इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 22 अक्तूबर 2025 को आयतुल्लाह मीरज़ा मोहम्मद हुसैन नाईनी को श्रद्धांजलि पेश करने की कान्फ़्रेंस के प्रबंधकों से मुलाक़ात में आयतुल्लाह नाईनी की इल्मी शख़्सियत के अहम पहलुओं पर रौशनी डाली।
ख़ेताब इस प्रकार हैः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम (1)
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल पर ख़ास कर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
मीरज़ा नाईनी की शख़्सियत के अनेक पहलुओं की समीक्षा की ज़रूरत
क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केन्द्र का एक बहुत पसंदीदा काम, यही श्रद्धांजलि कॉन्फ़्रेंस है जिसकी वाक़ई ज़रूरत महसूस होती थी। मरहूम जनाब नाईनी एक ज़माने में नजफ़ का इल्मी माहौल उनके विचार और नज़रिए से भरा हुआ था लेकिन फिर वह इल्मी काम, विचार और शोहरत के मैदान में गुमनाम होकर रह गए और उन पर कम ध्यान दिया गया, लेकिन क़ुम में ऐसा नहीं हुआ। हम ने ख़ुद देखा कि क़ुम की बड़ी हस्तियां उनकी तारीफ़ करती थीं, उन्हें श्रद्धांजलि पेश करती थीं और उनके शिष्य तो नजफ़ में वरिष्ठ धर्मगुरूओं के स्तर के थे लेकिन ख़ुद जनाब नाईनी (रहमतुल्लाह अलैह) अपनी इन ख़ुसूसियतों के बावजूद किसी हद तक गुमनाम रहे और उन पर कम ध्यान दिया गया। अब आप उनको सामने ला रहे हैं। इंशाअल्लाह उनके इल्मी, अमली और राजनैतिक पहलू उजागर होंगे।
नजफ़ के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में मीरज़ा नाईनी का ऊंचा मुक़ाम
इस बात में शक नहीं कि मरहूम जनाब नाईनी नजफ़ के पुराने ज़माने से चले आ रहे धार्मिक शिक्षा केन्द्र के ऊंचे स्तंभों में से एक हैं। निःसंदेह नजफ़ का धार्मिक शिक्षा केन्द्र जिसकी उम्र 1000 साल से ज़्यादा है, उतार चढ़ाव से गुज़रता रहा है। हिल्ला और दूसरी जगहों के विपरीत, लेकिन क़रीब दो सदियों से भी पहले, यानी मरहूम जनाब बाक़िर बहबहानी के शिष्यों के ज़माने से, जैसे मरहूम बहरुल उलूम और मरहूम काशेफ़ुल ग़िता जो नजफ़ में थे, ख़ुद मरहूम बहबहानी कर्बला में रहते थे लेकिन उनके इस महान शिष्य, इन मशहूर शिष्यों का इल्मी केन्द्र, नजफ़ था, उस वक़्त से नजफ़ के धार्मिक शिक्षा केन्द्र को एक नई ज़िंदगी मिली और उसे इल्मी प्रेरणा मिली और कुछ ऐसी शख़्सियतों की तरबियत की जो फ़िक़्ह और उसूले फ़िक़्ह के हमारे इतिहास में अद्वितीय हैं या उनके जैसे बहुत ढूंढने से ही मिलेंगे, जैसे शैख़ मुर्तज़ा अंसारी, मरहूम साहिबे जवाहिर (2) या मरहूम आख़ुंद (3) और इसी तरह दूसरे धर्मगुरू। ये हस्तियां यानी मरहूम नाईनी, इस स्तर की शख़्सियत हैं, यानी उन बरसों की प्रतिष्ठित व नुमायां हस्तियों में से हैं।
बुनियादी ढांचा तैयार करना और इनोवेटिव तरीक़े से शिक्षा देना, मीरज़ा नाईनी की अहम ख़ुसूसियत
