इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनेई ने 4 नवम्बर के यादगार दिन की मुनासेबत से बुधवार 2 नवम्बर 2022 को स्टुडेंट्स के बीच अपनी तक़रीर में 4 नवम्बर की तारीख़ की अहमियत को बयान किया।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने मौजूदा हालात, साम्राज्यवादी ताक़तों की साज़िशों और शैलियों और न्यू वर्ल्ड आर्डर के बारे में बड़े अहम प्वाइंट ब्यान किए। 4 नवम्बर बराबर 13 आबान को ईरान में छात्र दिवस और विश्व साम्राज्यवाद से मुक़ाबले का दिन मनाया जाता है।
तक़रीर पेश हैः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का तरजुमाः सारी तारीफ़ें पूरी काएनात के परवरदिगार के लिए और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाकीज़ा नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर उसकी आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
मेरे प्यारो, मेरे जवानो, मेरे बच्चो! आपको ख़ुश आमदीद कहता हूं, आपने इमामबाड़े को रौनक़ बख़्शी। आपके पाकीज़ा दिल, जोश से भरा आपका मन, हर उस जगह और माहौल को जहाँ आप होते हैं, नूरानी और पाकीज़ा बना देता है। मैंने कुछ बातें जो एक दूसरे से जुड़ी हुयी हैं, जिनका आपस में एक दूसरे से रब्त है, तैयार की हैं कि आज आप प्यारे बच्चों की ख़िदमत में पेश करूं।
पहली बात 13 आबान के बारे में है। ख़ैर, आपने बहुत बार सुना है। 13 आबान एक तारीख़ी दिन भी है। तजुर्बा सिखाने वाला भी है। “तारीख़ी है” यानी इस दिन कुछ वाक़ए हुए जो तारीख़ में अमर रहेंगे। भुलाए जाने वाले नहीं हैं और भूलना भी नहीं चाहिए। “तजुर्बा सिखाने वाला है” यानी इनी वाक़यात की वजह से कुछ रिएक्शन्स आए जो हमारे लिए सबक़ हैं। मुल्क के भविष्य, अपनी आगे की ज़िन्दगी, अपनी क़ौम के भविष्य के लिए इन तजुर्बों से फ़ायदा उठाइये। भविष्य आप लोगों के हाथ में होगा।
ख़ैर, यह दिन हमारे लिए तो बहुत अहम है लेकिन अमरीकी इस दिन से बहुत चिढ़ते हैं। यह वह दिन है जिसको याद करके अमरीकी, ग़ुस्से से लाल पीले हो जाते हैं। इस वक़्त आपकी सभा को, जब कवरेज मिलेगी, अमरीकी रुझान रखने वाले और ख़ुद अमरीकी इस सभा से, इस क़ौमी तराने से, इस लगाव से ग़ुस्से में आ जाएंगे, ग़ुस्से से लाल पीले हो जाएंगे। क्यों? क्योंकि यह दिन, अमरीका की शैतानी फ़ितरत के अमली शक्ल में ज़ाहिर होने का भी दिन है, अमरीका के चोट खाने का भी और अमरीका की शिकस्त का इमकान ज़ाहिर होने का भी दिन है। यानी जो लोग यह ख़याल करते हैं कि अमरीका ऐसी ताक़त है जिसे कोई हाथ नहीं लगा सकता, इस दिन के वाक़यात को देखते हैं तो पता चलता है कि नहीं, बिल्कुल उस पर वार किया जा सकता है। यह हमारे लिए एक तजुर्बा है।
ख़ैर, इस दिन तीन वाक़ए हुए, कुछ सीधे तौर पर अमरीकियों से जुड़े हैं, कुछ के इनडायरेक्ट तरीक़े से अमरीकियों से तार जुड़े हैं। एक वाक़या इमाम ख़ुमैनी की जिलावतनी का है जो 13 आबान सन 1343 हिजरी शमसी (4 नवंबर 1964) को हुआ। इमाम को क्यों जिलावतन किया गया? क्योंकि शाह के हुक्म से एक क़ानून (कपिचुलेशन) -मोहम्मद रज़ा के हुक्म से- संसद में पास हुआ, जिसके मुताबिक अमरीकी, जुर्म करने की सूरत में न्याय के कटहरे में खड़े नहीं होंगे। उस वक़्त ईरान में क़रीब चालीस-पचास हज़ार अमरीकी मौजूद थे फ़ौजी सिस्टम, सेक्युरिटी सिस्टम और इकनॉमिक सिस्टम में। ये ईरान में जो भी जुर्म करते, इस क़ानून के मुताबिक़ उनके ख़िलाफ़ यहाँ कोई कार्यवाही नहीं होती। यानी एक अमरीकी कार से जा रहा है, मिसाल के तौर पर किसी पर कार चढ़ा दे, या कोई जुर्म करे, तो मुल्क की अदालत को उसके ख़िलाफ़ कार्यवाही का कोई हक़ नहीं था! यह, अमरीकियों को क़ानूनी कार्यवाही से बचाने वाला क़ानून था। इमाम इस पर ख़ामोश नहीं बैठे। एक तफ़सीली तक़रीर की- उनकी आवाज़ और उसकी इबारत इस वक़्त मौजूद है। (1) इस तक़रीर की वजह से, उन्हें तेरह साल जिलावतनी में गुज़ारने पड़े! हम तेरह साल कहते हैं, चूंकि तेरह साल के अंत में यह इंक़ेलाब पेश आया। अगर इंक़ेलाब न होता, तो मुमकिन था कि यह जिलावतनी तीस साल तक खिंचती, अमरीका का सपोर्ट करने वाले क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की वजह से। एक यह वाक़या जिसका तार क़रीब सीधे तौर पर अमरीकियों से जुड़ा हुआ है।
दूसरा वाक़या, स्टूडेंट्स का क़त्ले आम है। आपकी उम्र के बच्चों का, इसी तेहरान यूनिवर्सिटी के सामने क़त्ले आम हुआ, मारे गए। इस वक़्त सही तादाद कोई नही बता सकता, क्योंकि उस ज़माने में इस तरह के आंकड़े मौजूद नहीं थे। लेकिन कई लोगों को –हालांकि एक अदद भी ज़्यादा है। एक अदद भी बहुत ज़्यादा है- हमारे प्यारे बच्चों को इसी तेहरान यूनिवर्सिटी के सामने शहीद किया। यह वाक़या भी 13 आबान को पेश आया, स्टूडेंट्स के ख़िलाफ़ यह वाक़या सन 1357 हिजरी शमसी (4 नवंबर 1978) को पेश आया।
तीसरा वाक़या जो इसके एक साल बाद पेश आया -इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद- अमरीकी एम्बेसी पर स्टूडेंट्स का हम्ला है और वहाँ ऐसे दस्तावेज़ बरामद होना, जिससे ईरानी क़ौम के ख़िलाफ़ अमरीका की साज़िशों का पता चलता था, इनकी सत्तर से अस्सी जिल्द तैयार हो चुकी है। आप लोग इन किताबों को पढ़ने के लिए वक़्त नहीं निकालते, मैंने एक बार एजुकेशन विभाग से कहा था कि इन किताबों के कंटेंट को सिलेबस की किताबों में शामिल करें, अफ़सोस कि नहीं किया। ये दस्तावेज़ बताते हैं कि अमरीकियों ने उस मुद्दत के दौरान, जब वे ईरान में मौजूद थे -यानी क़रीब 1949 और 1950 से लेकर बाद तक- क्या क्या करतूतें की, कैसी कैसी साज़िशें और ग़द्दारियां की हैं।
