन बातों को मद्देनज़र रख कर, अच्छी नीयत से लिखा जाए और मंज़ूर हो ते वाक़ई बरकत आती है। फिर हुकूमतें भी इस पर अमल करने पर मजबूर होती हैं। यह एक बात।

दूसरी बात, मौजूदा संसद के बारे में है। मैंने इस संसद के गठन के आग़ाज़ में ही, इस पर अपने यक़ीन और अपने लगाव का इज़हार किया था जो सही सूचनाओं पर आधारित था। मैंने कहा कि यह इंक़ेलाबी संसद है। (9) आज भी तीन साल गुज़रने के बाद, इस बात को दोहराता हूं। यह संसद अलहम्दो लिल्लाह, इंक़ेलाबी, शिक्षित, नौजवान, पुरजोश और मेहनती है। अलबत्ता किसी समूह के बारे में इंसान जो फ़ैसला करता है, वह पूरे समूह को देखते हुए होता है, अब कुछ अपवाद भी हो सकते हैं, इन अपवादों से मुझे कोई लेना देना नहीं है। पूरे समूह को जब मैं देखता हूं, तो कुल मिलाकर वाक़ई यह संसद इंक़ेलाबी है। अब कहीं किसी गोशे में, दाएं बाएं, कुछ तन्ज़, कुछ हाशिए की बातें, कोई चीज़ संसद के बारे में कही जाती है तो कहें। यह तो अपेक्षा नहीं रखी जा सकती कि सभी तारीफ़ करें, नहीं! कुछ मुख़ालेफ़तें भी होती हैं, लेकिन हक़ीक़त वही है जो मैंने अर्ज़ की, यानी मुझे जो जानकारी है, (उसके मुताबिक़) मौजूदा संसद में ये ख़ुसूसियतें हैं।

ग्यारहवीं संसद ने मुल्क के मुद्दों को पहचाना है, यह अहम बात है। मुल्क की मुश्किलों को समझा गया और मुश्किलों की पहचान की बुनियाद पर क़ानून बनाया गया। यह डिटेल जो जनाब क़ालीबाफ़ ने बयान की है -इससे पहले एक डिटेल रिपोर्ट उन्होंने मेरे लिए भेजी थी, अलबत्ता मुझे दूसरी जगहों से भी रिपोर्ट मिली है, यानी सिर्फ़ संसद की रिपोर्ट नहीं है- जो काम अंजाम पाए हैं, जो क़ानून पास हुए हैं या मंज़ूरी के चरण में हैं, ये सब मुश्किलों की बख़ूबी जानकारी को बयान करते हैं। जब इंसान मुद्दो को जान लेता है तो उसके मुताबिक़ क़ानून बनाता है। उन क़ानूनों का मक़सद भ्रष्टाचार से निपटना था, पक्षपात को ख़त्म करना था, एकाधिकार को ख़त्म करना था, कारोबार के माहौल को बेहतर बनाना था और इसी तरह दूसरे आर्थिक मुद्दों थे। ये क़ानून पारदर्शिता और मज़बूती के साथ बनाए और मंज़ूर किए गए। यह अहम है, यानी इन क़ानूनों में (ग़लत) और कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की गयी है बल्कि साफ़ और दो टूक हैं।

