बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ें अल्लाह से विशेष है जो पूरी कायनात का बनाने वाला है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाकीज़ा नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी पर।

आदरणीय भाइयो व बहनो! मुल्क के अहम मामलों में प्रभावी रोल निभाने वाली माननीय हस्तियो! आपका स्वागत है!  न्यायपालिका की ख़ूबियों में एक ख़ूबी यह है कि मुल्क के सबसे अहम मामलों से आपका सरोकार रहता है, आपका रोल इस तरह का है, इंशाअल्लाह, ख़ुदा आपको कामयाब करे, यह एक मौक़ा है, मुझे ख़ुशी है कि इस संक्रामक बीमारी व पैन्डेमिक में अल्लाह की कृपा से थोड़ी कमी आई और यह मौक़ा मिला कि आपसे क़रीब से मुलाक़ात कर सकूं। सबसे पहले तो हम प्रिय शहीद आयतुल्लाह बहिश्ती रहमतुल्लाह अलैह को श्रृद्धांजलि पेश करते हैं। इसी तरह उन सभी शहीदों को जो उनके साथ शहीद हुए और न्यायपालिका के सभी शहीदों को भी श्रृद्धांजलि पेश करते हैं, अल्लाह उन सबके के दर्जे बढ़ाए।

शहीद बहिश्ती रहमतुल्लाह अलैह बहुत अहम हस्ती थे, सच में वह बहुत महान इंसान थे। क्रांति की कामयाबी से पहले के बरसों में, जब वह विदेश से आए और उस वक़्त से उनकी शहादत तक हमने उनके साथ लगातार क़रीब से काम और सहयोग किया। सच में हम देखते थे कि वह एक महान हस्ती थे। जिन संस्थाओं में हम उनके साथ काम करते थे, वहाँ भी ऐसा ही था, क्रांति काउंसिल में, लोगों ने मिल कर आयतुल्लाह तालेक़ानी को इस काउंसिल का अध्यक्ष बनाया लेकिन उन्हीं लोगों की यह राय थी कि इस काउंसिल को एक उपाध्यक्ष की ज़रूरत है और वह उपाध्यक्ष जनाब बहिश्ती थे और उन्हें चुना गया। क्रांति काउंसिल चलाने की ज़िम्मेदारी स्वर्गीय बहिश्ती साहब की थी, यहाँ तक कि स्वर्गीय तालेक़ानी साहब की ज़िन्दगी में भी। शहीद बहिश्ती एक महान हस्ती थे, अल्लाह उनके दर्जे बढ़ाए।

इस मौक़े पर मैं चाहता हूं कि उस वक़्त के हालात पर एक सरसरी नज़र डाली जाए। यह जायज़ा हमारे लिए सीख देने वाला है, रास्ता दिखाने वाला है, उस वक़्त को, 28 जून के हालात को जो 41 साल पहले पैदा हुए, नज़रों के सामने लाना चाहिए। सबसे पहले तो यह कि उन दिनों थोपी गयी जंग सबसे कठिन और बहुत सख़्त दौर में थी। सद्दाम की हुकूमत ने अपने फ़ौजियों को दक्षिण और पश्चिम में हमारे बड़े शहरों के क़रीब तक पहुंचा दिया था। कुछ शहरों पर तो उन्होंने क़ब्ज़ा कर लिया था और अहवाज़, देज़फ़ूल और पश्चिम में मुल्क के कुछ दूसरे शहरों के क़रीब तक सद्दाम के फ़ौजी पहुंच गए थे। सन 1981 के उन्हीं आग़ाज़ के महीनों में, फ़रवरदीन, उर्दीबहिश्त और ख़ुर्दाद  (मार्च, अप्रैल और मई) में, मैं मुल्क के पश्चिमी इलाक़े में थे, मैं भूल नहीं सकता, मतलब यह कि वाक़ई इस वक़्त भी जब मैं आपसे बात कर रहा हूं, तो उस दुख का बोझ अब भी मेरे दिल में हैं जो उस वक़्त माहौल में छाया हुआ था, पश्चिम के पूरे इलाक़े में ग़म के बादल छाए हुए थे। इंसान जहाँ भी जाता था, किरमानशाह के क़रीब बर-आफ़ताब के नाम से मशहूर उन पहाड़ों के किनारे से गाड़ी से किसी जगह जा रहे थे, उस लंबे रास्ते का एक भी चप्पा सुरक्षित नहीं था, हर लम्हा इस बात का डर रहता था कि दुश्मन के तोपख़ाने का कोई गोला या मार्टर गोला वहाँ आ गिर। इस तरह से उन्होंने घेर रखा था, पूरा माहौल दुख में डूबा ता, दुश्मन के फ़ौजी पूरी तरह तैयार और हावी थे, हमारे फ़ौजी तैयार नहीं थे, हमारे पास साधन न होने के समान थे, उनके संसाधन बेहिसाब थे, अहवाज़ में हमारी ब्रिगेड के पास, फ़र्ज कीजिए कि डेढ़ सौ टैंक होने चाहिए थे तो उसके पास बीस या तीस, मुझे सही तादाद याद नहीं है, लेकिन इसी तादाद में टैंक थे, हमारी हालत ऐसी थी। यह तो जंग की बात हुयी।