ख़ैर, यहाँ पर एक अहम बात हैः इस वाक़ए और अमरीकी एम्बेसी पर हमले को जिसे “जासूसी का अड्डा”कहा गया और वाक़ई ऐसा ही था। जासूसी का अड्डा ही था, अमरीकी अपने बयानों, अपने प्रौपैगंडों, अपने इंटरव्यू, उस इंटरव्यू में जो मुझसे लिया जब मैं सद्र की हैसियत से न्यूयॉर्क गया था, ईरानी क़ौम और अमरीका के बीच कशमकश शुरू होने का आग़ाज़ बताते हैं। कहते हैं कि ईरानी क़ौम के ख़िलाफ़ अमरीकियों की दुश्मनी की वजह, वह काम था जो आपने एम्बेसी में अंजाम दिया। यानी हमारी एम्बेसी पर आप लोगों ने हमला किया और हमारे आपके बीच एख़तेलाफ़ पैदा हुआ, झगड़ा हुआ, दुश्मनी हुयी। झूठ कहते हैं! अस्ल बात यह नहीं है। ईरानी क़ौम और अमरीका के बीच कशमशक का आग़ाज़ 19 अगस्त है। 19 अगस्त 1953। 19 अगस्त को क़ौमी सरकार के हाथ में हुकूमत थी। मुसद्दिक़ की हुकूमत क़ौमी हुकूमत थी। उसकी मुश्किल पश्चिम के साथ सिर्फ़ तेल के मसले को लेकर थी। वह न तो धर्मगुरू थे, न ही इस्लामवादी थे। सिर्फ़ तेल का मामला था। तेल पर ब्रिटेन का कंट्रोल था, उन्होंने कहा था कि हमारे हाथ में रहे। उनका जुर्म सिर्फ़ इतना था। अमरीकियों ने फ़ौजी बग़ावत करवाई, बहुत ही अजीब तरह की फ़ौजी बग़ावत।
मेरे ज़ेहन में उस वाक़ए की धुंधली सी कुछ यादें है। मैं उस वक़्त चौदह साल का था, अभी ज़िक्र करुंगा कि हमारे दौर की चौदह पंद्रह साल की उम्र और आज के दौर की चौदह पंद्रह साल उम्र के लड़के के बीच ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। आप लोग आज मामलों को बारीकियों के साथ समझते और एनालिसिस करते हैं, लेकिन हम उस ज़माने में यह नहीं करते थे। अलबत्ता तारीख़ को हमने ग़ौर से पढ़ा है, उसकी तफ़सील पता है। अमरीकियों ने मुसद्दिक़ के ख़िलाफ़ साज़िश तैयार की, हालांकि मुसद्दिक़ अमरीकियों के बारे पाज़िटिव सोच रखते थे, उन पर भरोसा करते थे, लगाव रचते थे और सोचते थे कि अमरीकी सरकार ब्रिटेन के मुक़ाबले में उनका सपोर्ट करेगी। लेकिन इन्होंने पीठ में छुरा घोंपा। इन्होंने अपने आदमी को -जिसका नाम किम रूज़वेल्ट था- ईरान भेजा, ब्रिटेन के साथ कोआर्डिनेट किया, उसे डॉलर से भरे एक सूटकेस के साथ ईरान भेजा। वह ब्रितानी एम्बेसी गया -अमरीकी एम्बेसी भी नहीं गया- फ़ौज के कुछ ग़द्दार लोगों से साठगांठ की, ब्रिटेन के कुछ एजेंटों से भी साठगांठ की, ग़ुन्डों बदमाशों को इकट्ठा किया, फ़ौजियों को खींच लाए और 19 अगस्त को शर्मनाक फ़ौजी बग़ावत कराई, मुसद्दिक़ और उनके साथियों सभी को गिरफ़्तार किया। कुछ को मौत की सज़ा दी, कुछ को बरसों जेल में क़ैद रखा।
अमरीका के साथ ईरानी क़ौम का टकराव 19 अगस्त को शुरू हुआ। आपने क्यों फ़ौजी बग़ावत के ज़रिए अवाम की चुनी क़ौमी सरकार को गिराया? और तेल को जिसे अंग्रेज़ों के चंगुल से निकाला गया था, एक कन्सॉर्शियम के हवाले कर दिया (2) जिसमें ब्रिटेन था, अमरीका था, कुछ दूसरी सरकारें भी थीं। यानी गड्ढे से निकले, कुंए में गिरे। अमरीकियों के साथ हमारी लड़ाई की शुरूआत उसी दिन से है। तो अमरीका ने उस आदमी पर भी रहम न किया जो अमरीका के बारे में पाज़िटिव सोच रखता था और उनके जैसा रहन सहन रखता था -मुसद्दिक़ ब्रिटेन नवाज़ इंसान थे- सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए, उन दिनों यह फ़ायदा तेल का फ़ायदा था।
शुरुआत यहां से हुई। अब अमरीकी सियासतदान बड़ी बेशर्मी के साथ ढोंग करते हैं कि हम ईरानी क़ौम के साथ हैं! आप लोग तो ख़बरों, इंटरनेट और दूसरी जगहों पर इन लोगों की बातें सुनते ही हैं। कहते हैं हम ईरानी क़ौम के साथ हैं। तो यह दावा बहुत ही बेशर्मी भरा है। मैं अमरीकियों से पूछता हूँ कि आपने पिछली चार दहाइयों में जो इंक़ेलाब के गुज़रे हैं, कौन सा ऐसा काम है जो ईरानी क़ौम के ख़िलाफ़ कर सकते थे और नहीं किया? जो काम नहीं किया, वह दरअस्ल कर ही नहीं सकते थे, क्योंकि फ़ायदा नहीं था। अगर वह कर सकते होते, तो ज़रूर करते। अगर उन्हें फ़ायदा होता और वह ईरानी जवानों से न डरते, तो इराक़ की तरह सीधे जंग शुरू कर देते। लेकिन वे डर गए।
जो काम उनके बस में था उन्होंने कियाः इंक़ेलाब आने के बाद शुरू के दिनों में, उन्होंने अलाहदगी पसंद गुटों का सपोर्ट किया। हमेदान में शहीद नूजे छावनी (3) में बग़ावत का सपोर्ट किया। अमरीकियों ने एमकेओ की अंधी दहशतगर्दी का जिसमें उन्होंने मुल्क के गली कूचों में कई हज़ार लोगों को शहीद किया, सपोर्ट कया। वहशी सद्दाम की, आठ साल की जंग में हर तरह का सपोर्ट किया। ख़ुफ़िया इन्फ़ॉर्मेशन दीं, मदद की, अरब सरकारों को फंडिंग के लिए तैयार किया। ऐसी भी इन्फ़ॉर्मेशन है -मुझे बहुत ज़्यादा इस पर यक़ीन नहीं है, लेकिन ज़ाहरी तौर पर ठोस इन्फ़ॉर्मेशन लगती है- कि जंग का आग़ाज़ भी अमरीका के उकसाने से हुआ था और उन्होंने सद्दाम को आठ बरस तक चलने वाली जंग के लिए उकसाया। हमारे हवाई जहाज़ को फ़ार्स की खाड़ी के ऊपर मार गिराया जिसमें क़रीब 300 लोग थे, मारे गए, बाद में अफ़सोस के दो लफ़्ज़ भी मुंह से नहीं निकले (4)। उस मुजरिम जनरल को जिसने हवाई जहाज़ पर फ़ायर किया था, इनाम दिया, उसे मेडल दिया। आपने ईरानी राष्ट्र के ख़िलाफ़ ये काम किए हैं।