जो क़ानून आपने पास किए हैं उनमें से कुछ स्ट्रैटेजिक अहमियत रखते हैं, यानी ये क़ानून सामयिक नहीं हैं, मुल्क के लिए स्ट्रैटेजिक क़ानून हैं जो सम्मान व क़द्रदानी के लायक़ हैं, चाहे वे आर्थिक क्षेत्र से संबंधित हों या ग़ैर आर्थिक क्षेत्र से, ये सभी। “स्ट्रैटेजिक एक्शन” नाम का क़ानून (10) तो आपने शुरू में ही पास कर दिया, यह एक बुनियादी क़ानून है, बहुत अहम क़ानून है। इस क़ानून ने परमाणु मामले में मुल्क को परेशानी से मुक्ति दिलाई यानी वह अनिश्चय और असमंजस की हालत (ख़त्म की)। जब हैरानी व असमंजस की हालत हो तो इंसान हर क़दम पर एक फ़ैसला करता है और कुछ मौक़ों पर यह फ़ैसले विरोधाभासी होते हैं! इस क़ानून ने पूरी तरह साफ़ कर दिया कि हमें क्या करना चाहिए, इस वक़्त इसके चिन्ह हम दुनिया में देख रहे हैं। इस तरह “परिवार को सपोर्ट और नौजवान आबादी” का क़ानून (11) है जो वाक़ई बहुत अहम क़ानून है। मैं बरसों से -यानी कुछ बरस से- यह कह रहा हूं, लेकिन आपका क़ानून बात कहने से अलग चीज़ है, हमारा कहना कभी कभी नसीहत समझा जाता है, (लेकिन) आपके क़ानून का लागू होना अनिवार्य होता है, इस पर अमल होना चाहिए। यह क़ानून बहुत अहम है। या “नॉलेज बेस्ड प्रोडक्शन” (12) का क़ानून है, ये क़ानून रणनैतिक अहमियत रखते हैं। इस तरह के दूसरे क़ानून भी हैं जो स्ट्रैटेजिक अहमियत रखते हैं।

ग्यारहवीं संसद की एक ख़ुसूसियत जो मैं ज़रूर ज़िक्र करना और बयान करना चाहता हूं, सादगी है। यानी जहाँ तक मुझे रिपोर्ट मिली है, इस संसद के बहुत से सदस्यों में, रईसाना ज़िंदगी, ख़ुद को श्रेष्ठ समझना, अवाम की ओर से लापरवाही, या नहीं है या बहुत कम है। मैंने अर्ज़ किया कि अपवाद भी हैं, यानी अपवाद इस वक़्त भी मेरी नज़रों के सामने हैं, लेकिन कुल मिलाकर शैली यह है, यह सामूहिक शैली बहुत अच्छी बात है। इसको भी हाथ से न जाने दें। अलबत्ता लोगों की बात सुनना उनसे वादा करना नहीं है, यानी ऐसा न हो कि जब आप अपने शहर और अपने चुनावी हल्क़े में गए और लोगों ने आकर शिकायत की तो आप यूंही उनसे वादे करते जाएं, नहीं! उन वादों पर आप भी अमल नहीं कर सकते और कुछ मामलों में तो संसद भी अमल नहीं कर सकती और कुछ मामलों में पूरा सिस्टम उस पर अमल नहीं कर सकता। वादा न करें, सुनें, कहें कि कोशिश करेंगे, काम करेंगे, शायद हल हो जाए, यानी लोगों की बातों को खुल कर, अच्छे स्वाभाव के साथ, माथे पर शिकन के बिना और त्योरियां चढ़ाए बग़ैर, सुनें। कुछ लोग, माथे पर बल और त्योरियां चढ़ाकर सुनते थे! शायर कहता हैः  अगर गिरह खोल नहीं रहे हो तो ख़ुद गिरह न बनो, अगर हाथ खुला नहीं है तो भवों को कुशादा रखो, यानी हंसकर पेश आओ। (13)

यानी बिना त्योरियां चढ़ाए, अच्छे स्वभाव के साथ लोगों से मिलना, यह बहुत अहम है। ये बातें अहमियत रखती हैं, ये शैली रखें। ये अच्छी बातें जो मैंने अर्ज़ कीं और ख़ुद आप भी मुझसे बेहतर जानते हैं, इसलिए कही हैं कि इस आख़िरी साल में इन बातों को जारी रखें।

आख़िरी साल बहुत अहम साल है। मुमकिन है कि बाद में, इस आख़िरी साल के बारे में कुछ अर्ज़ करूं।

