इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की वेबसाइट Khamenei.ir ने लेबनान के लेखक और राजनैतिक टीकाकार तारिक़ तरशीशी से एक इंटरव्यू किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ज़ायोनी अधिकारी, सन 1948 से ही पूरे फ़िलिस्तीन पर नाजायज़ क़ब्ज़े और ग्रेटर इस्राईल के गठन की कोशिश करते रहे हैं। उनका कहना है कि "टू स्टेट सोल्युशन" सिर्फ़ एक राजनैतिक वहम है और फ़िलिस्तीनी क़ौम को उसके अधिकार दिलाने और मक़बूज़ा इलाक़ों की आज़ादी का सिर्फ़ एक रास्ता है और वह है सशस्त्र रेज़िस्टेंस। इस इंटरव्यू के अहम हिस्से पेश किए जा रहे हैं।
सवालः बिनयामिन नेतनयाहू सहित ज़ायोनी अधिकारियों का राजनैतिक स्टैंडे यह ज़ाहिर करता है, जैसा कि हाल ही में नेतनयाहू ने कहा था कि उन्होंने एक आज़ाद फ़िलिस्तीनी स्टेट के गठन के समझौते को नहीं माना है, तेल अविव व्यवहारिक तौर पर "टू स्टेट सोल्युशन" पर यक़ीन नहीं रखता। इस स्टैंड के मद्देनज़र टू स्टेट सोल्युशन किस हद तक मुमकिन है?
जवाबः सन 1948 में जब से ज़ायोनी स्टेट वजूद में आया है, तभी से वह पूरे फ़िलिस्तीन पर नाजायज़ क़ब्ज़े की बुनियाद पर गठित हुआ है। उस तारीख़ से लेकर आज तक तेल अविव के शब्दकोष में "फ़िलिस्तीनी स्टेट" नाम की कोई चीज़ नहीं रही है। इसीलिए इस सरकार के नेता, चाहे वे अतीत के हों या मौजूदा, झूठ, धोखा और धोखे की नीति अपनाते चले आए हैं ताकि पहले चरण में "सी टू रीवर" तक "यहूदी इस्राईली स्टेट" को क़ायम किया जाए और फिर उस योजना को जिसे वे "ग्रेटर इस्राईल" कहते हैं, आगे बढ़ाया जाए। यह इस्राईल लेबनान, सीरिया, जॉर्डन, इराक़, कुवैत और अरब प्रायद्वीप के उत्तरी भाग (यानी उत्तरी सऊदी अरब) पर आधारित होगा। ज़ायोनी अपनी तौरैती सोच के साथ इन सभी इलाक़ों को "ऐतिहासिक इस्राईल" का हिस्सा समझते है। इसलिए इस्राईल की ओर से फ़िलिस्तीनी स्टेट के गठन सहित किसी भी हल को क़ुबूल किए जाने पर भरोसा नहीं किया जा सकता। सन 1967 से अब तक इस्राईल की ओर से छेड़ी गयी ग़ज़ा की जंग और दूसरी जंगों सहित सभी जंगें, हक़ीक़त में फ़िलिस्तीन को पूरी तरह नक़्शे से मिटाने और जैसा कि मैंने कहा, "फ़्राम सी टू रीवर" पूरी तरह यहूदी सरकार के गठन की कोशिश के तहत की गयीं।
नेतनयाहू और सभी दुश्मन ज़ायोनी नेताओं के बयान, चाहे अतीत में हों या इस वक़्त हों, हरगिज़ एक फ़िलिस्तीनी स्टेट को मानने का संकेत नहीं देते। यहाँ तक कि ओस्लो समझौते में भी जिस पर पीएलओ के साथ दस्तख़त हुए, यह ज़ाहिर हो गया कि वह सिर्फ़ वक़्त बर्बाद करना और धोखा देना चाहते थे। इसकी साफ़ वजह यह है कि ओस्लो समझौते के सिर्फ़ एक छोटे से हिस्से पर अमल हुआ क्योंकि वेस्ट बैंक में "स्वशासित फ़िलिस्तीनी प्रशासन" को दिए गए अधिकार सिर्फ़ दिखावे के और ज़बान से कहने के लिए थे, जबकि व्यवहारिक तौर पर अब भी वेस्ट बैंक पर इस्राईल का कंट्रोल है। इसके अलावा, हाल ही में ज़ायोनी संसद में वेस्ट बैंक को इस्राईल में मिलाने का फ़ैसला किया गया, ख़ास तौर पर इस वक़्त वहाँ ज़ायोनियों को बसाने का काम इतना बढ़ चुका है कि अब वेस्ट बैंक के लिए ओस्लो समझौते में निर्धारित फ़िलिस्तीनी स्टेट का बनना नामुमकिन है, जिसमें ग़ज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक शामिल हैं।
इस वक़्त एक योजना पर मूल रूप से काम हो रहा है जिसका लक्ष्य वेस्ट बैंक में रह रहे लोगों को ज़बरदस्ती जॉर्डन की ओर, अलजलील के अरबों या फ़िलिस्तीनियों को लेबनान और सीरिया की ओर और दूसरे मुल्कों की ओर और ग़ज़ा पट्टी के लोगों को मिस्र और दूसरे इलाक़ों की ओर जिलावतन करना है। तो तेल अविव से यह उम्मीद रखना कि वह इस्राईली सरकार के बग़ल में एक फ़िलिस्तीनी स्टेट के गठन को मानेगा, एक निरर्थक उम्मीद है।
सवालः क्या "टू स्टेट सोल्युशन" व्यवहारिक तौर पर नाजायज़ क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ सशस्त्र प्रतिरोध को मुख्य विकल्प के तौर पर मान्यता देता है या उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी करता है? अगर "टू स्टेट सोल्युशन" में सशस्त्र रेज़िस्टेंस के विकल्प की ख़िलाफ़वर्ज़ी हो तो फ़िलिस्तीन के विषय पर व्यवहारिक तौर पर क्या प्रभाव पड़ सकते हैं?