इंक़ेलाब आने के आग़ाज़ के दिनों में ईरानी क़ौम पर पाबंदी लगाई। हाल में और पिछले कुछ साल के दौरान सबसे सख़्त पाबंदियां कि जिनके बारे में ख़ुद उन्होंने कहा कि पूरी तारीख़ में कभी किसी मुल्क पर इस तरह की पाबंदी नहीं लगी, ईरान के ख़िलाफ़ लगायीं। 2009 में फ़ितना करने वालों का सपोर्ट किया। उससे पहले ओबामा ने (5) मुझे लिखा था कि आइये एक दूसरे से मिल कर काम करते हैं, हम आपके दोस्त हैं, हमारे लफ़्ज़ों में क़सम खाई और आयत का हवाला दिया कि हम आपकी शासन व्यवस्था गिराने का इरादा नहीं रखते, लेकिन 2009 का फ़ितना शुरू हुआ, तो सपोर्ट करना शुरू कर दिया इस उम्मीद पर कि शायद यह फ़ितना किसी नतीजे तक पहुंच जाए, ईरानी क़ौम को घुटने टेकने पर मजबूर कर दे, इस्लामी जुम्हूरिया की बिसात को उलट दे। आपने ईरानी क़ौम के साथ ऐसा रवैया अपनाया।
आप अमरीकियों ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि उन्होंने हमारे बहादुर जनरल शहीद सुलैमानी को क़त्ल किया। तुम लोगों ने क़त्ल किया और उस पर फ़ख़्र किया। ख़ुद ही तुम लोगों ने कहा कि हुक्म दिया था। शहीद सुलैमानी सिर्फ़ क़ौमी हीरो नहीं थे, इलाक़े के हीरो थे। इस वक़्त यह बताने का मौक़ा नहीं है कि मैं कहूं कि शहीद सुलैमानी का इलाक़े के कुछ मुल्कों की मुश्किलों को दूर करने में रोल, बहुत अज़ीम व बेनज़ीर था। आपने इस अज़ीम इंसान को उनके साथियों के साथ शहीद करवा दिया। शहीद अबू महदी अलमुहन्दिस और दूसरों को। आपने हमारे न्यूक्लियर साइंसदानों के क़ातिलों का सपोर्ट किया। ज़ायोनी एजेंटों ने हमारे साइंसदानों को एक एक करके शहीद कर दिया और आपने उनका सपोर्ट किया। मज़म्मत करना तो दूर, उनका सपोर्ट किया।
आपने इस क़ौम के अरबों डॉलर अलग अलग मुल्कों में सीज़ कर दिए कि अगर ये पैसे मौजूदा ख़िदमत गुज़ार सरकार को मिल जाते, तो बहुत से अच्छे काम उससे हो सकते थे। लेकिन इन्हें सीज़ कर दिया, रोक लिया, उस रक़म के अलावा जो इंक़ेलाब के आग़ाज़ में ख़ुद अमरीका में सीज़ कर दी गई। (6) ईरान के ख़िलाफ़ ज़्यादातर वाक़यात में अमरीका का हाथ देखा जा सकता है। इसके बावजूद ये लोग दावा करते हैं कि हम ईरानी क़ौम के हमदर्द हैं! कल फिर दोबारा यही कहा कि जी हम ईरानी क़ौम के हमदर्द हैं। सरासर झूठ कहते हैं बड़ी बेशर्मी के साथ। इन्होंने बहुत दुश्मनी की लेकिन, उनकी ख़्वाहिश के बरख़िलाफ़ ईरानी क़ौम ने इनमें से बहुत सी साज़िशों को नाकाम बना दिया। इनमें से कुछ वाक़यात का हिसाब बाक़ी है, हम भूले नहीं हैं। हम शहीद सुलैमानी की शहादत को कभी नहीं भूलेंगे। इसे जान लें। इस बारे में हमने एक बात कही है, हम अपनी बात पर क़ायम हैं। (7) वक़्त आने पर, सही जगह इंशाअल्लाह इसे अंजाम दिया जाएगा।
बहरहाल आज का अमरीका भी वही कल वाला अमरीका है। आज का अमरीका वही 19 अगस्त वाला अमरीका है, वही सद्दाम की मदद करने वाला अमरीका, वही बरसों पुराना अमरीका है, एक दो अहम फ़र्क़ के साथ। एक तो फ़र्क़ आया है, हमें चाहिए इस फ़र्क़ को ध्यान में रखें, एक यह कि दुश्मनी का तरीक़ा और पेचीदा हो गया है। हमें इस पर ध्यान देना चाहिए। दुश्मनी, वही दुश्मनी है, सिर्फ़ दुश्मनी करने का अंदाज़ बदल गया, पेचीदा हो गया, गिरहें आसानी से नहीं खुलेंगी। बहुत बारीकी की ज़रूरत है, होशियार रहना चाहिए। हमें अपने साथियों पर, अपने जवानों पर, संबंधित लोगों पर भरोसा है और हम जानते हैं कि गिरहों को खोल सकते हैं लेकिन पेचीदा हैं। यह एक फ़र्क़ है।
दूसरा यह कि उस दिन-19 अगस्त और इन जैसे वाक़यात -यहाँ तक कि इंक़ेलाब आने के आग़ाज़ के दिनों तक, अमरीका दुनिया पर हावी ताक़त था, लेकिन आज नहीं है। यह एक अहम फ़र्क़ है। आज, अमरीका दुनिया पर हावी ताक़त नहीं है। दुनिया के बहुत से पॉलिटिकल एनालिस्ट का मानना है कि अमरीका पतन की ओर जा रहा है, धीरे धीरे कमज़ोर हो रहा है। यह हम नहीं कह रहे हैं। अलबत्ता हमारा भी यही मानना है, लेकिन दुनिया के पॉलिटिकल एनालिस्ट भी यही कह रहे हैं। इसकी निशानियां भी ज़ाहिर हैं। अमरीका को भीतर ऐसी मुश्किलों का सामना है, जिनका उसे कभी सामना नहीं हुआ, उनकी इकनॉमिक मुश्किलें, उनकी सामाजिक मुश्किलें, उनकी अख़लाक़ी मुश्किलें, उनके आपस में इख़्तेलाफ़, एक दूसरे के ख़ून के प्यासे दो धड़ों में बट जाना, दुनिया के मुद्दों के बारे में उनका ग़लत कैल्कुलेशन।
उन्होंने बीस बरस पहले मिसाल के तौर पर अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया-उस वक़्त तालेबान के हाथ में हुकूमत थी-तालेबान को जड़ से उखाड़ने के लिए हमला किया, ख़र्च किया, जुर्म किए, मारे गए, कितनों को मारा, वग़ैरह वग़ैरह, बीस साल अफ़ग़ानिस्तान में रहे, बीस साल बाद अफ़ग़ानिस्तान को तालेबान के हवाले करके बाहर आ गए! इसका मतलब क्या है? इसका मतलब कैल्कुलेशन की ग़लती ही तो है। ज़ाहिर है अमरीका का कैल्कुलेशन का सिस्टम अब व्यवस्थित और सटीक नहीं रह गया है। मामलों को ग़लत अंदाज़ में समझते हैं, ग़लत समझते हैं और उसी बुनियाद पर अमल करते हैं। या इराक़ पर हमला किया, नाकाम रहे। यह जो आप आज इराक़ में इलेक्शन होता देख रहे हैं और वहां एक इराक़ी रहनुमा चुना जाता है, अमरीकी ये नहीं चाहते थे। जब सद्दाम गया, अमरीकियों ने एक फ़ौजी के हाथ में इराक़ की कमान सौंपी। बाद में उन्होंने देखा कि फ़ौजी से काम नहीं हो सकता तो उसे हटाया, एक ग़ैर फ़ौजी –मिस्टर ब्रेमर(8)- को बनाया इराक़ का करता धरता। यानी इराक़ को एक ग़ैर अरब, ग़ैर इराक़ी और अमरीकी हुकूमत के ज़रिए चलाया जाए!