एक मुल्क कि मुश्किलें हैं, संसद का आख़िरी साल है, चुनाव नज़दीक है और निगाहें अवाम पर हैं। इस आख़िरी साल में अपनी ये अच्छी बातें जारी रखें, साफ़ सुथरी छवी के साथ (संसद में) दाख़िल हुए, साफ़ सुथरी छवि के साथ निकलें। “पालने वाले मुझे (हर काम में) सदाक़त के साथ वारिद और ख़ारिज फ़रमा” (14) इस तरह हो इंशाअल्लाह, अमल में इंसान के लिए जो चीज़ रह जाती है, वह यही है। अब यह कि बाद के दौर में हम चुने जाएंगे या नहीं, ये सांसारिक बातें हैं, कई दर्जे नीचे की बातें हैं। अस्ल बात यह है कि हम चाहे बाद की संसद में आएं या न आएं, जो काम हमने अब तक किए हैं उन्हें अल्लाह क़ुबूल करे, अस्ली बात यह है। यह दूसरा प्वाइंट था।

तीसरी बात कुछ अनुशंसाएं हैं, कुछ अनुशंसाएं अर्ज़ करता हूं। अलबत्ता मैंने अर्ज़ किया कि पहले भी ये अनुशंसाएं आपसे कर चुका हूं।

पहली अनुशंसा दूसरे विभागों ख़ास तौर पर कार्यपालिका के साथ संसद के रिश्तों के बारे में है, यह बुनियादी बात है। रिश्तों का अंदाज़ तय होना चाहिए। दो तरह के नज़रिए पाए जाते हैं: विध्वंसक और निकटता पैदा करने वाला। एक नज़रिया निकटता पैदा करने वाला है और एक विध्वंसक है।

विध्वंसक रुख़ में दूसरे विभागों को प्रतिद्वंदवी समझा जाता है, न्यायपालिका के संबंध में यह बात बहुत कम है, ज़्यादातर यह बात कार्यपालिका और विधिपालिका में पायी जाती है कि ये दोनों एक दूसरे को अपना प्रतिद्वंद्वी समझने लगते हैं, ऐसा प्रतिद्वंदवी जो अपने प्रतिस्पर्धी को गिरा देना चाहता है, यह ख़तरनाक रुख़ है। यह मुमकिन है कि सरकार की ओर से हो और यह भी मुमकिन है कि संसद की ओर से, यानी मुमकिन है दोनों की तरफ़ से यह ग़लत रुख़ अपनाया जाए। सरकारें, कभी कभी संसद को फ़ुज़ूल समझने लगती हैं, अपनी राह में रुकावट समझती हैं और बहस व हठधर्मी करती हैं। बरसों पहले एक स्पीकर साहब मेरे पास आए और सरकार की शिकायत करने लगे कि सरकार हमारे सामने बिल ही पेश नहीं करती! हम बेकार बैठे हैं। यह हक़ीक़त है! वह सरकार सहयोग नहीं कर रही थी। कोई बिल संसद में पेश नहीं कर रही थी। यह जो मैंने कहा कि कुछ वक़्त योजना बनाना ज़रूरी हो जाता है, यही मौक़ा है। जब सरकार बिल पेश न करे तो इसका इलाज यह है कि आप लगातार एक के बाद एक प्रपोज़ल तैयार करें, पास करें, पेश करें और सरकार को भेजें। यानी जब कोई सरकार संसद को परेशान करना चाहे (कोई बिल पेश न करे) तो रास्ता यही है। स्वाभाविक तौर पर कोई बिल न आए तो मुल्क गतिरोध का शिकार हो जाता है। यह वास्तविक नमूना है, यह हक़ीक़त में घटी घटना की मिसाल है। या क़ानून बने, उसका एलान हो (बाद में) ड्रावर के भीतर रख दें और ताला लगा दें! उसको लागू न करें। (या) कोई क़ानून है जिसका एलान किया गया लेकिन प्रशासनिक संस्थान के सुझाव लंबे समय से तैयार नहीं किए गए। क़ानून बिना प्रशासनिक संस्थान के सुझाव के लागू नहीं होता, प्रशासनिक संस्थान के सुझाव ज़रूरी हैं उसे, (लागू करने के लिए सुझाव) दिया जाए, यह काम नहीं होता। ये सरकारों की ओर से है।