उनकी महारत का पहलू यानी फ़िक़ह (ज्यूरिसप्रूडेंस) और उसूले फ़िक़्ह में उनकी जो अहम ख़ुसूसियत है वह बुनियादी ख़ाका तैयार करने की है। यानी वह उसूले फ़िक़्ह की बुनियादी बातों को एक नए ख़ाके, नई सोच और नए क्रम के साथ और हर विषय के बारे में कुछ भूमिका के साथ पेश करते हैं। यह तरीक़ा उनसे पहले के वरिष्ठ धर्मगुरुओं और उसूले फ़िक़्ह के विद्वानों की किताबों में कम ही देखने में आया है, यानी मुझे कोई ऐसा याद नहीं आता जिसने इतने व्यवस्थित अंदाज़ में बातें पेश की हों। मिसाल के तौर पर जब वह किसी मसले पर बात शुरू करते हैं तो उसे कुछ प्रस्तावना के साथ, एक ख़ास क्रम के साथ और व्यवस्थित अंदाज़ में आगे बढ़ाते और पूरा करते हैं, यानी पूरी तरह स्पष्ट अंदाज़ से। शायद शिष्यों और बड़े बड़े विद्वानों की एक बड़ी तादाद के उनकी क्लास की तरफ़ खिंचे चले आने की एक वजह कि निःसंदेह मरहूम आख़ुंद के बाद नजफ़ की यह सबसे आला दर्जे की क्लास थी, उनकी बौद्धिक विधि, इल्मी गहराई और प्रवाहित बयान है। अगरचे वह नजफ़ में उसूले फ़िक़्ह की क्लास फ़ारसी भाषा में लेते थे, हालांकि नजफ़ के माहौल में सभी क्लासेज़ अरबी भाषा में होती थीं, लेकिन वे फ़ारसी में क्लास लेते थे मगर इसके बावजूद बड़ी तादाद में अरब स्टूडेंट्स उनकी क्लास में शरीक होते थे। मुझे ख़ुद तो देखने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन मैंने सुना है कि मरहूम जनाब शैख़ हुसैन हिल्ली (रहमतुल्लाह अलैह) जो शुद्ध अरब थे, उसूले फ़िक़्ह को फ़ारसी भाषा में पढ़ाते थे क्योंकि उन्होंने अपने उस्ताद से यह शिक्षा फ़ारसी भाषा में हासिल की थी! मतलब यह कि उनके वजूद में बयान करने का अनोखा अंदाज़ और स्पष्ट विचार थे।
इस बात में शक नहीं कि उसूले फ़िक्ह के मूल उसूलों में उनकी मौलिकता असाधारण और बहुत ज़्यादा हैं। उसूले फ़िक़्ह के विषय में उनकी जो महारतें हैं, वे तादाद के लेहाज़ से बहुत ज़्यादा हैं, चाहे वह मरहूम शैख़ अंसारी के कथन हों जिनकी उन्होंने व्याख्या की और वर्णन किया और चाहे वे बातें हों जो उन्होंने ख़ुद उसूले फ़िक़्ह के मुख़्तलिफ़ मसलों के संबंध में बयान की हैं। यह तमाम बातें इल्मी लेहाज़ से बहस के योग्य हैं। यह एक पहलू हुआ।
नुमायां शिष्यों की तरबियत, मीरज़ा नाईनी की दूसरी अहम ख़ुसूसियत
मेरी नज़र में मरहूम जनाब नाईनी की एक अहम ख़ुसूसियत, शिष्यों की तरबियत है। मैंने इस तरह मिसाल कम ही देखी है। हालिया दौर के मशहूर ओलमा में मरहूम आख़ुंद ख़ुरासानी के बहुत स्टूडेंट्स थे, बहुत अच्छे और नुमायां स्टूडेंट्स थे, तादाद के लेहाज़ से शिष्य नहीं बल्कि अच्छे और नुमायां स्टूडेंट्स की तादाद बहुत थी, मरहूम जनाब नाईनी भी इसी तरह के थे, उनके नुमायां स्टूडेंट्स की तादाद बहुत ज़्यादा है, यानी नुमाया शिष्यों की तरबियत एक अहम बात है। इन बरसों में, जैसा कि मेरे ज़ेहन में है, 1377 हिजरी क़मरी के आस पास, मेरे ख़याल में इस वक़्त नजफ़ में मौजूद क़रीब सभी वरिष्ठ धर्मगुरू उनके शिष्य थे, जैसेः मरहूम