मैंने अभी कहा कि अलहाज क़ासिम सुलैमानी के विषय में मुझे कुछ कहना है, एक बात तो ऐसी है जिसे कहने का यह वक़्त नहीं है। इन लोगों का यह इरादा था। इन लोगों का इरादा इराक़ छोड़ने का नहीं था। बाद में कोशिश की कि अपने आदमियों को ऊपर बिठाएं, पूरी तरह नाकाम हुए। इराक़ में भी नाकाम हुए, सीरिया में भी नाकाम हुए, लेबनान में भी नाकाम हुए। मैरीटाइम बाउंड्री, गैस के रिसोर्स वग़ैरह के मामले में क़ाबिज़ हुकूमत से लेबनानियों का हालिया समझौता, अमरीका की हार थी। क्योंकि अमरीकी बीच में आए, लाइन तय कीः इस तरह होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए! हिज़्बुल्लाह ने सब उलट दिया। यह अमरीका की हार है। तो ज़ाहिर है कि उनके कैल्कुलेशन, ग़लत कैल्कुलेशन हैं।
तो एक और बात जो- अभी मैं बता रहा हूं। दुनिया में कुछ दूसरे लोगों ने भी बज़ाहिर यही बात कही है- बहरहाल मेरी नज़र में अमरीका के पतन की एक और निशानी, मौजूदा प्रेज़िडेंन्ट (9) और पिछले प्रेज़िडेन्ट (10) का सत्ता में आना है। तीस करोड़, तीस करोड़ से कुछ ज़्यादा की आबादी वाले मुल्क में पूरी जान लगा देते हैं और ट्रम्प जैसे शख़्स को प्रेज़िडेंट बनाते हैं, जिसे पूरी दुनिया ने पागल माना। वह हटता है तो इस जैसा शख़्स आता है, आप लोग तो इसके बारे में जानते ही हैं। (11) यह एक क़ौम के पतन की दलील है। एक तहज़ीब के पतन की दलील है। तो यह एक बात थी अमरीका के बारे में।
इस लेहाज़ से पश्चिम की ज़्यादातर सरकारों की हालत अमरीका जैसी है। मैं उनके नाम का ज़िक्र करना नहीं चाहता, इस लेहाज़ से पश्चिम की कुछ और ताक़तें भी अमरीका की तरह हैं। अपने मीडिया में डिस्ट्रक्शन की ट्रेनिंग देती हैं, बलवे की ट्रेनिंग देती हैं, पेट्रोल बम बनाना सिखाती हैं, देसी बम बनाना सिखाती हैं। इसकी वजह क्या है? बहस इस बात पर नहीं है कि ये सब यह काम करके जुर्म कर रहे हैं, बेशक जुर्म तो है ही लेकिन पतन भी है, घटियापन भी है। यह एक हुकूमत की अख़लाक़ी गिरावट के लेवल को बताता है, एक ऐसी हुकूमत जिसका रेडियो इस तरह काम करता है।
पिछले कुछ हफ़्तों से हमारे मुल्क के हालिया दंगों में, यहाँ भी अमरीका का रोल बिल्कुल ज़ाहिर था। इंटेलीजेंस मिनिस्ट्री और आईआरजीसी की इंटेलीजेन्स ने जो बयान जारी किया है, बहुत अहम बयान है। लंबा है और कुछ लोग पढ़ने की हिम्मत नहीं दिखाते। उसकी इन्फ़ॉर्मेशन और रिपोर्ट हमारे पास थी। ये बहुत ही अहम इन्फॉर्मेशन है, इस संबंध में बहुत सी अहम बातें हैं। इस संबंध में हमारे इंटेलीजेंस सिस्टम की खोज के आयाम बहुत क़ीमती हैं। तेहरान के लिए, बड़े शहरों के लिए, छोटे शहरों के लिए उन्होंने साज़िश तैयार की है, मंसूबा बनाया है। मामले की ज़ाहिरी शक्ल यह है कि मसलन कुछ जवान या बच्चे मैदान में हैं। तो यह जवान और बच्चे, हमारे अपने बच्चे हैं। यह हमारी बहस का विषय नहीं है। यह उत्तेजना है, जज़्बात हैं, मामलों को समझने में ज़रूरी बारीकी और गहराई के अभाव का नतीजा है। अस्ल बहस उनको लेकर है जो इस मामले को गाइड कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जो मंसूबे के साथ मैदान में आए हैं।
यह बात जो अर्ज़ कर रहा हूं, सभी ध्यान दें सामने वाले पक्ष के पास मंसूबा है। हमारे ओहदेदारों को भी ध्यान देना चाहिए -ख़ुशक़िस्मती की बात है कि हमारे ख़ुफ़िया इदारों की तवज्जो है। हमारे सियासी ओहदेदार, हमारे आर्थिक विभाग के ओहदेदार, हमारे और दूसरे अधिकारी इस बात को समझें कि सामने वाला पक्ष प्लानिंग के साथ मैदान में आया है -एक एक आदमी जाने ले, आप जवान भी जान लीजिए। ये लोग प्लानिंग के साथ मैदान में आए हैं। प्लान यह है कि ईरानी क़ौम को अपनी राह पर ले जाएं, ऐसा कुछ करें कि ईरानी क़ौम की सोच ब्रिटेन और अमरीका के सियासतदान वग़ैरह की तरह हो जाए। प्लान यह है, मक़सद यह है। अलबत्ता ईरानी क़ौम ने ज़ोरदार थप्पड़ मारा है। आगे भी ऐसा ही करेगी।
जिन लोगों ने प्लानिंग की, मैदान में ख़ास इरादे और मंसूबे के साथ और जान बूझकर उतरे -यह हमारे लिए बहुत अहम है- ये लोग विदेशी सिस्टम से जुड़े हुए थे और इन्होंने जुर्म किए हैं। आप शीराज़ के शाहचेराग़ के वाक़ए को देखिए, कितना बड़ा जुर्म था! दूसरी क्लास का बच्चा (12) या छठी क्लास का (13) या दसवी क्लास का बच्चा (14) इन्होंने क्या गुनाह किया था? उस छह साल के बच्चे ने (15) जो अपने माँ-बाप और भाई को खो चुका है, ग़मों का भारी पहाड़ उसके कांधे पर क्यों रख दिया? क्यों? यह बच्चा इतने बड़े नाक़ाबिले बर्दाश्त ग़म के साथ क्या करे? ये जुर्म है। ये बहुत बड़ा जुर्म है। वह जवान धार्मिक छात्र -तेहरान में शहीद होने वाला मदरसे का जवान छात्र प्यारा आरमान(16)- उसने क्या गुनाह किया था? एक जवान धार्मिक छात्र, जो पहले स्कूल में पढ़ता था फिर धार्मिक छात्र बन गया। मज़हबी, मोमिन, इबादत गुज़ार, इंक़ेलाबी। उसे टॉर्चर किया जाए, टॉर्चर करके उसे क़त्ल कर दिया जाए, उसकी लाश को सड़क पर फेंक दिया जाए। क्या ये मामूसी काम है? ये कौन लोग हैं? सोचना चाहिए। ये कौन लोग हैं? हमारे बच्चे तो नहीं हैं, ये हमारे जवान तो नहीं हैं? ये कौन लोग हैं? किसके इशारे पर काम कर रहे हैं? क्यों उन लोगों ने जो ह्यूमन राइट्स की बात करते हैं, इन लोगों की मज़म्मत नहीं की? क्यों शीराज़ के वाक़ए की मज़म्मत नहीं की? क्यों एक ख़िलाफ़े हक़ीक़त वाक़ए को, एक झूठे हादसे को, इंटरनेट पर अपने प्लेटफ़ार्म से हज़ारों बार पेश कर रहे हैं लेकिन ‘आरशाम’ के नाम पर इंटरनेट पर रोक लगा दी है कि इंटरनेट पर न आने पाए? क्यों? क्या ये लोग ह्यूमन राइट्स के सपोर्टर है? ये ऐसे लोग हैं। हम इन्हें पहचानें, इन्हें आप लोग पहचाहिए। अलबत्ता हम इन्हे छोड़ने वाले नहीं हैं। इस्लामी जुम्हूरिया ईरान इन मुजरिमों को नहीं छोड़ेगा। जिस के बारे में भी साबित हो गया कि वह इन जुर्मों में शामिल था, इन जुर्मों में उसका हाथ था, इंशा अल्लाह उसे सज़ा मिलेगी। इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है।