मुल्क के अंदर के हालात, ख़ुद तेहरान में गृह युद्ध था, तेहरान की इन सड़कों पर गृह युद्ध था, आतंकवादी गुठ एम के ओ के लोगों ने धावा बोल रखा था और उनके हाथ में जो कुछ आता था, कटर से लेकर जो कुछ उनके पास था, उसी से आम लोगों, आईआरजीसी और पुलिस फ़ोर्स पर हमले कर रहे थे, जंग हो रही थी, तेहरान में जंग थी। तो 28 जून के उन दिनों के हालात ऐसे थे।

मुल्क के राजनैतिक हालात ऐसे थे कि 28 जून से क़रीब एक हफ़्त पहले, उस वक़्त के राष्ट्रपति बनी सद्र (2) को संसद अयोग्य ठहरा चुकी थी और उसे उसके पद से हटा दिया गया था। मतलब यह कि मुल्क बिना राष्ट्रपति के था, ऐसी स्थिति थी। ऐसे हालात में मुल्क ने बहिश्ती जैसे स्तंभ को खो दिया, बहिश्ती स्तंभ समान थे, वाक़ई मज़बूत स्तंभ थे। क्रांति के स्तंभ, जो क्रांति को संभाले रखते हैं, उनकी क़द्र व क़ीमत का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, शहीद बहिश्ती उन्ही स्तंभों में से एक थे, ऐसे हालात में शहीद बहिश्ती चले गए।

क़रीब दो महीने के बाद नए राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री – शहीद रजाई और शहीद बाहुनर – को एक साथ एक सभा में शहीद कर दिया गया। ये बातें शायद आप में से बहुत से लोगों को याद होंगी, लेकिन हमारे प्यारे नौजवानों ने ये चीज़ें नहीं देखी हैं, इतिहास और उसकी तफ़सील को वह सही तरह से जानते नहीं, हमारे प्रिय जवानो! प्रिय फ़रज़ंदो! इन बातों पर ग़ौर कीजिए। ऐसे हालात में क़रीब दो महीने के बाद, उस वक़्त के राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री शहीद रजाई और शहीद बाहुनर पर एक सभा में हमला किया गया और वे शहीद हो गए। उसके कुछ ही दिन बाद या उसकी थोड़ी मुद्दत बाद फ़ौज और आईआरजीसी के जंग के कई कमांडर हवाई जहाज़ के हादसे में शहीद हो गए, शहीद फ़लाही, शहीद फ़कूरी, शहीद कुलाहदूज़ वग़ैरह। (3) यानी तीन महीने से भी कम मुद्दत में इतनी सारी कड़वी घटनाएं, इतनी सारी दर्दनाक घटनाएं, इतनी सारी गहरी चोटें! आपकी नज़र में है ऐसा कोई मुल्क और ऐसी कोई हुकूमत जो इस तरह की कड़वी व ख़तरनाक घटनाओं के सामने खड़ी रह सके और ढेर न हो जाए? आप ऐसी व्यवस्था की न्यायपालिका हैं। लोग डट गए, इमाम ख़ुमैनी दमावंद पहाड़ की तरह डट गए, नेकनीयत रखने वाले अधिकारी और क्रांतिकारी जवान डट गए और उन्होंने मुल्क के हालात को 180 डिग्री बदल दिया, जंग में लगातार शिकस्त को, लगातार फ़तह में बदल दिया, एमकेओ को सड़कों से हटाया, फ़ौज और आईआरजीसी को दिन ब दिन सुव्यवस्थित कर दिया गया और मुल्क को सामान्य हालत में ले आए।