आक़ाए खूई, (4) मरहूम आक़ाए हकीम, (5) मरहूम आक़ाए सैयद अब्दुल हादी (6) और दूसरी हस्तियां भी जो उस ज़माने में मौजूद थीं, जैसे मरहूम आक़ा मीरज़ा बाक़िर ज़ंजानी, या आक़ा शैख़ हुसैन हिल्ली, मरहूम आक़ा मीरज़ा हसन बोजनूर्दी वग़ैरह। ये सभी मशहूर हस्तियां आक़ाए नाईनी की शिष्य थीं। अलबत्ता इनमें से कुछ को, शिक्षा हासिल करने के लेहाज़ से दूसरे धर्मगुरूओं का भी शिष्य कहा जाता था, जैसे मरहूम आक़ाए हकीम जो आक़ा ज़िया के भी नुमायां शिष्यों में से हैं, फिर भी इनमें से ज़्यादातर वरिष्ठ धर्मगुरू और हस्तियां मूल रूप से मरहूम आक़ाए नाईनी की शिष्य थीं। स्टूडेंट्स की तरबियत और बड़ी तादाद में नुमायां स्टूडेंट्स, उनकी नुमायां ख़ुसूसियत है। यह उनकी इल्मी सरगर्मियों के बारे में कुछ संक्षेप में बातें थीं।
राजनैतिक विचार और नज़रिए, मीरज़ा नाईनी की एक दूसरी अहम ख़ुसूसियत
उनकी शख़्सियत में एक असाधारण पहलू भी है, जो निकट अतीत के हमारे किसी भी वरिष्ठ धर्मगुरू में नहीं था और इसी तरह पहले के वरिष्ठ धर्मगुरूओं में भी, जहाँ तक मुझे याद है और वह है राजनैतिक सोच। यह "राजनैतिक सोच" है। राजनैतिक सोच, राजनैतिक रुझान से अलग चीज़ है। कुछ धर्मगुरुओं में राजनैतिक रुझान था। मरहूम आख़ुंद ख़ुरासानी, मरहूम शैख़ अब्दुल्लाह माज़ंदरानी और दूसरे बड़े धर्मगुरुओं में राजनैतिक रुझान था। उस ज़माने में तो स्टूडेंट्स में भी राजनैतिक रुझान पाया जाता था। इसकी वजह यह थी कि मिस्र और सीरिया वग़ैरह के अख़बार और मैग्ज़ीन नजफ़ की लाइब्रेरियों में आते थे। उन अख़बारों और मैग्ज़ीनों पर सैयद जमालुद्दीन और मोहम्मद अब्दोह जैसे समाज सुधारकों का प्रभाव था और वे नई बातें पेश करते थे। यह चीज़ मरहूम आक़ा नजफ़ी क़ूचानी अपनी जीवनी में बयान कर चुके हैं, इंसान देखता है कि उस ज़माने में राजनैतिक रुझान रखने वाले स्टूडेंट्स की तादाद काफ़ी थी। धर्मगुरुओं में भी ऐसे लोग थे जिनका राजनैतिक रुझान था लेकिन राजनैतिक रुझान, राजनैतिक दिलचस्पी यहाँ तक कि राजनैतिक बातचीत एक अलग बात है, और राजनैतिक सोच बिल्कुल दूसरी चीज़ है। आक़ाए नाईनी में राजनैतिक सोच थी, वे राजनैतिक सोच रखते थे। उनकी किताब "तंबीहुल उम्मा" वाक़ई मज़लूम किताब है। अल्लाह मरहूम आक़ाए तालेक़ानी पर रहमत नाज़िल फ़रमाए, उन्होंने इस किताब को दोबारा छपवाया वरना इस किताब का पहला एडिशन जिसके बारे में मशहूर है और हमने सुना है कि उसे वापस ले लिया गया था, पुरानी शैली का एडिशन था और उसमें बहुत कमियां थीं। उन्होंने इसे छपवाया, इस पर हाशिए लगाए और ऐसे ही दूसरे काम किए लेकिन इस किताब की ओर से अब भी लोग ग़ाफ़िल हैं जबकि यह एक अहम किताब है। अब मैं इस किताब में पेश किए गए उनके विचारों पर संक्षेप में कुछ बातें पेश करुंगा।
मीरज़ा नाईनी के राजनैतिक विचारः