संसद की ओर से, निगरानी में अति से काम लिया जाना। जी आपके पास निगरानी के हथकंडे हैं, सवाल करना, याददेहानी कराना, अभियोग चलाना। इनसे अपनी जगह पर काम लिया जाता है, यह संसद के हथकंडे हैं। संसद के पास कोई चारा नहीं है, मुल्क को चलाने के लिए उसको उनकी ज़रूरत है, लेकिन इनसे काम लेने में अति का सहारा नहीं लेना चाहिए। मुख़्तलिफ़ सरकारों में मंत्री बार बार मेरे पास आए हैं और उन सवालों की तादाद की शिकायत की है जो उनसे किए जाते थे। कहते थे कि उनका ज़्यादा वक़्त तो इन सवालों के जवाब देने में ही निकल जाता है कि हम कमीशन में जाएं, संसद के सदन में जाएं और सवाल का जवाब दें। या फ़र्ज करें किसी मंत्री ने संसद से विश्वास मत लिया, कुछ महीने बाद, तीन महीने के बाद या चार महीने के बाद उसी मंत्री का इम्पीचमंट होता है! यह इम्पीचमंट किस लिए! किसी मंत्रालय में तीन महीने में क्या काम हो सकता है कि अगर नहीं किया तो उसके ख़िलाफ़ अभियोग चलाया जाए! यह निगरानी के हथकंडों के इस्तेमाल में अति से काम लेना है। इसी तरह की दूसरी बातें, जिन्हें न दोहराना बेहतर है। तो एक रुख़ विध्वंसक है, सामने वाले पक्ष को अपना प्रतिस्पर्धी समझना है।

जब जिस्म के किसी अंग में दर्द हो तो दूसरे अंगों को भी क़रार नहीं रहता। (15)

सिस्टम एक जिस्म की तरह है। एक दिल है, एक दिमाग़ है, ये नर्वस सिस्टम है, इन सबको मिलकर काम करना चाहिए। अगर एक दूसरे का सपोर्ट करने वाले न हो। दिमाग़ दिल की मदद न करे, दिल दिमाग़ की मदद न करे, नर्वस सिस्टम दिमाग़ की मदद न करे तो काम नहीं होगा। सब को मिल कर एक दूसरे का सपोर्ट करना चाहिए, ये सब एक दूसरे के लिए पूरक की हैसियत रखते हैं। यह एक रुख़ है, यह सही रुख़ है, यह वास्तविक रुख़ है। इसलिए मेरी पहली व अहम अनुशंसा यह है कि संसद इस आख़िरी साल में -आप चौथे और संसद के आख़िरी साल में हैं, संसद का रुख़ पूरी तरह चाहे आप हों या दूसरे हों, सहयोग बढ़ाने का होना चाहिए। अलबत्ता हम सरकार और न्यायपालिका को भी मौक़े मौक़े से इस बात की याददेहानी कराते हैं, इस वक़्त आप से कह रहे हैं। एक्ज़ेक्टिव मामले सरकार के कंधों पर हैं, इस पर ध्यान दें! आप में से कुछ लोग ख़ुद कार्यपालिका का हिस्सा रह चुके हैं, चाहे मंत्री की सतह पर या किसी विभाग के अध्यक्ष की सतह पर, कार्यपालिका में रह चुके हैं और जानते हैं कि कार्यपालिका और विधिपालिका में अंतर होता है, वहाँ काम है, कोशिश है, काम का दबाव है, अपेक्षाएं हैं, मांगें हैं, कार्यपालिका का ख़याल रखने की ज़रूरत है। अतार्किक विवादों को हवा नहीं देना चाहिए। कभी ऐसा होता है कि जब संसद सरकार के साथ सहयोग करती है तो कुछ बदअख़लाक़ लोग जो इधर उधर कोने में बैठे होते हैं, फ़ौरन अख़बारों में और सोशल मीडिया पर कहने लगते हैं कि “संसद की स्वाधीनता ख़त्म हो गयी है, संसद भी सरकार की हो गयी है” इन पर कोई ध्यान न दें। या वह किसी ख़ुदग़र्ज़ी से यह बात करते हैं या हित संरक्षक परिषद के काम की ओर से बेख़बर होने की वजह से यह बातें करते हैं।