जवाबः "टू स्टेट सोल्युशन", एक अस्थिर और कमज़ोर बुनियाद है, क्योंकि कोई भी अक़्लमंद इंसान इस बात पर यक़ीन नहीं कर सकता कि फ़िलिस्तीनी अपनी सरकार क़ायम कर सकते हैं जबकि यह सरकार दो अलग थलग हिस्सों वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पट्टी पर आधारित हो और इन दोनों हिस्सों के दरमियान कोई भौगोलिक संपर्क न हो। ऐसे हल का व्यवहारिक हो पाना मुश्किल है और फ़र्ज़ करें कि इस पर अमल भी हो जाए तो वेस्ट बैंक एक तरह से उस इलाक़े में एक नगरपालिका बन कर रह जाएगा जिसे इस्राईल ने हथिया रखा है और इसी तरह ग़ज़ा पट्टी में इसी ढांचे के तरह एक प्रांत या नगरपालिका होगी। ऐसी सरकार का स्वरूप बहुत कमज़ोर होगा, न उसमें मज़बूती होगी और न ही उसमें फ़िलिस्तीनी आज़ाद तौर पर अपने मामलों को संभाल सकेंगे।
जी हाँ, रेज़िस्टेंस का रास्ता बाक़ी रहेगा, जब तक फ़िलिस्तीनियों का अपना कोई स्टेट नहीं है और जब तक अपनी मक़बूज़ा सरज़मीन यानी ऐतिहासिक फ़िलिस्तीन, वापस लोने की उनकी इच्छा बाक़ी है, रेज़िस्टेंस का रास्ता बाक़ी रहेगा, जैसा कि अतीत में था, आज भी है और आगे भी रहेगा। फ़िलिस्तीन की नस्लें रेज़िस्टेंस की सोच और एक आज़ाद स्वाधीन स्टेट की स्थापना और फ़िलिस्तीन की आज़ादी के लक्ष्य के साथ परवान चढ़ी हैं और यह रेज़िस्टेंस जारी रहेगा। भविष्य में, यह मसला स्पष्ट हो जाएगा। फ़िलिस्तीनी क़ौम पर जो क़त्ल, लूटमार, दरबदरी, पीड़ाएं और विनाश थोपा गया है, उस ने न तो रेज़िस्टेंस की चिंगारी को कम किया है और न ही उसकी आत्मा को इन लोगों के दिलों से ख़त्म किया है। वे ज़ायोनी क़ाबिज़ों से फ़िलिस्तीनी इलाक़ों की आज़ादी के लक्ष्य और इच्छा को अपने मन और दिल में संजोए हुए ज़िंदा रखेंगे।
सवालः कुछ राजनैतिक टीकाकारों और समीक्षकों का ख़याल है कि फ़्रांस सहित कुछ पश्चिमी मुल्कों की ओर से "टू स्टेट सोल्युशन" को व्यवहारिक बनाने की कोशिश, इलाक़े में ज़ायोनी सरकार से संबंध बहाली के दायरे को व्यापक करने के रास्ते को समतल करने के लिए है। इन वाक़यों के आपसी संबंध के बारे में आपकी क्या समीक्षा है?