अब आप जवानों से मैं कुछ बातें कहना चाहता हूं। पहली बात तो यह कि आज का नौजवान, पुराने ज़माने के नौजवानों के मुक़ाबले में एक बालिग़ व अक़्लमंद शख़्स है, एक समझदार शख़्स है। हमारे दौर में ऐसा नहीं था। मैं आपको बता रहा हूं। मैं ख़ुद को शामिल करके कह रहा हूँ। 19 अगस्त का वाक़या जब पेश आया, तो हमारी उम्र आप लोगों में से कुछ लोगों की तरह, मसलन मान लीजिए चौदह पंद्रह साल की थी। मगर वाक़ए की एक धुंधली तस्वीर हमारी निगाहों के सामने थी। बारीकी से सोचें कि कौन लोग हैं, कैसे एलिमेंट्स हैं, इस तरफ़ कौन है, उस तरफ़ कौन है, मक़सद क्या है, क्यों कर रहे हैं? नहीं! इन सब बातों की ओर हमारा ध्यान नहीं था। आज का नौजवान ऐसा नहीं है। आज का नौजवान सोचता है, एनालिसिस करता है, एनालिसिस को सही तरह समझता है, उनके मन में कुछ बिन्दु आते हैं, आज के नौजवान में एनालिसिस की सलाहियत है। यह अहम बात है, यह बहुत ही ध्यान देने वाली बात है।
हमारे बच्चों और हमारों जवानों के पास बयान करने के लिए अपनी बात है और यह इस्लामी इंक़ेलाब की ख़ूबी है। यह मैं अर्ज़ करूं कि यह इस्लामी इंक़ेलाब की देन है। अगर इस्लामी इंक़ेलाब न होता, हमारे जवान – सिर्फ़ बच्चे नहीं, यहाँ तक जवान, बीस से पच्चीस साल के जवान लोग, इस क़दर बेहूदा बातों व ख़्वाहिशात में डूबे हुए थे कि उनके मन में यह बात नहीं आती थी कि मुल्क के बुनियादी मुद्दों के बारे में सोचें। उस वक़्त ऐसा था। मैं यहाँ सड़क पर आता था, एक जगह थी ‘काख़े जवानान’ के नाम से, उस वक़्त और आज के सिटी पार्क के पीछे। रात की शुरूआत थी, कुछ जवान वहाँ से सड़कों पर इकट्ठा हो गए थे -कोई मीटिंग थी या मेहमानी की दावत थी- मुझ जैसा शख़्स जो तालिबे इल्म था और सड़क से गुज़र रहा था, इन जवानों का हुलिया देख कर, शक्ल देख कर, उनकी हरकतें देख कर चकरा जाता था। तो यह जवान, इन ख़सलतों के साथ, क्या मुल्क के मुस्तक़बिल, मुल्क की सियासत के मामलों और ज़िम्मेदारियों के बारे में सोच सकता है? इस्लामी इंक़ेलाब ने जवानों को बेदार किया। तहरीक के दौर में भी -तहरीक के उस आख़िरी साल में जब हमारे जवान, इमाम ख़ुमैनी के हुक्म से मैदान में आए- और तहरीक के बाद से आज तक, हर दिन हमारा जवान पुख़्ता हुआ है, एनालिसिस की सलाहियत है उसमें, वाक़ए को समझने की सलाहियत है उसमें।
तो यह एक हक़ीक़त है। इस हक़ीक़त को जिस तरह हम समझते हैं, दुश्मन भी समझता है। दुश्मन भी समझता है कि आज के जवान की आँख और कान खुले हुए हैं, उसकी पूरी तवज्जो है, समझदार है, एनालिसिस करने की सलाहियत रखता है। वह क्या काम करता है? दुश्मन बेकार नहीं बैठा रहता। दुश्मन हमारे जवान की इस हालत को बेअसर बनाने के लिए, जवानों के लिए ज़ेहनी कन्टेन्ट बनाना शुरू कर देता है। इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग की वेबसाइटों पर झूठी बातों की भरमार इसी वजह से है। ये सब झूठ, हक़ीक़त के बरख़िलाफ़ ये बातें, ये सब गुमराह करने वाली बातें, ये सब इल्ज़ाम, ये सब इसलिए है कि दुश्मन ऐक्टिव दिमाग़ के लिए कन्टेन्ट बनाए। यह जो मैं बार बार कहता है ‘सच्चाई को बयान करने का जेहाद’ इसी वजह से है। आप कन्टेन्ट बनाइये। ओहदेदारों से मैं कह रहा हूं। मीडिया के ओहदेदारों, कम्यूनिकेशन के मामलों के ओहदेदार। इससे पहले की दुश्मन, ग़लत, गुमराह करने वाले व झूठे कन्टेन्ट फैलाए, आप सच्चे व सही कन्टेन्ट मुहैया कीजिए, जवानों के ज़ेहन तक पहुंचाइये। दुश्मन इस काम में लगा हुआ है। (17) बहुत बहुत शुक्रिया। इस वक़्त हमारी बात सुनिए, फिर जाकर उसके लिए हक़ीक़त में प्लानिंग कीजिए।
वाक़ई मुझे आप जवानों से यही उम्मीद है। अभी कह रहा हूँ, दोबारा भी कहुंगा। थोड़ा सा वक़्त है गुज़र रहा है लेकिन अच्छा मौक़ा है कि आप लोगों से कुछ बातें करूं। तो दुश्मन भी प्रोग्राम बनाता है। मैंने कहा कि ओहदेदार, ज़िम्मेदारी का एहसास करें, समझें कि दुश्मन किसी लफ़्ज़, किसी नाम पर रिएक्शन क्यों देता है और उसे बंद कर देता है और क्यों इतना सब झूठ साइबर स्पेस पर परोसता है। हल निकालें, निमटें। यह ओहदेदारों की ज़िम्मेदारी है। ख़ुद आप जवानों का भी फ़र्ज़ है, आप भी ज़िम्मेदारी का एहसास कीजिए। ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए ताकि आप सच और झूठ में फ़र्क़ समझ सकें। मेरे ख़्याल में यह हो सकता है। ऐसा नहीं है कि न हो। एक बात को बहुत ज़्यादा दोहराकर मन में बिठाना चाहते हैं लेकिन समझा जा सकता है कि यह हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है या नहीं। तो झूठ और तोड़-मरोड़ कर पेश की गयी बात से सही बात को अलग करना चाहिए।