इन घटनाओं में एक बिन्दु संयुक्त है और वह यह कि जब ये घटनाएं हो रही थीं, चाहे शहीद बहिश्ती की शहादत हो, चाहे बाद की घटनाएं हों, दुश्मन बहुत ख़ुश हो रहे थे, फूले नहीं समा रहे थे, बहुत उम्मीद लगा रखी थी कि इस क्रांतिकारी व्यवस्था की बिसात पलट गयी, लेकिन उन्हें मायूसी हाथ लगी। उस वक़्त उन्हें  नाउम्मीद होना पड़ा, इन चार दशकों में उन्हें बार बार मायूसी हुई। कभी किसी वक़्त दुश्मन ने इस्लामी जुमहूरिया में किसी चीज़ से, किसी कमज़ोरी से, किसी कमी से आस लगा रखी थी मगर बाद में उसे मायूस होना पड़ा। ऐसा बार-बार हुआ है, लेकिन दुश्मन की मुश्किल यह है कि वह इस मायूसी की वजह नहीं समझ सकता, उसे पहचान नहीं सकता, यह नहीं समझ सकता कि क्यों? इसकी वजह क्या है कि इस्लामी गणराज्य हर बार, इतने ज़्यादा दबाव से बाहर निकल आता है, खड़ा हो जाता है, सीना तान कर डट जाता है, अपना सफ़र जारी रखता है, वह इसे नहीं समझ पाता। ये लोग समझ ही नहीं सके कि इंसानी दुनिया में राजनैतिक तत्वों और कारकों के अलावा कुछ दूसरे तत्व और कारक भी है वजूद रखते हैं, जिन्हें समझने में वे नाकाम हैं, वह अल्लाह की सुन्नत है, मैं इस बारे में संक्षेप में चर्चा करुंगा। 