जवाबः इस्राईल के साथ क्षेत्र के मुल्कों के संबंध को तेज़ी से सामान्य बनाने की फ़्रांस और दूसरे पश्चिमी मुल्कों की कोशिशों के बारे में कहा जा सकता है कि वे ख़ास तौर पर अमरीका समझता है कि अगर "टू स्टेट सोल्युशन" व्यवहारिक हो जाता है, हालांकि मेरे ख़याल में यह नामुमकिन है, लेकिन फ़र्ज़ कर लिया जाए कि व्यवहारिक हो जाता है, तो यह हल बहुत से अरब मुल्कों को मजबूर कर देगा कि वे "फ़िलिस्तीन के मसले के हल के लिए कोई उपाय निकालने" के नाम पर इस्राईल के साथ अपने संबंध को खुल्लम खुल्ला सामान्य कर लें। फ़िलिस्तीन का मसला सन 1948 से जटिल मसला बना हुआ है जिसका इलाक़े को सामना है लेकिन इस्राईल सभी अरब मुल्कों यहाँ तक कि ग़ैर अरब मुल्कों और क्षेत्र की सरकारों के साथ संबंध सामान्य करने की कोशिश कर रहा है क्योंकि वह चाहता है कि वह अपने पड़ोसियों में एक मान्य सरकार बन जाए। यही वह लक्ष्य है जिसे हासिल करने के लिए इस्राईल अपने गठन के वक़्त से ही कोशिश कर रहा है।
ज़ायोनी सरकार के गठन के बाद, एक दिन बेन गोरियन अपने सलाहकार मूशे शार्ट के साथ बैठा हुआ था, जो बाद में उसका विदेश मंत्री बना और बिन गोरियन के बाद दो साल तक सरकार का अध्यक्ष रहा। बेन गोरियन सत्ता से दो साल तक दूर रहकर आराम करना चाहता था, इसीलिए मूसे शार्ट दो साल तक प्रधान मंत्री बना रहा यहाँ तक कि बेन गोरियन फिर सत्ता में वापस आ गया। उस बैठक में, बेन गोरियन ने मूशे शार्ट से कहा, "हम ने यह सरकार तो बना ली है लेकिन एक ऐसे इलाक़े में जिस में उसके दुश्मन भरे हुए हैं, यह सरकार किस तरह क़ायम रह पाएगी?" मूसे शार्ट ने कहा कि हमें इस्राईल के पड़ोस के तीन अरब मुल्कों को बांटना होगा और उन्हें क़बालयी स्टेट में बदलना होगा ताकि वे एक दूसरे के साथ मज़हबी और क़बायली टकराव में उलझे रहें। शार्ट ने उससे कहा, "हम मिस्र को तीन मुल्कों में बांटेंगे, एक ईसाई स्टेट के तौर पर उत्तरी मिस्र यानी इलेक्ज़ैन्डरिया वग़ैरह, एक सुन्नी सरकार के तौर पर मिस्र का मध्य भाग यानी नील से सीना और ग़ज़ा पट्टी की सरहद तक और एक नौबी (1) स्टेट के तौर पर दक्षिणी मिस्र जो किसी तरह सूडान से जुड़ जाए।" सीरिया के बारे में मूशे शार्ट ने कहा, "हम इसे तीन या चार मुल्कों में बांटेंगे, अलवी, कुर्द, सुन्नी और दुरूज़ी और इसी तरह इराक़ को भी कुर्द, सुन्नी और शिया जैसे तीन मुल्कों में बांटेंगे।" उसने इस काम की व्याख्या करते हुए कहा कि, "इस तरह हम इन मुल्कों के बीच मुद्दों को जन्म देंगे ताकि वे एक दूसरे के साथ क़बायली और मज़हबी टकराव में लगे रहें। इस स्थिति में, इस्राईल सुरक्षित रहेगा और किसी के पास भी उस पर हमला करने या यहाँ से यहूदियों को निकालने की ताक़त नहीं होगी।"
हक़ीक़त में अगर हम ग़ौर से देखें कि इस वक़्त क्षेत्र में क्या हो रहा है, ख़ास तौर पर, "अलअक़्सा फ़्लड आप्रेशन" और लेबनान, इस्लामी गणराज्य ईरान और यमन के ख़िलाफ़ जंग के बाद, तो हम साफ़ तौर पर समझ सकते हैं कि जायोनी सरकार और उसके नेता एक ऐसी योजना को लागू करने की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं कि जिसका लक्ष्य इस्राईल के चारों ओर के क्षेत्र को सांप्रदायिक सरकारों में बांटना है जो आपस में एक दूसरे से उलझी हुयी हों। मेरे ख़याल में अगर यह योजना व्यवहारिक हो जाती है या अगर इस्राईल और अमरीका, अरब और इस्लामी मुल्कों पर यह साज़िश थोपने में सफल हो जाते हैं तो, "ग्रेटर इस्राईल" के गठन का रास्ता समतल हो जाएगा। यह वही चीज़ है जिसका नक़्शा नेतनयाहू ने क़रीब दो महीने पहले पेश किया था और जैसा कि मैंने पहले कहा, यह "ग्रेटर इस्राईल" लेबनान, सीरिया, इराक़, कुवैत, जॉर्डन और सऊदी अरब केउत्तरी भाग और सीना प्रायद्वीप पर आधारित होगा।
बहरहाल वेस्ट बैंक में हर क़िस्म के वाक़ये की संभावना मौजूद है, ख़ास तौर पर अमरीकी और ज़ायोनी साज़िशों के क्रम और "वेस्ट एशिया का नक़्शा बदलने" की तेल अविव और वॉशिंग्टन की बातों के मद्देनज़र। इस बदलाव का मतलब एक नए वेस्ट एशिया का गठन है जो पूरी तरह उनके कंट्रोल में होगा। अगरचे ज़ाहिरी तौर पर सरकार स्थानीय लोगों के हाथों में होगी लेकिन हक़ीक़त में यह सिस्टम अमरीका और इस्राईल के दबाव और उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ काम करेंगे।
(1) नौबा के इलाक़े की ओर इशारा जो मिस्र के दक्षिण में नील नदी का विशाल तटीय इलाक़ा है।