नए हिजरी शम्सी साल के आग़ाज़ के उपलक्ष्य में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की स्पीच के महत्वपूर्ण बिंदुः
साल के पहले ही दिन आर्थिक बहस छेड़ने की वजह एक तो इकानामी की ख़ास अहमियत है। यानी इकानामी के साथ अगर बराबरी जुड़ जाए तो देश वाक़ई प्रगति करेगा। दूसरे यह कि बीते दस साल में हमें आर्थिक चुनौतियों के भंडार का सामना रहा जिन्हें किसी तरह हल होना चाहिए।
देश की नई नीतियों ने साबित किया कि देश की इकानामी को अमरीकी पाबंदियों के विषय से नहीं जोड़ना चाहिए। पाबंदियों के बावजूद सरकार विदेशी व्यापार बढ़ाने में सफल हुई, क्षेत्रीय समझौते भी हुए, इसी तरह तेल और अन्य आर्थिक विषयों में बेहतर पोज़ीशन हासिल हुई।
तेल की आमदनी बढ़ने के बाद हम दो तरह से अमल कर सकते हैं। या तो हम आयात बढ़ाकर जनता को सुविधाएं मुहैया कर दें, यह बज़ाहिर अच्छी चीज़ है लेकिन राष्ट्रीय संपत्ति की बर्बादी है। दूसरा रास्ता यह है कि तेल की आमदनी को इंफ़्रास्ट्रक्चर पर लगाएं कि इकानामी की जड़ें गहरी हों।
दुनिया के हालात को देखिए तो साम्राज्यवाद के सिलसिले में ईरानी क़ौम का सही स्टैंड और भी स्पष्ट हो जाता है। हमारी क़ौम ने साम्राज्यवाद के सामने समर्पण नहीं चुना, प्रतिरोध और स्वाधीनता की हिफ़ाज़त का रास्ता चुना, आंतरिक सशक्तीकरण का रास्ता चुना। यह राष्ट्रीय फ़ैसला था।
आप अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं और अमरीकियों के बाहर निकलने का तरीक़ा देखिए। पहले तो बीस साल तक अफ़ग़ानिस्तान में रहे। इस मज़लूम मुस्लिम मुल्क में क्या कुछ किया?! फिर किस तरह बाहर निकले? अवाम के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं और अब अफ़ग़ान जनता का पास लौटाने पर तैयार नहीं हैं।
इधर #यमन की घटनाएं हैं। यमन के मज़लूम और वाक़ई प्रतिरोधक अवाम पर रोज़ होने वाली बमबारी है। यह #सऊदी_अरब की कारस्तानियां हैं कि एक दिन के अंदर 80 नौजवानों और बच्चों की गरदन काट देता है।
#यूक्रेन के मसले में पश्चिमी सरकारों की नस्ल परस्ती सब ने देखी। ट्रेन रोकते हैं कि जंग के संकट से जान बचाकर भागने वाले शरणार्थियों में से कालों को गोरों से अलग करें और ट्रेन से उतार दें।
पश्चिमी मीडिया में खुले आम अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं कि इस बार जंग मध्यपूर्व में नहीं यूरोप में है। यानी अगर जंग, रक्तपात और भाई-भाई की लड़ाई मध्यपूर्व में हो तो कोई हरज नहीं, यूरोप में हो तो बहुत बुरी है। इतनी खुली और स्पष्ट नस्ल परस्ती!
दुनिया में पश्चिम के इशारों पर चलने वाले देशों में अत्याचार होते हैं मगर उनके मुंह से आवाज़ नहीं निकलती। इतने ज़ुल्म और अंधकार के बावजूद वे मानवाधिकार के दावे करते हैं और इन दावों के ज़रिए आज़ाद देशों से अपनी मांगें मनवाते हैं, उन्हें धमकाते हैं।
यह ज़ुल्म और ज़्यादती के मैदान में समकालीन युग का सबसे शर्मनाक दौर है जिसे दुनिया की दुष्ट ताक़तें अंजाम दे रही हैं। दुनिया के अवाम इस ज़ुल्म को प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं।
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