बहुत कम मुद्दत के अंदर पैग़म्बरे इस्लाम के दिल को हज़रत ख़दीजा और हज़रत अबू तालिब की वफ़ात से दो गहरे सदमे पहुंचे। पैग़म्बर को शिद्दत से तनहाई का एहसास हुआ। उन दिनों हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा सहारा बनीं और अपने नन्हें हाथों से पैग़म्बर के चेहरे पर पड़ी दुख और पीड़ा की गर्द हटाई। उम्मे अबीहा यानी अपने वालिद की मां, पैग़म्बर की ढारस बंधाने वाली। यह लक़ब उसी दौर का है।
इमाम ख़ामेनेई
24 नवम्बर 1994