शाह के काल में क़ुरआन और उसकी व्याख्या की क्लास में जो नौजवान आया करते थे, मैं उनसे कहा करता था कि अपनी जेब में एक क़ुरआन रखा कीजिए, जब भी वक़्त मिले या किसी काम के इंतेज़ार में रुकना हो तो एक मिनट, दो मिनट, आधा घंटे क़ुरआन खोलिए और तिलावत कीजिए ताकि इस किताब से लगाव हो जाए।
कुछ लोगों ने इस पर अमल किया, हालांकि उनकी तादाद बहुत कम थी, लेकिन मैंने महसूस किया कि ये लोग जो ज़्यादातर अरबी भी नहीं जानते थे, फिर भी इस्लामी शिक्षाओं को समझने में दूसरों से आगे थे और उनमें तथा दूसरो में फ़र्क़ साफ़ ज़ाहिर था।
22 जनवरी 1991