दूसरी बात यह कि ऐसे लोगों पर नज़र रखिए जो दुश्मन के सुर में सुर मिलाते हैं। उनकी हिदायत कीजिए। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि झगड़िए, लेकिन रहनुमाई कीजिए, समझाइये। ऐसे लोगो हैं जो दुश्मन के सुर में सुर मिलाते हैं। ऐसा नहीं है कि जानबूझ कर। कुछ नहीं समझते हैं, ग़ाफ़िल हैं। लोग देखते हैं, पहचानते हैं ऐसे लोगों को जो इंटरनेट पर कुछ बातें कहते हैं, अख़बारों में लिखते हैं, दुश्मन नहीं हैं, लेकिन ग़लत समझते हैं। इन लोगों की हिदायत करना चाहिए। बेहतरीन लोग जो रहनुमाई कर सकते हैं, ख़ुद आप जवान लोग हैं। उनके लिए लिखिए, कहिए, मैसेज कीजिए, समझाइये, अपनी बैठकों में दलील दीजिए।
अलबत्ता मैं समझता हूँ कि इस तरह के मामलों से निपटने के लिए प्रोग्राम बनाना चाहिए। पिछले कुछ हफ़्तों के वाक़यात सिर्फ़ सड़क पर होने वाले दंगे नहीं थे। इसके पीछे बहुत गहरी प्लानिंग थी। दुश्मन ने हाइब्रिड वॉर शुरू की। एक हाइब्रिड वॉर। मैं यह बात इन्फ़ॉर्मेशन की बुनियाद पर कह रहा हूं। दुश्मन यानी अमरीका, इस्राईल, युरोप की कुछ दुष्ट ताक़तें, कुछ छोटे और बड़े गिरोह, सभी अपने सारे संसाधन मैदान में ले आए। सभी संसाधन का क्या मतलब? यानी अपने ख़ुफ़िया तंत्र को, अपने मीडिया को, साइबर स्पेस पर अपनी सलाहियतों को, अपने पिछले तजुर्बों को, इन्हें ईरान में तजुर्बा है। 1999 का तजुर्बा है, 2009 का तजुर्बा है, बाद के बरसों का तजुर्बा है, जहाँ जहाँ उन्हें शिकस्त हुयी, वहाँ वहाँ के तजुर्बे इस्तेमाल कर रहे हैं। उन तजुर्बों को भी मैदान में ले आए। दूसरे मुल्कों में भी ये काम किया है, कुछ जगह उन्हें मुंह की खानी पड़ी, कुछ जगह उन्हें कामयाबी मिली है, उन तजुर्बों को भी इस्तेमाल करते हैं। दुश्मन इन सभी सलाहियतों को इन कुछ हफ़्तों में मैदान में ले आया ताकि ईरानी क़ौम पर ग़ल्बा हासिल करे। मैंने अर्ज़ किया सही अर्थों में क़ौम ने उन्हें ज़ोरदार थप्पड़ जड़ा। ईरानी क़ौम ने सही अर्थ में उन्हें शिकस्त दे दी।
तो यह था आप जवानों और उन जवानों से जो बाद में इन बातों को सुनेंगे एक तवक़्क़ो का इज़हार, मुझे एक दूसरी तवक़्क़ो भी है। एक दो स्पीच पहले मैंने कहा कि इस बात की बहुत सी निशानियां मौजूद हैं जो मौजूदा वर्ल्ड ऑर्डर के बदलने का पता दे रही हैं (18) और नया वर्ल्ड ऑर्डर दुनिया में क़ायम हो जाएगा। हम ईरानियों का रोल, हम ईरानियों का इस नए वर्ल्ड ऑर्डर में स्थान क्या होगा? यह एक अहम सवाल है। यह नया वर्ल्ड ऑर्डर जिसके बारे में मैं अर्ज़ कर रहा हूं कि मौजूदा ऑर्डर, नए ऑर्डर में बदल जाएगा, क्या है? बहुत सटीक तो नहीं बताया जा सकता, तफ़सील तो नहीं बताई जा सकती कि वर्ल्ड ऑर्डर इस तरह का होगा, लेकिन कुछ लाइनें खींची जा सकती हैं। कुछ बुनियादी लाइनें हैं जो यक़ीनी तौर पर इस नए वर्ल्ड ऑर्डर में हैं। एक बुनियादी लाइन अमरीका का अलग थलग पड़ना है। अमरीका नए वर्ल्ड ऑर्डर में किनारे हो जाएगा। उस चीज़ के बरख़िलाफ़ जो बात दस बीस साल पहले सीनियर बुश ने कही थी कि आज दुनिया पर हावी एक अकेली ताक़त अमरीका है। कुवैत पर इराक़ के हमले और अमरीकियों के सामने आने और इराक़ियों के हमले को नाकाम बनाने के बाद, सीनियर बुश ने बड़े घमंड से इसी क़िस्म की बात कही थी कि आज दुनिया में सब कुछ अमरीका के हाथ में है। इस नए वर्ल्ड ऑर्डर में जिसके बारे में मैं बता रहा हूं, अमरीका का अहम मुक़ाम नहीं है, वह अलग थलग है। (19) जी हाँ ऐसा ही होगा। “अमरीका मुर्दाबाद” होगा। कुछ लोग कहते हैं कि आप लोग “अमरीका मुर्दाबाद” कहते हैं तो अमरीकी आपसे दुश्मनी करते हैं। मैं कहता हूं कि नहीं, जिस दिन अमरीकियों ने दुश्मनी शुरू की यानी 19 अगस्त को, ईरान में कोई भी अमरीका मुर्दाबाद नहीं कहता था लेकिन उन्होंने अपनी ओर से नुक़सान पहुंचाया। उनकी तरफ़ से नुक़सान पहुंचाने की वजह “अमरीका मुर्दाबाद” नहीं है, जब नुक़सान पहुंचा चुके तो उसी साल 7 दिसंबर (20) को स्टूडेंट्स ने तेहरान यूनिवर्सिटी में अमरीका मुर्दाबाद का नारा लगाया, अमरीका मुर्दाबाद तो 7 दिसंबर की यादगार है। उस वक़्त से अमरीका मुर्दाबाद कहा जाने लगा। अमरीकी तो उससे पहले ही नुक़सान पहुंचा चुके थे।
तो एक बात यह कि अमरीका दुनिया से अपनी बिसात समेटने पर मजबूर होगा। इस वक़्त दुनिया के बहुत से इलाक़ों में अमरीकियों की छावनियां हैं। हमारे इलाक़े में, यूरोप में, एशिया में, फ़ौजी छावनियां बड़ी तादाद में फ़ौजियों के साथ, उसका पैसा भी उस बेचारे मेज़बान मुल्क से वसूलते हैं जहाँ छावनी है। उसका ख़र्च भी वही दे और अमरीकी बैठ कर खाएं और हुक्म चलाएं! यह सब ख़त्म हो जाएगा। अमरीका के फैले हुए हाथ पैर पूरी दुनिया से सिमट जाएंगे। यह, वह आरंभिक बुनियादी ख़ाका है, मुस्तक़बिल में दुनिया के नए वर्ल्ड ऑर्डर की बुनियादी लाइन है।
दूसरी बुनियादी लाइन पॉलिटिकल, इकनॉमिक, कल्चरल और यहाँ तक कि साइंटिफ़िक ताक़त का वेस्ट से एशिया में ट्रांसफ़र होना है। आज पश्चिमी ताक़तों के पास सियाती ताक़त भी है, साइंटिफ़िक ताक़त भी है, कल्चरल ताक़त भी है, इकनॉमिक ताक़त भी है। यानी बहुत सी चीज़ें हैं, बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि उनके पास थी और अब धीरे-धीरे उनके हाथ से निकल रही है। तो यह सब चीज़ें उनके पास बरसों रही। दो तीन सदियां पश्चिम ने इस तरह काम किया। इस नए वर्ल्ड ऑर्डर में वेस्ट की यह पोज़ीशन, एशिया में ट्रांस्फ़र हो जाएगी। एशिया साइंस का सेंटर होगा, इकनॉमिक सेंटर होगा, सियासी ताक़त का सेंटर, फ़ौजी ताक़त का सेंटर। हम एशिया में हैं। तो यह थी अगली लाइन।
