सिद्दीक़ए कुबरा हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा पर फ़रिश्तों का सलाम

आध्यात्मिक लेहाज़ से हज़रत ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) ऐसी हस्ती हैं कि जब इबादत के मेहराब में खड़ी होती थीं तो, अल्लाह के निकटवर्ती हज़ारों फ़रिश्ते उन्हें ख़ेताब करते थे, उन्हें सलाम करते थे, उन्हें मुबारकबाद देते थे और वही बात कहते थे जो फ़रिश्तों ने हज़रत मरमय से कही थी; वे कहते थेः ऐ फ़ातेमा! बेशक अल्लाह ने तुम्हे मुन्तख़ब कर लिया है और तुम्हें पाक व पाकीज़ा बनाया है और तुम्हें तमाम जहानों की औरतों में चुन लिया गया है। (16 जनवरी 1990)

 

हज़रत फ़ातेमा की ज़िंदगी का जेहादी पहलू

जब हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत और आध्यात्मिकता की बात होती है तो, कुछ लोग ख़याल करते हैं कि जो शख़्स इबादत में व्यस्त रहता है, एक इबादत करने वाला, अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाने वाला, दुआ करने वाला, अल्लाह को याद करने वाला, रहनुमा नहीं हो सकता; या कुछ लोगों का सोचना है कि जो रहनुमा है...अगर वह औरत है, तो घरेलू औरत नहीं रह सकती...उन्हें लगता है कि इनका आपस में विरोधाभास है। (13 दिसम्बर 1989) हालांकि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) ने इन तीनों को (अपनी ज़िंदगी से) अलग नहीं किया।(13 दिसम्बर 1989) और अगर उनकी ज़िंदगी पर नज़र डालें तो हम देखते हैं, यह ज़िंदगी जेहाद, संघर्ष, कोशिश, इंक़ेलाबी काम, इंक़ेलाबी धैर्य, अनेक लोगों को शिक्षा देने, भाषण, नबुव्वत, इमामत और इस्लामी सिस्टम की रक्षा में काम, कोशिश और संघर्ष का एक विशाल सागर है। (16  जनवरी 1990)

 

विलायत के अधिकार की रक्षा के लिए बौद्धिक तरीक़ा

 

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) हक़ बयान करने के जेहाद के लेहाज़ से, पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही वसल्लम) की रेहलत के बाद अहम राजनैतिक वाक़यों के संबंध में उनका व्यवहार एक संपूर्ण जेहादी, न थकने वाले और मेहनत करने वाले मुजाहिद का व्यवहार है।(13 दिसम्बर 1989) उन बहुत कठिन हालात में जिसकी बुद्धिजीवी वर्ग भी सही व्याख्या नहीं कर सकता..., ऐसे हालात में पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी मस्जिद में आती हैं और ऐसी स्पीच देती हैं, हैरतअंगेज़ बयान देती हैं और तथ्यों को पेश करती हैं।(19 मार्च 2017) यह, तथ्यों को पेश करने का बौद्धिक तरीक़ा है। जैसा कि इस स्पीच की भूमिका में आपकी ज़बान से इल्म और इरफ़ान का एक सिलसिला नज़र आता है...हमारी सोच और समझ जिस ऊंचाई तक जा सकती है, उतने ऊंचे अर्थों वाला आत्मज्ञान और इस्लामी शिक्षाएं, इस मुबारक स्पीच में मिलती हैं। (3 जून 2010) और अल्लामा मजलिसी के शब्दों में वह ऐसा ख़ुतबा है कि वाक्पटुता के माहिर और विद्वान बैठें और उसके अर्थों को बयान करें इतने अर्थों से भरा हुआ है। (16 दिसम्बर 1992)

 

समाज की रहनुमाई और मार्गदर्शन

सामाजिक मामलों में योगदान देने के बारे में हमारी रवायतें और स्रोत बताते हैं कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के पास सिर्फ़ नबुव्वत और इमामत की ज़िम्मेदारी नहीं थी, वरना आध्यात्मिक लेहाज़ से उनमें और पैग़म्बरे इस्लाम और अमीरुल मोमेनीन के बीच कोई अंतर नहीं है...एक अट्ठारह साल की महिला, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की उम्र इतनी थी, अध्यात्म और आत्मज्ञान के इतने ऊंचे दर्जे, ऐसी हिकमत, ऐसी स्पीच और राजनैतिक और सामाजिक मामलों की ऐसी समीक्षा और भविष्य पर इतनी गहरी नज़र और अपने समय के सबसे अहम मुद्दों का सामना करने की सलाहियत पर पहुंची हुयी हैं।(29 नवम्बर 1993) इसलिए निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) का वास्तव में एक रहनुमा का रोल है। (19 मार्च 2017)

 

संघर्ष में पिता और शौहर का सपोर्ट करना

परिवार के परिवेश में और महिला के जेहाद के लेहाज़ से, मिसाल के तौर पर शेबे अबी तालिब के वाक़ए में, इस बेटी ने पैग़म्बरे इस्लाम के लिए नजात के फ़िरश्ते की तरह, अपने पिता के लिए एक माँ की तरह, उस महान इंसान के लिए एक महान नर्स की तरह मुश्किलों को बर्दाश्त किया और पैग़म्बरे इस्लाम के दुख में शरीक रहीं।(16 दिसम्बर 1992)