सुन्नत का मतलब है क़ानून, नियम, भौतिक दुनिया में, इंसानी दुनिया में अल्लाह के कुछ नियम हैं, कुछ क़ानून हैं। “और सूरज अपने निर्धारित ठिकाने की ओर बढ़ रहा है; यह अंदाज़ा उस अल्लाह की ओर से निर्धारित किया गया है जो ग़ालिब और बड़े ज्ञान वाला है। और चाँद के लिए भी मंज़िलें तय कर दी हैं।...(4) यह सब क़ानून ही तो हैं। “न सूरज के बस में है कि चाँद को जा पकड़े”... (5) यह क़ानून हैं, ये क़ानून जारी हैं, लेकिन ये वे क़ानून हैं जो आँखों के सामने हैं। गुरुत्वाकर्षण का नियम, आँखों के सामने मौजूद एक नियम है जिसे सभी समझते हैं लेकिन कुछ ऐसे क़ानून भी हैं जिन्हें सब नहीं समझ सकते। वाक़ई पूरे क़ुरआन में इस तरह के क़ानूनों ज़िक्र है, मिसाल के तौर पर “बेशक अल्लाह मुत्तक़ी इंसानों के साथ है” (6)  “जिसने जेहाद किया अपने लिए जेहाद किया।” (7) और इसी तरह की दूसरी मिसालें जिनमें से कुछ का मैं ज़िक्र करुंगा। यह भी क़ानून हैं। “बात में अल्लाह से ज़्यादा सच्चा कौन है” (8) अल्लाह से ज़्यादा सच्चा कौन है? अल्लाह कह रहा है कि यह क़ानून है। एक क़ानून यह हैः “जो भी अल्लाह की मदद करेगा, यक़ीनन अल्लाह ज़रूर उसकी मदद करेगा।” (9) ताकीद के सारे शब्द इस्तेमाल किए गए हैं- या “अगर अल्लाह की मदद करोगे तो वो तुम्हारी मदद करेगा।” (10) यह अल्लाह का नियम है। जिस रास्ते पर आप चल रहे हैं, जो काम आप कर रहे हैं, जो स्टैंड आप ले रहे हैं, अगर वह अल्लाह की मदद है- अल्लाह की मदद यानी अल्लाह के दीन की मदद, यानी अल्लाह से संबंधित चीज़ों की मदद- अगर आप उस ओर बढ़ रहे हैं, तो कामयाब होंगे, अल्लाह आपकी मदद करेगा। अलबत्ता शर्त यह है कि आप आगे बढ़ें, अमल करें, यह नहीं कि सिर्फ़ कहते रहें, अमल कीजिए! यह अल्लाह का नियम है। “अगर तुम शुक्र अदा करोग तो अल्लाह यक़ीनन इज़ाफ़ा कर देगा” (11) अगर आपने अल्लाह की नेमत को उसकी सही जगह पर इस्तेमाल किया तो अल्लाह उस नेमत को आपके लिए बढ़ा देगा, यह अल्लाह का नियम है। “और जो लोग हमारी ख़ातिर जिद्दो-जेहद करते हैं हम ज़रूर उनको अपने रास्ते दिखा देते हैं और बेशक अल्लाह भलाई करने वालों के साथ है।” (12) यह अल्लाह का नियम है, ये सारे अल्लाह के नियम हैं।

मैंने कभी इसी इमामबाड़े में एक सभा में कहा था कि (13) जब हज़रत मूसा बनी इस्राईल को लेकर रात के वक़्त समंदर की तरफ़ चल पड़े ताकि वहाँ से निकल जाएं -अब अगले दिन निकलना था या उसके बाद वाले दिन, इसकी तारीख़ स्पष्ट नहीं है- फ़िरऔन के लोग समझ गए और उनका पीछा करने लगे, ये लोग पैदल बड़ी कठिनाई से बढ़ रहे थे और वे लोग घोड़ों पर सवार होकर, जब वे क़रीब आ गए और दिखाई देने लगे, “जब दोनों समूहों ने एक दूसरे को देखा” (14) हज़रत मूसा के साथियों ने उनकी ओर रुख़ करके कहाः “यक़ीनन हम पकड़ लिए जाएंगे” (15) हज़रत मूसा के साथियों -बनी इस्राईल-में डरपोक और कमज़ोर ईमान वालों ने हज़रत मूसा से कहाः “यक़ीनन हम पकड़ लिए जाएंगे” अभी आकर हमें पकड़ लेंगे, हमारी शामत आ गई। हज़रत मूसा ने फ़रमायाः “हरगिज़ नहीं” बिल्कुल नहीं! “बेशक मेरे साथ मेरा परवरदिगार है जो मुझे रास्ता दिखाएगा।” (16) अल्लाह मेरे साथ है। यह भी अल्लाह का नियम है, ये अल्लाह के क़ानून हैं।