तीसरी लाइन यानी उस बुनियादी ख़ाके के तीसरी लाइन धौंस धमकी के मुक़ाबले में रेज़िस्टेंस की सोच और रेज़िस्टेंस का मोर्चा फैलेगा जिसकी बुनियाद इस्लामी जुम्हूरिया ने रखी है। चूंकि यूरोप ने जब इंडस्ट्रियल रेवोलूशन आया, आगे निकले और साम्राज्याद को फैलाना शुरू किया तो दुनिया के लोगों और दुनिया के मुल्कों को यह क़ुबूल करने पर मजबूर कर दिया कि इम्पेरियल पावर और इम्पेरियलिज़्म का निशाना बनने वाली क़ौम इन दो भागों में दुनिया बटी रहे। (21) यानी दुनिया बंटी हुयी है इम्पेरियल सरकारों और उनके विस्तारवाद को क़ुबूल करने वाली सरकारों व मुल्कों में। यह हालत थी और यह विस्तारवादी सिस्टम कई सदियों तक चला। सभी मानते थे कि पश्चिमी ताक़तों के ग़लबे के क़ुबूल करना चाहिए, यहाँ तक कि उनके कल्चर को क़ुबूल करना चाहिए, यहाँ तक कि उनकी ओर से रखे गए नाम को भी क़ुबूल करना चाहिए।
देखिए मैं यहाँ पर यह बात बता दूं-एक बार मैंने यह बात कही थी(22)- कि वे हमारे इलाक़े को कहते हैः मिडिल ईस्ट! मिडिल ईस्ट का क्या मतलब? यानी अस्ल दुनिया और दुनिया का सेंटर यूरोप है। बिल्कुल मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी की तरह जब उनसे पूछा गया कि दुनिया का सेंटर प्वाइंट कहा है? उन्होंने कहा ठीक मेरे गधे के अस्तबल में खूंटे की जगह। यहाँ दुनिया का सेंटर प्वाइंट है! जो इलाक़ा यूरोप से दूर है, उसका नाम फ़ार ईस्ट है। चूंकि यूरोप से दूर है। जो भी नज़दीक है, जैसे उत्तरी अफ़्रीक़ा के कुछ मुल्क, यह नियर ईस्ट है। जो इनके बीच में है, वह मिडिल ईस्ट है। यानी मुल्कों के नाम रखने का उसूल, बुनियाद और पैरामीटर भी यूरोप है। यूरोप ख़ुद को इतना ज़्यादा हक़दार समझता था! इसी वजह से मैं कहता हूं कि हम मिडिल ईस्ट न कहें, बल्कि पश्चिम एशिया कहें। एशिया का पश्चिमी हिस्सा ही तो है। क्यों हम मिडिल ईस्ट कहते हैं? इम्पेरियल ताक़तों की धौंस धमकी, ताक़त की चाह और ग़लबा जमाने की इच्छा के ख़िलाफ़ यह रेज़िस्टेंस का जज़्बा, इस्लामी जुम्हूरिया ईरान की देन है। जिस शख़्स ने पहली बार दुनिया में कहा, “न पूरब न पश्चिम” वह हमारे अज़ीम इमाम ख़ुमैनी थे। न ही पूरब और न ही पश्चिम। उस वक़्त दुनिया की ताक़त अमरीका और पूर्व सोवियत युनियन में बंटी हुयी थी। उन्होंने फ़रमायाः ना यह, ना वह। पूरी दुनिया के मुल्क मजबूर थे या इससे जुड़े रहें या उससे जुड़े रहें। ख़ुद को मजबूर समझते थे, लेकिन उन्होंने कहा कि न यह, न वह। यह ज़ज़्बा, यह तर्क, यह ठोस बात आज स्थापित हो गयी है। आज हमारे इलाक़े में बहुत से लोग हैं जो ख़ुद को रेज़िस्टेंस के मोर्चे से जुड़ा मानते हैं, रेज़िस्टेंस कर रहे हैं, रेज़िस्टेंस पर उनका यक़ीन है और रेज़िस्टेंस भी कर रहे हैं और बहुत से मौक़ों पर उन्हें नतीजा भी मिल रहा है, मिसाल के तौर पर यही नतीजा जो लेबनानियों को हिज़्बुल्लाह की बर्कत से गैस फ़ील्ड की बाउंड्री को बनाने में मिला। मैंने बुनियादी ख़ाके की तीन बातें बताईं, अमरीका का अलग थलग पड़ना, ताक़त का एशिया ट्रांसफ़र होना, रेज़िस्टेंस के मोर्चे और रेज़िस्टेंस के विचार का फैलना। अलबत्ता और भी बातें हैं जो बतायी जा सकती हैं, मेरे मन में भी हैं, ये ज़्यादा बुनियादी बातें हैं।
तो इस नई दुनिया में ईरान का क्या रोल है? ईरान किस जगह पर होगा? हमारे अज़ीज़ मुल्क का क्या मुक़ाम होगा? यह वह चीज़ है जिसके बारे में आपको सोचना होगा। यह, वह चीज़ है जिसके लिए आपको ख़ुद को तैयार करना चाहिए। यह वह चीज़ है जो ईरानी जवान अंजाम दे सकता है। हम इस नए वर्ल्ड ऑर्डर में अच्छा मुक़ाम पा सकते हैं। हम हासिल कर सकते हैं। कैसे? इसलिए कि हमारे मुल्क की एक ख़ास ख़ूबी है जो बहुत से मुल्कों के पास नहीं है। पहली ख़ूबी ह्यूमन रिसोर्सेज़। हमारे पास अच्छे ह्यूमन रिसोर्सेज़ हैं। यानी ईरानी जवान का आईक्यू और सलाहियत, दुनिया की एवरेज आईक्यू और सलाहियत से ऊपर है। यह है। हम आज अस्सी और नब्बे की दहाई के जवानों की ज़ेहानत और सलाहियत की बरकतें अपनी आँखों से देख रहे हैं। इस वक़्त जवान और वे लोग जो आज साइंस के अलग अलग मैदानों, अलग अलग टेक्नॉलोजी के मैदानों में इनोवेशन कर रहे हैं, अपटूडेट कर रहे हैं-अलग अलग डिपार्टमेंट में, अलग अलग साइंटिफ़िक मैदानों में- कुछ फ़ील्ड में मुल्क को दुनिया के चौथे पांचवें मुक़ाम पर ले जा रहे हैं, ये वही 80 और 90 की दहाई में पैदा होने वाले और उनके जैसे लोग हैं। आज फल दे रहे हैं। इंशा अल्लाह ईरानी क़ौम इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई में पैदा होने वालों-आप में ज़्यादातर लोग इसी समूह के हैं- दूसरी दहाई में पैदा होने वालों की बरकतें भी मुस्तक़बिल में देखेगी। तो रुकावटें भी होंगी, मुश्किलें भी होंगी जो रास्ता रोकेंगी। ख़ैर हमें हासिल पहली अहम ख़ासियत ह्यूमन रिसोर्सेज़ हैं।