पहली बात तो यह कि वह इस्लामी सरकार की स्थापना के क़ायल हैं, यह अपनी जगह ख़ुद एक स्वाधीन सोच है कि इस्लामी सरकार का गठन होना चाहिए। अलबत्ता वह सरकार के स्वरूप को निर्धारित नहीं करते लेकिन इस बात को कि इस्लामी सरकार का गठन होना चाहिए, वह अपनी किताब "तंबीहुल उम्मा" में साफ़ तौर पर बयान करते हैं। यह एक बहुत ही अहम बिंदु है।
दूसरी बात यह कि उस इस्लामी सरकार का केन्द्रीय बिंदु "विलायत" का विषय है। वह उसे "विलायत पर आधारित सरकार" कहते हैं जो "ज़ालिम हुकूमत" के मुक़ाबले में है। मुझे लगता है कि उन्होंने ज़ालिम सरकार के मुक़ाबले में इसी तरह की शब्दावली इस्तेमाल की है, वह"ज़ालिम हुकूमत" के मुक़ाबले में "विलायत पर आधारित हुकूमत", इस्लामी विलायत पर आधारित हुकूमत को बयान करते हैं। यानी सरकार का स्वरूप, उसकी बुनियाद और उसका केन्द्र "विलायत" है। यह बहुत अहम बात है जिस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। उन्होंने इसको साफ़ तौर पर बयान किया है। यह अगला बिंदु था।
विधायिका की तरफ़ से "धर्मगुरुओं द्वारा की गयी ताईद की बुनियाद पर" अधिकारियों पर राष्ट्रीय निगरानी
दूसरी अहम बात "राष्ट्रीय निगरानी" का विषय है। उनका मानना था कि सरकार की निगरानी होनी चाहिए; सभी अधिकारी जवाबदेह हैं और उनकी निगरानी होनी चाहिए। अब उनकी निगरानी कौन करे? उनकी शब्दावली में "मजलिसे मबऊसान" यानी क़ानून बनाने वाली असेंबली। स्वाभाविक तौर पर "मजलिसे मबऊसान" मिसाल के तौर पर संसद या इस जैसी कोई चीज़ है। "मजलिसे मबऊसान" को कौन बनाता है? आम लोग। यानी अवाम जाकर वोट डालते हैं और "मजलिसे मबऊसान" (संसद) वजूद में आती है। फिल "मजलिसे मबऊसान" क़ानून बनाती है लेकिन उस क़ानून की तब तक कोई हैसियत नहीं होती जब तक नुमायां धर्मगुरू उसकी ताईद नहीं करते। यानी "गार्डियन काउंसिल"। वह इस तरह बयान करते हैं। वह साफ़ तौर पर कहते हैं कि "मजलिसे मबऊसान" के क़ानून की कोई हैसियत नहीं है जब तक कि धर्मगुरू और इस्लामी फ़क़ीह उसकी ताईद न कर दें।
अवाम द्वारा चुने गए सांसद
तो अवाम को इस "मजलिसे मबऊसान" को चुनना चाहिए। वे कहते हैं कि अवाम के लिए चुनाव में शरीक होना वाजिब है, इसलिए कि यह एक वाजिब काम की भूमिका है। वह "वाजिब की भूमिका" का यह विचार पेश करते हैं और कहते हैं कि चूंकि यह एक वाजिब काम की भूमिका है, इसलिए यह चुनाव भी वाजिब हैं और वह भलाई का हुक्म देने, बुराई से रोकने, आत्मविश्लेषण और संपूर्ण ज़िम्मेदारी जैसे उसूलों पर बल देते हैं।
मीरज़ा नाईनी के राजनैतिक विचार की बुनियाद पर सरकार का ख़ाका
आप ग़ौर करें कि वह एक सरकार का ख़ाका पेश करते हैं और उसे राजनैतिक विचार के तौर पर पेश करते हैं। एक यह कि यह एक सरकार है, एक सत्ता है। दूसरे यह कि इसका स्रोत अवम हैं, इसे अवाम चुनते हैं। तीसरे यह कि यह धार्मिक विचारों और अल्लाह और शरीअत के हुक्म के मुताबिक़ है, यानी इनके बिना उसका कोई अर्थ नहीं है। यानी यह एक इस्लामी और अवामी सरकार है। अगर आज के दौर में प्रचलित शब्दावली में उस