अल्लाह की सुन्नत यानी क़ानून, क़ानून किस तरह काम करता है? क़ानून का एक विषय है, एक हुक्म है, एक विषय है, एक नतीजा है। आप ख़ुद को इस विषय के मुताबिक़ ढालें, नतीजा निश्चित तौर पर हासिल होगा। “अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वो तुम्हारी मदद करेगा।” (17) “अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे..” यह विषय है, अल्लाह की मदद कीजिए, हुक्म और नतीजा “..तो वो तुम्हारी मदद करेगा।” है।  अगर आपने ख़ुद को उसके मुताबिक़ ढाला तो निश्चित तौर पर नतीजा हासिल होगा, इसमें कोई शक नहीं है, अल्लाह का वादा है, क़ुरआन मजीद, हमसे अल्लाह का सीधा संवाद है। इसमें तो कोई अतिश्योक्ति और ग़लत जानकारी नहीं हो सकती। हां शर्त यही है कि आप ख़ुद को इस विषय के मुताबिक़ ढालिए, अगर आपने ऐसा कर दिया तो वह नतीजा ज़रूर हासिल होगा। इस्लामी गणराज्य ने उस वक़्त इसी तरह अमल किया, जब भी हम कामयाब हुए, हम इसी तरह आगे बढ़े थे, यानी हमने अपने आपको अल्लाह के नियम के मुताबिक़ ढाल लिया था तो अल्लाह ने भी नतीजा दिया। “...और अगर लोग सही रास्ते पर डटे रहें तो हम उन्हें मीठे पानी से सेराब करें” (18) फ़रमायाः अगर तुम डट जाओ तो अल्लाह तुम्हे बेनियाज़ बना देगा, हमने दृढ़ता दिखाई, डट गए, अल्लाह ने हमे बेनियाज़ कर दिया। इसका उलटा पहलू भी ऐसा ही है। अल्लाह की परंपराओं की अनेक क़िस्में हैं। वहाँ क़ुरआन फ़रमाता हैः अगर तुमने शुक्र अदा किया तो यक़ीनन हम इज़ाफ़ करेंगे। फिर कहता हैः और अगर नाशुक्री की तो मेरा अज़ाब सख़्त है। (19) यह भी नियम है। कफ़रतुम यानी नाशुक्री- अगर तुमने नेमत की नाशुक्री की, नेमत का सही इस्तेमाल न किया, ग़लत इस्तेमाल किया, इस तरह के काम किए तो यक़ीनन मेरा अज़ाब शदीद है।, यह भी अल्लाह का एक नियम है। अगर हमने अपने आपको इस विषय के मुताबिक़ ढाल लिया, तो उसी के मुताबिक़ नतीजा मिलेगा, मतलब यह कि अल्लाह के नियम के दोनों पहलू हैं, मामले का दूसरा रुख़ भी ऐसा ही है।