दूसरी बड़ी ख़ासियत नेचुरल रिसोर्सेज़ हैं, मुल्क की नेचुरल रिसोर्सेज़ हैं। हमारे पास मुल्क में ऐसे रिसोर्सेज़ हैं कि नेचुरल रिसोर्सेज़ में वराइटी की नज़र से हम दुनिया के उन मुल्कों में हैं जो बेनज़ीर नेचुरल वराइटी के मालिक समझे जाते हैं। मैंने एक बार इसी इमामबाड़े में एक स्पीच में (23) –इस वक़्त उसके आंकड़े याद नहीं हैं, उस दिन मुतालेआ किया था मुझे याद था- मैंने कहा था कि हम दुनिया की कुल आबादी का एक फ़ीसद हैं, हम एक फ़ीसद हैं लेकिन इंडस्ट्री के लिए ज़रूरी कुछ बुनियादी धातों के लेहाज़ से, ये कुछ धातें हमारे मुल्क में, पूरी दुनिया में कुल मौजूद धातों का चार फ़ीसद, पाँच फ़ीसद है। यानी हमारे पास उससे ज़्यादा नेचुरल रिसोर्सेज़ की मेक़दार है जो हमारी आबादी का अनुपात है। फ़िलहाल मैंने धातु के बारे में बताया, दवा के काम आने वाली जड़ी बूटियों के लेहाज़ से भी ऐसा ही है, खदानों में भी ऐसा ही है। इस लेहाज़ से हमारे पास बहुत दौलत है। खदानों के बारे में मैंने अलग अलग हुकूमतों को कितनी ताकीद की। अफ़सोस कि बहुत अच्छे ढंग से इस पर काम नहीं हुआ और बहुत सी हुकूमतों ने हमारी बात पर काम नहीं किया। हमें उम्मीद है इंशा अल्लाह यह हुकूमत इन मामलों पर ध्यान देगी। सुना है खदान के मैदान में अच्छे काम कर रही है, तो यह भी एक और बुनियादी बिन्दु है।
इसलिए हमारा मुल्क ह्यूमन रिसोर्सेज़ के लेहाज़ से ख़ास हैसियत रखता है, नेचुरल रिसोर्सेज़ के लेहाज़ से भी ख़ास हैसियत रखता है, जुग़राफ़ियाई लेहाज़ से भी। हम ईस्ट वेस्ट और नार्थ साउथ को जोड़ने वाले चौराहे पर स्थित हैं। आप नक़्शा देखिए, दुनिया के नक़्शे को देखिए। हम एक अहम बिन्दु पर स्थित हैं। पूरब और पश्चिम हमारे यहाँ से होकर गुज़र सकते हैं। उत्तर और दक्षिण वाले भी हमारे यहाँ से होकर गुज़र सकते हैं। हम दुनिया में बहुत ही एडवांस व अच्छे ट्रांज़िट के मालिक बन सकते हैं। अलबत्ता रेलवे सर्विस, रेलवे लाइन की ज़रूरत है। रोड से नहीं हो सकता। मैं रेलवे लाइन के बारे में -अपना दर्दे दिल आप जवानों को बताऊं- बार बार अलग अलग सरकारों में रेलवे लाइन के बारे में मैंने ताकीद की है। अफ़सोस कि कोताही हुयी। अलबत्ता इमाम ख़ुमैनी के इंतेक़ाल के बाद के बरसों में रेलवे लाइन की फ़ील्ड में कुछ अच्छा काम हुआ, लेकिन बाद में अच्छा काम नहीं हुआ और अब इंशा अल्लाह अच्छा काम करने का इरादा है, हमें चाहिए इंशा अल्लाह ट्रांसपोर्ट के मैदान में अहम मुक़ाम हासिल करें।
इन सारी ख़ासियतों से ज़्यादा अहम हमारी हुकूमत और हमारे कल्चर की लाजिक है जो यही इस्लामी जुम्हूरिया है। हमने जुम्हूरियत और इस्लाम को एक जगह किया। लोगों के दरमियान, लोगों की राय और इस्लामी तालीमात को एक साथ किया। इन दोनों चीज़ों को एक करना आसान काम नहीं है, लेकिन हमने अल्लाह की तौफ़ीक़ से यह काम अंजाम दिया। अलबत्ता कमियां हैं। मैं कभी यह दावा नहीं करता कि इनमें कमियां नहीं है। नहीं, कमियां है लेकिन हमारी बात, हमारी रविश, दुनिया में एक नई रविश है। तो यह इन मुद्दों के बारे में।
आप प्यारे जवानों की ख़िदमत में मेरी आख़िरी बात। देखिए आपके, हमारे, हम सबके सारे काम, हमारी बातें, हमारे काम, मुल्क से बाहर एक पैग़ाम भेजते हैं। हमें होशियार रहना चाहिए कि हम क्या पैग़ाम दे रहे हैं। ज़रूरी नहीं है कि ज़बान से ही पैग़ाम दिया जाए। कभी आपके बैठने का अंदाज़ भी पैग़ाम देता है। कभी आपका किसी जगह इकट्ठा होना भी पैग़ाम देता है, कभी जो आप नारा लगाते हैं, पैग़ाम देता है। दुनिया को जो पैग़ाम दे रहे हैं, इस ओर से होशियार रहिए। मेरा कहना है कि दुश्मन के मोर्चे को ईरानी क़ौम और ईरानी जवानों की तरफ़ से जो सबसे अहम बात पहुंचनी चाहिए वह ईरानी क़ौम की रेज़िस्टेंस का पैग़ाम है। ईरानी क़ौम, ईरानी जवान अपने क़दम से, अपने अमल से, अपने नारों से, अपने परफ़ॉर्मेन्स से दुनिया को समझाए-अलबत्ता दुश्मन भी समझ जाएगा- कि ईरानी क़ौम के पास रेज़िस्टेंस की ताक़त है, धौंस धमकी के मुक़ाबले में डटने के लिए मज़बूत इरादा रखती है। अलबत्ता यह हर शख़्स का फ़रीज़ा है। हुकूमत के ओहदेदारों पर भारी ज़िम्मेदारियां है। इस संबंध में सरकारी ओहदेदारों का बहुत बड़ा फ़रीज़ा है। पिछली ग़लतियां दोहराई नहीं जानी चाहिए। इस संबंध कुछ सरकारी सिस्टम को बहुत ज़्यादा ऐक्टिव होना चाहिए। जिनमें एजुकेशन डिपार्टमेंट, एजुकेशन मिनिस्ट्री, कल्चरल मिनिस्टी, प्रोडक्शन से जुड़े मंत्रालयः इंडस्ट्रीज़ मिनिस्ट्री, ऐग्रीकल्चर मिनिस्ट्री। या ट्रांसपोर्ट के मामले से जुड़े मंत्रालय- ये अहम सिस्टम हैं- या वाइस प्रेज़िडेन्सी जो जीनियस लोगों को एलीट फ़ाउंडेशन से जोड़ती है। इन सबकी भारी ज़िम्मेदारी है कि इसे अंजाम दें।
मेरे प्यारो! यक़ीन रखिए अगर मैं अपना फ़र्ज़ अंजाम दे दूं, आप अपना फ़र्ज़ अंजाम दे दें, अलग अलग विभाग अपना फ़र्ज़ अंजाम दे दें, हम में जो जहाँ पर है, अपने फ़र्ज़ को पहचान ले और अंजाम दे दे तो मुल्क की सारी मुश्किलें दूर हो जाएंगी और उस दिन मुल्क अपनी अस्ल आरज़ू तक पहुंच जाएगा।
अल्लाह की रहमत हो हमारे अज़ीम इमाम ख़ुमैनी पर, अल्लाह की रहमत हो उन लोगों पर जो अब हमारे बीच नहीं रहे, अल्लाह की रहमत हो हमारे शहीदों पर और अल्लाह की रहमत हो शहीदों के घरवालों पर।
इंशा अल्लाह कामयाब हों। अल्लाह आप सबकी इंशा अल्लाह हिफ़ाज़त करे। ख़ुश रहिए।