इस्लामी और अवामी सरकार को बयान किया जाए तो वह "इस्लामी गणराज्य" कहलाएगा। "जुमहूरी" का मतलब है अवाम की तरफ़ से और "इस्लामी" का मतलब है इस्लाम पर आधारित। अलबत्ता वे ख़ुद इस तरह की शब्दावली के क़रीब नहीं जाते और इस तरह बयान नहीं करते, लेकिन उनका कहना और उनका मंतव्य यह हैः एक सरकार क़ायम हो जो कुछ धर्म पर अमल करने वालों, नेक और मोमिन लोगों पर आधारित हो, जिसे अवाम चुनें और जिस पर अवाम की कड़ी निगरानी हो। इस में हर विभाग के ज़िम्मेदार नियुक्त किए जाते हैं जो जवाबदेह होते हैं और उन्हें सवालों के जवाब देने होते हैं और उन चुने हुए प्रतिनिधियों को क़ानून भी बनाना होता है और यह क़ानून धर्मगुरुओं की ताईद के बिना कोई एतबार नहीं रखता। यह उनके विचार हैं। यह एक बहुत अहम मसला है।
मीरज़ा नाईनी के फ़िक़्ह पर आधारित राजनैतिक विचारों की ओर से ग़फ़लत
हम महान आक़ाए नाईनी के बयान पढ़ते हैं, उनसे फ़ायदा उठाते हैं, उन्हें सीखते हैं और सिखाते हैं, लेकिन फ़िक़्ह से संबंधित उनकी बुनियादी बातों पर ध्यान नहीं देते। और सबसे हैरत की बात यह है कि वह सिर्फ़ भाषण नहीं देते बल्कि फ़िक़्ह के आधार पर बहस करते हैं। यानी हमने जो कुछ बयान किया है, वे इन सभी बातों को फ़िक़्ह के आधार पर पेश करते हैं, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह एक फ़िक़्ह का माहिर बात करता है। वह इस तरह इन मसलों को बयान करते हैं, साबित करते हैं, उसी सोच विचार के साथ, ध्यान और एहतियात के साथ जिस बारीकी को फ़िक़्ह का माहिर मद्देनज़र रखता है। जैसे टेक्स्ट की प्रमाणिकताओं, धार्मिक स्रोतों के साथ साथ प्रचलित तौर तरीक़ों को मद्देनज़र रखना होता है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह फ़िक़्ह में प्रचलित और रायज है, वस इस तरीक़े से इस मामले में भी चलते हैं।
मेरे ख़याल में यह एक अपवाद मिसाल है। हमारे धर्मगुरुओं में हम कोई ऐसी शख़्सियत नहीं पाते जो इस तरह की हो। मरहूम आक़ाए आख़ुंद ने भी इस किताब पर अपनी टिप्पणी की है और इसकी पूरी तरह ताईद की है। आख़ुंद कोई मामूली हस्ती नहीं हैं और उन्होंने इस किताब की पूरी तरह ताईद की है। मेरे विचार में उन्होंने यह किताब पढ़ी थी और उससे फ़ायदा उठाया था, वे इस किताब से सीधे तौर पर फ़ायदा उठाते हैं। किताब "तंबीहुल उम्मह" मेरे ख़याल में बहुत अहम किताब है। ख़ैर ये थीं उनकी ख़ुसूसियतें।
ब्रिटिश संवैधानिक क्रांति का मुक़ाबला करने के लिए आयतुल्लाह नाईनी ने ख़ुद अपने हाथों अपनी किताब वापल ले ली
अब बात आती है उन लोगों की जिनकी वजह से इस किताब को वापस ले लिया गया। यह काम हुआ है। अफ़वाहों से हटकर, हमने नजफ़ में रह चुके बुज़ुर्गों और अपने मरहूम वालिद के दोस्तों से जो नजफ़ में पढ़ चुके थे, जिनका वहाँ आना जाना था, सुना था कि वे बड़ी मुश्किलों से इस किताब को वापस जमा करते थे, जिसके पास भी होती थी, उससे ख़रीदते थे। इसकी क्या वजह थी?