सूरे आले इमरान में दो मौक़े हैं और हैरत की बात है कि ये दोनों ही बातें एक ही सूरे में और काफ़ी हद तक एक ही विषय से संबंधित हैं, अलबत्ता दो वाक़यात हैं, लेकिन ये दोनों वाक़यात एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इनमें दो तरह के नियमों को बयान किया जा रहा हैः जीत का नियम, हार का नियम। एक आले इमरान सूरे की आयत नंबर 173 में हैः वे कि जिनसे लोगों ने कहा कि लोगों ने तुम्हारे ख़िलाफ़ बड़ा लश्कर बनाया है, इसलिए तुम उनसे डरो, तो इस बात से उनका ईमान और बढ़ गया और उन्होंने कहा कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वह अच्छा कारसाज़ है। तो ये लोग अल्लाह के करम से इस तरह अपने घरों की तरफ़ लौटे कि उन्हें किसी क़िस्म की तकलीफ़ ने छुआ भी नहीं था... (20) इसका वाक़ेआ आपने सुना ही होगा, पैग़म्बर ज़ख़्मी हो गए, अमीरुल मोमेनीन ज़ख़्मी हो गए, काफ़ी तादाद में लोग ज़ख़्मी हुए, थक हार कर, ज़ख़्मी होकर मदीना वापस लौटे। उधर क़ुरैश, यही दुश्मन जो कुछ नहीं कर पाया था -उसने चोट तो ज़रूर पहुंचायी थी, लेकिन मुसलमानों से जीत नहीं पाया था- ये लोग मदीने के बाहर, मदीने से कुछ किलोमीटर की दूरी पर इकट्ठा हुए, उन्होंने फ़ैसला किया कि आज रात हमला करेंगे, ये लोग थके हुए हैं, ये कुछ नहीं कर पाएंगे, आज ही काम तमाम कर देंगे। उनके एजेंट मदीने के अंदर आ गए और उन्होंने ख़ौफ़ फैलाना शुरू कर दियाः वे कि जिनसे लोगों ने कहा कि लोगों ने तुम्हारे ख़िलाफ़ बड़ा लश्कर बनाया है, इसलिए तुम उनसे डरो, उन्होंने कहाः तुम्हें पता है, ख़बर भी है कि वे लोग इकट्ठा हो गए हैं, लश्कर तैयार कर लिया है, तुम्हें तबाह कर देना चाहते हैं! आज रात हमला कर देंगे और ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे! ख़ौफ़ फैलाने का काम। जिन लोगों को डराने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने कहाः उन्होंने कहा कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वह अच्छा कारसाज़ है, उन्होंने कहाः जी नहीं हम नहीं डरते, अल्लाह हमारे साथ है। पैग़म्बर ने फ़रमायाः वे लोग जो आज ओहद में ज़ख़्मी हुए हैं, इकट्ठा हों। वे सब इकट्ठा हो गए, आपने फ़रमायाः उनके मुक़ाबले में जाओ। वे लोग गए और उन्हें शिकस्त देकर लौटेः वे अल्लाह की नेमत और करम के साथ लौटे, काफ़ी ज़्यादा ग़नीमत के माल के साथ लौटे और उन्हें कोई मुश्किल भी पेश नहीं आयी, दुश्मन को शिकस्त देकर लौट आए। यह अल्लाह का नियम है। इसलिए दुश्मन की ओर से डर फैलाए जाने पर आपने सही अर्थ में इस बात पर यक़ीन रखा कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वह अच्छा कारसाज़ है।  और अपने फ़रीज़े को पूरा किया तो उसका नतीजा यह है। आले इमरान सूरे का यह हिस्सा, हमारे सामने इस नियम को बयान करता है। यह ओहद के बाद का वाक़ेआ था। मिसाल के तौर पर ओहद की जंग ख़त्म होने के कुछ घंटे बाद का।

