अगर इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का संघर्ष न होता तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत अकारत हो जाती और उसके प्रभाव बाक़ी न रहते। चौथे इमाम का रोल बहुत अहम है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के जीवन के कारनामों के कई पहलू हैं जिनमें से एक नैतिक पहलू है।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने इस्लामी समाज के प्रशिक्षण और अख़लाक़ी पाकीज़गी फैलाने का बीड़ा उठाया। क्यों? इस लिए कि वे समझते थे कि इस्लामी दुनिया की उन समस्याओं का एक बड़ा भाग, जो कर्बला की घटना की वजह बनीं, लोगों की अख़लाक़ी पस्ती और पतन का नतीजा था। अगर लोग इस्लामी शिष्टाचार से सुसज्जित होते तो यज़ीद, इब्ने ज़्याद, उमरे साद और दूसरे दुष्ट लोग यह काम नहीं कर सकते थे। अगर इतने पस्त न हुए होते तो सरकारें, चाहें वे कितनी भी बुरी क्यों न होतीं, कितनी ही बेदीन व ज़ालिम क्यों न होतीं, इतनी बड़ी त्रासदी व घटना अंजाम नहीं दे सकती थीं। यानी पैग़म्बर के नवासे और फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के बेटे को क़त्ल न सकतीं। क्या यह कोई मामूली घटना थी? एक राष्ट्र उस वक़्त सभी बुराइयों की जड़ बनता है जब उसमें नैतिक बुराइयां आ जाएं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने इस बात को इस्लामी समाज के चेहरे पर पढ़ लिया था। उन्होंने इस्लामी समाज के चेहरे को इस बुराई से साफ़ करने और उसका व्यवहार सुधारने का फ़ैसला कर लिया। इसी लिए उनकी दुआए मकारिमुल अख़लाक़, दुआ होने के साथ ही पाठ भी है। सहीफ़ए सज्जादिया दुआ है, मगर सबक़ भी है।

मैं आप नौजवानों से सिफ़ारिश करता हूं कि सहीफ़ए सज्जादिया पढ़ें और उस पर ग़ौर करें। बिना सोचे और ध्यान दिए पढ़ना सही नहीं है। इस पर ग़ौर करेंगे तो देखेंगे कि सहीफ़ए सज्जादिया की हर दुआ और दुआए मकारिमुल अख़लाक़, शिष्टाचार और ज़िंदगी का एक पाठ है।

 इमाम ख़ामेनेई 
14 दिसम्बर 1993