यह नादानी की बात होगी कि कोई यह समझे कि इतने महान धर्मगुरू ने जिनकी फ़िक़्ह में हैसियत थी और ठोस तर्क के स्वामी थे, एक किताब लिखी फिर उनकी राय इस क़द्र बदल गयी कि उन्होंने उसे वापस ले लिया! इस बात का काई अर्थ नहीं है। फ़िक़्ह के माहिर धर्मगुरुओं के फ़िक़्ह के संबंध में विचार बदला करते हैं लेकिन किताब को वापस ले लिया तो इसकी कोई और वजह थी। अस्ल वजह यह थी कि नजफ़ में जिस "संवैधानिक क्रांति" का ज़िक्र हुआ था और जिसके लिए मरहूम आख़ुंद, शैख़ अब्दुल्लाह माज़ंदरानी और दूसरे धर्मगुरुओं ने अपनी साख दांव पर लगा दी थी, वह उस "संवैधानिक क्रांति" से बिल्कुल अलग थी जो व्यवहारिक तौर पर ज़ाहिर हुयी। "संवैधानिक क्रांति" का नाम ही नहीं लिया गया था। वह तो हक़ीक़त में एक न्यायपूर्ण सरकार, ज़ुल्म का अंत और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्ष चाहते थे। "संवैधानिक क्रांति" इस जैसी शब्दावली तो अस्ल में अंग्रेज़ों ने प्रचलित की थीं। उन्होंने न सिर्फ़ नाम बदला बल्कि इस आंदोलन को अपने हित में मोड़ लिया।
अंग्रेज़ों ने न सिर्फ़ "संवैधानिक क्रांति" का नाम दिया बल्कि उसका स्वरूप भी ख़ुद तय किया। अब अंग्रेज़ जो काम करें, ज़ाहिर है कि उसका अंजाम क्या होगा। उसके नतीजे में तरह तरह के विवाद और झगड़े पैदा हुए, यहाँ तक कि मामला इस हद तक बिगड़ा कि शैख़ फ़ज़्लुल्लाह नूरी जैसे शख़्स को फांसी दे दी गयी, सैयद अब्दुल्लाह बहबहानी जैसे शख़्स का क़त्ल कर दिया गया और सत्तार ख़ान और बाक़िर ख़ान जैसों को रास्ते हटा दिया गया, सत्तार ख़ान को एक तरीक़े से और बाक़िर ख़ान को दूसरे तरीक़े से।
जब इन वाक़यों की ख़बर नजफ़ पहुंची तो उन (धर्मगुरुओं) को इस वाक़ए (संवैधानिक क्रांति) का सपोर्ट करने पर बहुत पछतावा हुआ। मेरे ख़याल में मरहूम नाईनी भी इसी स्थिति से गुज़रे। उन्होंने देखा कि उनकी यह फ़िक़्ह और ठोस दलीलों पर आधारित किताब हक़ीक़त में ऐसी चीज़ की मदद कर रही है जिसे वह ख़ुद नहीं मानते, बल्कि उसके ख़िलाफ़ उन्हें संघर्ष करना चाहिए और वह थी संवैधानिक क्रांति जिसे अंग्रेज़ों ने ईरान में शुरू किया था, और वह संसद जिसे उन्होंने गठित किया था और वे घटनाएं जो उसके नतीजे में घटीं, जैसे मरहूम शैख़ फ़ज़्लुल्लाह नूरी की शहादत और इसी तरह के दूसरे वाक़ए।
मीरज़ा नाईनी की नैतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक ख़ुसूसियतें