मामले का दूसरा हिस्सा ख़ुद ओहद के अंदर का है, ओहद की जंग में पहले मुसलमानों को फ़तह हासिल हुयी थी, यानी उन्होंने पहले हमला किया और दुश्मन को हरा दिया फिर जब दुनिया की लालच में उस दर्रे को गवां दिया तो मामला बिल्कुल उलट गया। क़ुरआने मजीद आले इमरान सूरे में ही उसे बयान करता और कहता हैः और यक़ीनन अल्लाह ने तुमसे किया गया वादा सच कर दिखाया, अल्लाह ने तुमसे अपना वादा पूरा कर दिया- हमने वादा किया था कि अगर तुम अल्लाह के लिए जेहाद करोगे तो हम तुम्हें फ़ातेह बना देंगे, हमने अपने वादे को पूरा कर दिया- अल्लाह की इजाज़त से तुम उन पर दबाव डालने और उखाड़ फेंकने में कामयाब हो गए, पहले तुम्हें कामयाबी हासिल हुयी। तो यहाँ अल्लाह ने अपना काम कर दिया, अल्लाह ने तुमसे जो वादा किया था, उसे पूरा कर दिया, लेकिन फिर तुमने क्या किया? अल्लाह के वादे के पूरा होने पर शुक्र करने के बजाए, अल्लाह के उस एहसान का शुक्र अदा करने के बजाए, यहां तक कि तुम्हारे क़दम ढीले पड़ गए, तुम्हारे क़दमों में ढीलापन आ गया, तुम्हारी आँखें ग़नीमत के माल पर टिक गयीं, तुमने देखा कि कुछ लोग, ग़नीमत का माल इकट्ठा कर रहे हैं, तो तुम्हारे क़दम ढीले पड़ गए, और तुम झगड़ने लगे, तुम एक दूसरे से उलझ गए, तुममें मतभेद हो गया। देखिए, क़ुरआन के इन जुमलों पर सामाजिक विज्ञान की नज़र से वैज्ञानिक रिसर्च होनी चाहिए, यह कि किस तरह मुमकिन है कि एक मुल्क, एक हुकूमत, एक राज्य तरक़्क़ी करे, कैसे तरक़्क़ी रुक सकती है और कैसे वह हुकूमत पतन का शिकार हो सकती है? इन बातों को क़ुरआन की इन आयतों में ढूंढिए। यहां तक कि तुम्हारे क़दम ढीले पड़ गए, तुम झगड़ पड़े और तुमने नाफ़रमानी की। तुमने नाफ़रमानी की, पैग़म्बर ने तुमसे कहा था कि यह काम करो, तुमने नहीं किया, फिर जब ऐसा हो गया, तुम जो चाहते थे उसे तुमको दिखाने के बाद, जो तुम चाहते थे, यानी अल्लाह की मदद, उसे अल्लाह ने तुम्हें दे दिया था, दिखा दिया था, तुम पूरी मदद तक पहुंचने ही वाले थे, लेकिन तुमने इस तरह की हरकत अंजाम दी, फिर (यह इसलिए कि) तुममें कुछ दुनिया के तलबगार थे और कुछ आख़ेरत के तलबगार थे, फिर उसने तुम्हें उनके मुक़ाबले में शिकस्त में मुबतला कर दिया। (21) यहाँ भी अल्लाह ने अपने नियम पर अमल किया, उन पर तुम्हारी बढ़त ख़त्म कर दी, उन पर से तुम्हारा प्रभुत्व ख़त्म कर दिया, यानी तुम हार गए, यह अल्लाह की परंपरा ही तो है। वहाँ अल्लाह का नियम यह था कि दुश्मन की ओर से ख़ौफ़ फैलाए जाने के ख़िलाफ़ डट जाओ और आगे बढ़ो, यहाँ अल्लाह का नियम यह है कि दुनिया, दुनिया हासिल करने की इच्छा, काम न करने, कठिनाई न उठाने और आसान काम तलाश करने वग़ैरह जैसी बातों के ज़रिए अपने आपको और दूसरों को तबाह करो। यह दोनों आयतें आले इमरान सूरे में एक दूसरे के क़रीब हैं, ये दो परंपराओं को बयान करती हैं। क़ुरआन मजीद अल्लाह के इन नियमों से भरा हुआ है, मैंने कहा कि क़ुरआन के शुरु से आख़िर तक जैसे जैसे आप देखते हैं, अल्लाह के नियमों को बयान किया जाता है और दोहराया जाता है, कई जगह यह भी कहा गया हैः अल्लाह का नियम पहले से यही थी, उसके नियम में कभी तबदीली नहीं पाओगे। (22) -चार पाँच जगहों पर इस तरह की बातें हैं- अल्लाह फ़रमाता हैः अल्लाह के नियमों में कोई बदलाव नहीं होता, अल्लाह के नियम, ठोस नियम हैं। किसी के साथ अल्लाह की रिश्तेदारी नहीं है कि हम कहें कि हम मुसलमान हैं, शिया हैं, इस्लामी जमहूरिया हैं इसलिए हम जो चाहें कर सकते हैं! नहीं। दूसरों और हम में कोई फ़र्क़ नहीं है, अगर हमने अपने आपको पहले वाले नियम के मुताबिक़ ढाला तो उसका नतीजा वह है, अगर दूसरी तरह के नियमों के मुताबिक़ ढाला तो उसका नतीजा यह है, यह निश्चित है, इसमें कोई बदलाव नहीं होगा।