एक बात जिसके बारे में, मैं बार बार ताकीद करता हूं, यही मसला है कि कुछ मंत्रियों के संबंध में संसद में सख़्त रवैये से काम लिया जाता है। कभी कभी सरकार की ओर से नामज़द मंत्री के बारे में ग़ैर ज़रूरी सख़्ती से काम लिया जाता है। इसकी वजह से मंत्रालय एक मुद्दत तक बिना वज़ीर के रहता है और प्रभारी उसको चलाता है, इससे मुल्क को नुक़सान पहुंचता है। सावधानी बरतनी चाहिए, बेशक सलाहियतों का मूल्यांकन होना चाहिए, लेकिन तार्किक हद में रहते हुए सख़्ती हो, तार्किक हद तक होनी चाहिए, इस वक़्त कुछ मंत्रालय बिना मंत्री के हैं, ये सब संसद में आएंगे।

एक और अनुशंसा जो करना चाहता हूं, (यह है कि) स्वाधीनता और दो टूक अंदाज़ में अपनी बात कहने की ख़ासियत जो आपके अंदर है, बहुत अच्छी है। इस संसद की स्वाधीनता और दो टूक रवैया अच्छी बात है। इस स्वाधीनता और दो टूक रवैये में तक़वे और सच्चाई को मिलाएं, यानी अगर कुछ कहना है, कोई बात कहनी है तो दो टूक अंदाज़ में कही जाए, अच्छी बात है लेकिन सच्चाई का भी ख़याल रखना चाहिए, तक़वे को भी मद्देनज़र रखना चाहिए। क़ुरआन मजीद फ़रमाता हैः “जो लोग चाहते हैं कि जो लोग ईमान लाए हैं उनके दरमियान बुराई फैले” (16) अगर कोई बात है जो ज़िम्मेदारों से, इंटेलिजेन्स विभाग से, सरकारी विभागों से कही जा सकती है, उसको बताकर रोकथाम की जा सकती है, तो उसको ज़ाहिर करने की ज़रूरत नहीं है। अलबत्ता कुछ मामलों में, क्यों नहीं! ज़रूरी होता है लेकिन इसमें तक़वा और सच्चाई की पाबंदी ज़रूरी है। कभी हम किसी अधिकारी को फ़र्ज़ करें तमांचा मारना चाहते हैं, संसद को तमांचा मारना चाहते हैं, यह होता है। यानी कभी किसी शख़्स पर वार होता है तो संसद पर वार होता है। यह ग़लत नहीं है? अफ़सोस की बात नहीं है कि इतनी कोशिशों और ज़हमतों के बावजूद, संसद की छवि ख़राब की जाए! मक़सद यह है कि लोगों की इज़्ज़त व मर्यादा पर हमला जायज़ नहीं है। लोगों की इज़्ज़त आबरू पर हमला, उनकी धार्मिक व इंक़ेलाबी पहचान पर हमला है। अलबत्ता यह बातें आप से मख़सूस नहीं हैं। यह पूरे मुल्क के लिए हैं, ऊपर से नीचे तक सभी लोगों के लिए हैं। लेकिन हम और आप जैसे लोग ट्रिब्यून पर सबसे ऊपर हैं, हमारी आवाज़ सभी सुन रहे होते हैं, हमें इन बातों का ज़्यादा ख़याल रखना चाहिए।