उसके बाद जनाब अबू तालिब और जनाब ख़दीजा के निधन के बाद, पैग़म्बरे इस्लाम अकेले हैं, फ़ातेमा ज़हरा, कुछ साल की यह बेटी...अकेली ऐसी शख़्स हैं कि इतना महान पैग़म्बर उन पर भरोसा करता है... फ़ातेमा अपने पिता की माँ हैं इस बात का संबंध इस स्थिति से है।(20 सितम्बर 1994) उसके बाद जब एक आयत नाज़िल हुयी जिसमें मुसलमानों के लिए यह फ़र्ज़ कर दिया गया कि वे पैग़म्बरे इस्लाम को ऐ अल्लाह के रसूल से ख़ेताब किया करें, जब पैग़म्बरे इस्लाम घर में पहुंचे तो हज़रत ज़हरा ने कहा ऐ अल्लाह के रसूल आप पर सलाम हो, तो पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें गले लगाया और कहा इसका तुमसे संबंध नहीं है, तुम मुझे ऐ पिता कहकर ख़ेताब करो, मेरे दिल को सुकून मिलता है, यह मुझे अच्छा लगता है; पैग़म्बरे इस्लाम के निकट हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) इतनी महबूब हैं।(12 मार्च 1985) शौहर के संबंध में, कोई ऐसा साल नहीं था, बल्कि कोई छमाही नहीं गुज़री कि उनके शौहर ने अल्लाह की राह में जेहाद न किया हो और जंग के मैदान में न गए हों और इस महान व बलिदानी महिला ने एक मुजाहिद, एक सिपाही और जंग के मैदान के स्थायी कमांडर की शान के योग्य बीवी का रोल न निभाया हो।(16 जनवरी 1990)

अमीरुल मोमेनीन ने हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के बारे में फ़रमाया, इस महिला ने पूरे दांपत्य जीवन में एक बार भी मुझे ग़ुस्सा नहीं दिलाया और एक बार भी मेरे हुक्म की नाफ़रमानी नहीं की। इतनी महानता के बावजदू हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा घर में एक बीवी और एक महिला का किरदार अंजाम देती हैं।(16 दिसम्बर 1992)

लोगों को सादा जीवन गुज़ारने की व्यवहारिक तौर पर शिक्षा

हज़रत ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) के जेहाद की एक मिसाल, यह है कि उन्होंने अपने व्यवहार से समाज की तरबियत की। मिसाल के तौर पर जिन हालात में सूरए हल अता नाज़िल हुआ, उस दौरान, उन्होंने अपनी और घर वालों की भूख पर सब्र किया और अनाथ, ग़रीब और क़ैदी की मदद की।(15 फ़रवरी 2020) और समाज का ध्यान इन अर्थों की ओर मोड़ा। इसी तरह जब फ़तह और ग़नीमत (जंग जीतने पर मिलने वाले माल) का रास्ता खुलता है, पैग़म्बर की बेटी दुनिया के आनंद, विशेष व्यवहार, तड़क भड़क, और ऐसी चीज़ों को कि जिनकी ओर जवान लड़कियां और औरतें झुकती हैं, अपने दिल में जगह नहीं देतीं।(16 दिसम्बर 1992)

 

फ़ातेमा, इस्लाम के मद्देनज़र इंसान के लिए आदर्श

ये सब हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) की ख़ुसूसियतें हैं। हमें चाहिए कि इन ख़ुसूसियतों को आदर्श के तौर पर, नमूने के तौर पर अपने सामने रखें और उसे अपनाने की कोशिश करें।(30 मार्च 2016) उन्हें आदर्श क़रार देने का मतलब यह है कि हम भी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के रास्ते पर चलें, हमें भी दूसरों को माफ़ करना चाहिए, बलिदान देना चाहिए, अल्लाह की इताअत करनी चाहिए, उसकी इबादत करनी चाहिए...हक़ को फैलाने के लिए हर हालत में कोशिश करनी चाहिए। किसी से डरना नहीं चाहिए। क्या हम यह नहीं कहते कि वे अकेले अपने समय के विशाल समाज के मुक़ाबले में डट गयीं? (26 दिसम्बर 1991) इसलिए, हज़रत ज़हरा की राजनैतिक, सामाजिक और जेहाद के लेहाज़ से एक नुमायां और अहम शख़्सियत है; ऐसी कि सभी संघर्षशील, इंक़ेलाबी, असाधारण और राजनैतिक महिलाएं उनसे सीख ले सकती हैं।(16 जनवरी 1990) अंतिम बिंदु यह कि इस्लाम की इस महान महिला की ज़िंदगी यह बताती है कि एक मुसलमान महिला, शिक्षा, इबादत, दांपत्य जीवन और बच्चों की तरबियत के साथ साथ राजनीति और रोज़ी रोटी कमाने के मैदान में उतरने, सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर रोल निभाने के लिए हज़रत फ़ातेमा ज़हरा को अपना आदर्श बना सकती है।(8 दिसम्बर 1993)