मेरे ख़याल में वह एक महान धर्मगुरू और फ़िक़्ह की असाधारण हस्ती हैं। इल्म के लेहाज़ से उनका स्थान बहुत ऊंचा है। व्यवहारिक ज़िंदगी के लेहाज़ से, जैसा कि बयान किया गया, उनकी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि, उनकी धार्मिक ज़िदंगी और इस तरह के वाक़ए बयान किए जाते हैं। मैंने सुना है, यानी ऐसा कहा जाता है कि उनका मरहूम आख़ुंद मुल्ला हुसैन क़ुली से भी संपर्क था। जब वे सामर्रा से नजफ़ आते तो मरहूम आख़ुंद मुल्ला हुसैन क़ुली की सेवा में हाज़िर होते। मरहूम मुल्ला फ़तह अली से भी, जो ख़ुद सामर्रा में थे, उनके संपर्क थे जो अलग तरह के थे। बहरहाल इन बुज़ुर्गों के साथ उनके इस तरह के संबंध थे। जब वे इस्फ़हान में थे तो मरहूम जहाँगीर ख़ान और दूसरी हस्तियों से भी उनके संबंध थे। बताया जाता है कि उन्होंने जहाँगीर ख़ान से इल्म हासिल किया था, यानी दर्शनशास्त्र वग़ैरह में भी उन्हें महारत थी, वे आध्यात्मिक आदमी थे।
कुछ दिन पहले मैंने कुछ लोगों से सुना, जो कुछ बुज़ुर्गों के हवाले से बयान कर रहे थे कि उनकी "नमाज़े शब" (आधी रात के बाद पढ़ी जाने वाली विशेष नमाज़) बहुत असाधारण थी। मरहूम आक़ा नजफ़ी जो उनके दामाद थे और हमदान में रहते थे और परिवार के सदस्य होने के नाते उन्होंने ख़ुद देखा था, वे कहते हैं कि आक़ाए नाईनी नमाज़े शब किस तरह पढ़ते थे, उनका रोना, उनकी वंदनाएं कैसी होती थीं, इन चीज़ों के वक़्त उनकी हालत कैसी होती थीं। ये बातें भी हैं और ज़ाहिर है कि ये चीज़ें सही रास्ता पाने, उस पर चलने और नतीजे तक पहुंचने में मददगार साबित होती हैं।
हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह आपकी यह बहुत ही दिलचस्प सभा, चाहे क़ुम में हो, नजफ़ में हो, या मशहद में, (कामयाबी से आयोजित होगा।) मशहद में भी आपने अच्छा काम किया है। मरहूम आक़ाए मीलानी ने वाक़ई मशहद में आक़ाए नाईनी का नाम ज़िंदा किया क्योंकि मशहद में जो चीज़ सबसे ज़्यादा प्रचलित थी, वह मरहूम आक़ाज़ादे (मरहूम आख़ुंद के बेटे) की मौजूदगी की वजह से मरहूम आख़ुंद के विचार थे। अलबत्ता बाद में मरहूम मीरज़ा महदी इस्फ़हानी, जो मरहूम मीरज़ा नाईनी के नुमायां शिष्यों में थे, मशहद आए तो उन्होंने आक़ाए नाईनी के विचार बयान किए और आख़ुंद के विचार से ओत पोत माहौल को बदला; नई बातें, नए विचार, नए तर्क।
हमारे मरहूम वालिद ने तो बरसों दोनों की क्लासों यानी आक़ाज़ादे की क्लास भी और मरहूम मीरज़ा महदी की क्लास की, वे कहा करते थे कि जब मीरज़ा मशहद आए तो मशहद का इल्मे उसूल (प्रिंसपल ऑफ़ ज्यूरिसप्रूडेंस) का माहौल जो (मरहूम आख़ुंद के) विचारों से भरा हुआ था, पूरा बदल गया। लेकिन मरहूम मीरज़ा महदी के बाद फिर आक़ाए नाईनी का नाम नहीं रहा। आक़ाए मीलानी मरहूम, आक़ाए नाईनी के विचार बयान करते थे, उन पर चर्चा करते थे, शायद कभी उसमें मौजूद कमियों की ओर भी इशारा करते थे लेकिन ज़्यादातर ताईद करते थे।
बहरहाल आपने अच्छा किया कि मशहद में भी एक शाखा क़ायम की और नजफ़ में तो ज़ाहिर है। हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह, अल्लाह आप सब को कामयाब और सफल करे।
आप सब पर और अल्लाह की रहमत और बरकत हो।