एक और अनुशंसा यही आख़िरी साल की बात है जिसकी ओर पहले इशारा किया। अपनी बातों और नारों में लोकलुभावन कोशिशों का असर न आने दें, यानी यह कि अगर हम ये बातें करें और ये नारे दें तो लोगों में हमसे लगाव पैदा होगा और मुमकिन है कि हमारी इज़्ज़त में इज़ाफ़ा हो, इसको अपने मन से निकाल दीजिए, यह भी उस ज़रूरी जद्दोजेहद का हिस्सा है। यह भी एक अनुशंसा है।

आख़िरी सिफ़ारिश यह है कि आप इस साल यानी अगले साल तक -चुनाव साल के अंत में हैं लेकिन यही महीने जो आपके सामने हैं, अहम हैं- कई अज़ीम काम हैं। एक सातवीं विकास योजना है, एक यही साल का नारा है, इन्फ़लेशन को कंट्रोल करने का मुद्दा है, पैदावार बढ़ाने का मुद्दा है, ये अहम काम हैं। एक उन बिलों का मसला है जो अधूरे रह गए हैं जिनकी ओर इशारा किया गया कि कुछ बिल या योजनाओं को पास होना है और अभी तक पास नहीं हो सकी हैं। उन्हें एक जगह और एक मंज़िल तक पहुंचाने की ज़रूरत है।

यह आख़िरी साल इस बात का मौक़ा है कि अपने पीछे (पिछले बरसों पर) एक निगाह डाली जाए, अगर इन दो तीन बरसों में कोई शून्य रह गया है, कोई कमी रह गयी है तो उसको पूरा करें और (जिस तरह) कामयाबी के साथ संसद में दाख़िल हुए, इंशाअल्लाह कामयाबी के साथ संसद से बाहर निकलें।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।

1- इस मुलाक़ात के शुरू में (संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के स्पीकर) जनाब मोहम्मद बाक़िर क़ालीबाफ़ ने संसद की पर्फ़ार्मेन्स की रिपोर्ट पेश की।

2- गिनी के राष्ट्रपति अहमद सीको तोरे

3-   25 मई 2022 को ईरानी संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के सदस्यों के बीच स्पीच

4- क़ानून बनाने के सिस्टम की मूल नीतियों का एलान 28 नवम्बर 2019

5- संशोधित

6- 27/5/2021 को ईरानी संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के सदस्यों के बीच वीडियो लिंक के ज़रिए स्पीच

7- 27/5/2022 को ईरानी संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के सदस्यों के बीच स्पीच

8- फ़र्ज़ का निर्धारण करना

9- 27/5/2021 को ईरानी संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के सदस्यों के बीच वीडियो लिंक से स्पीच

10- पाबंदियों के अंत और ईरानी अवाम के हितों की रक्षा के लिए संसद के “स्ट्रैटिजिक ऐक्शन” का क़ानून, बुधवार 3/12/2021 को संसद के खुले सत्र में पास हुआ और शूराए निगहबान काउंसिल से मंज़ूरी के बाद, सरकार के पास भेजा गया।

11- “ख़ानदान और नौजवान आबादी की मदद” का क़ानून, 14/10/2021 को ईरानी संसद मजलिसे शूराए इस्लामी में पास हुआ और शूराए निगहबान काउंसिल से मंज़ूरी के बाद, सरकार को भेजा गया।

12  “नॉलेज बेस्ड कंपनी में उछाल” का क़ानून 1/5/2023 को ईरानी संसद में मजलिसे शूराए इस्लामी में पास हुआ और शूराए निगहबान काउंसिल की मंज़ूरी के बाद, सरकार को भेजा गया।

13 साएब तबरीज़ी के दीवान में ग़ज़ल का एक शेर

14 सूरए इसरा की आयत नंबर-80 का एक हिस्सा, “पालने वाले मुझे हर काम में सच्चाई के साथ वारिद और ख़ारिज फ़रमा”

15 सादी, गुलिस्तान, पहला बाब

16 सूरए नूर, आयत-19 का एक हिस्सा, “जो लोग चाहते हैं कि जो लोग ईमान लाए हैं उनके दरमियान बुराई फैले।”