सन 1981 में हम इतनी सारी घटनाओं और फ़ोर्स के मुक़ाबले में अपने पैरों पर खड़े होने और दुश्मन को मायूस करने में कामयाब रहे, आज भी हम ऐसा कर सकते हैं, सन 1981 का अल्लाह ही इस साल का भी अल्लाह है, कठिन हालात और अनेक ज़मानों का अल्लाह एक है, अल्लाह के सभी नियम अपनी जगह पर क़ायम हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि तरक़्क़ी की राह में ख़ुद को अल्लाह के नियमों पर अमल की मिसाल बना दें, हमारी कोशिश यह होनी चाहिए।

अब न्यायपालिका के विषयों की बात। जनाब मोहसिनी एजेई ने अच्छी रिपोर्ट पेश की, कुछ बिन्दु, जिन्हें मैंने बयान करने के लिए नोट किया था, उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बयान कर दिया और कहा कि ये चीज़ें अंजाम पा चुकी हैं, मैं उन्हें एक बार फिर बयान करुंगा।

न्यायपालिका, दूसरे बुनियादी संस्थानों की तरह है, मुल्क के बुनियादी स्तंभों में से एक न्यायपालिका है। सिर्फ़ हमारे मुल्क में नहीं, बल्कि हर जगह। आपकी कामयाबियां और नाकामियां, दोनों ही अल्लाह के नियमों के तहत हैं और पूरे मुल्क पर उनका असर होता है। हज सूरे की इस मुबारक आयत ने हम सबकी ज़िम्मेदारी को साफ़ तौर पर ज़ाहिर कर दिया हैः ये वे लोग हैं कि अगर हम उन्हें ज़मीन में ताक़त दें तो वे नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देंगे, भलाई का हुक्म देंगे और बुराई से रोकेंगे (23) वे नमाज़ क़ायम करेंगे, नमाज़ क़ायम करना, यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि अल्लाह और इस्लामी हुकूमत को अल्लाह की बंदगी और उसकी तरफ़ तवज्जो को, अध्यात्म की ओर तवज्जो को बढ़ावा देना चाहिए। नमाज़ क़ायम करने का मक़सद यह है; बंदगी की भावना, इस्लामी जुमहूरिया में आम होनी चाहिए। ज़कात देंगे यानी ज़कात अदा करें, ज़कात तो ज़ाहिर सी बात है कि क्या है, लेकिन क़ुरआन में इस ʺज़कात देंगेʺ या ʺज़कात दीʺ में, जो क़ुर्आन में कई जगह आया है, जो इशारा और बिन्दु छिपा है, वह यह है कि इस्लामी समाज में हर चीज़ का बटवारा न्याय के साथ होना चाहिए, यह बात है।

भलाई का हुक्म देंगे, भलाई का हुक्म देना। नमाज़, ज़कात और इस तरह की चीज़ों में कुछ न कुछ काम हुए हैं, लेकिन ʺभलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकनेʺ में हम पीछे हैं। भलाई क्या है? न्याय, भाईचारा, इस्लामी संस्कार, ये सब मारूफ़ या भलाई हैं, हमें भलाइयों का हुक्म देना चाहिए। हमारे संविधान में भी, आठवें आर्टिकल में हमारे फ़रीज़े में यही अम्र बिल मारूफ़ और नहि अनिल मुनकर का मामला है। नहि अनिल मुनकर, बुराइयों से रोकें, मुनकर क्या है? ज़ुल्म है, भ्रष्टाचार है, भेदभाव भरा रवैया है, नाइंसाफ़ी है, अल्लाह के हुक्म पर अमल न करना है, ये सब ज़ुल्म हैं, ये सब मुनकर (बुराइयां) हैं, इनसे रोका जाना चाहिए, ये चीज़ें कर्तव्य में शामिल हैं। अम्र बिल मारूफ़ और नहि अनिल मुनकर नमाज़ की तरह, ज़कात की तरह कर्तव्य का हिस्सा है। एक हदीस के मुताबिक़ तो अम्र बिल मारूफ़, अल्लाह के इन हुक्मों यहाँ तक कि जेहाद से भी ऊपर है। (24) हम तफ़सील में नहीं जाना चाहते। बहरहाल यह एक ज़िम्मेदारी है जो न्यायपालिका के भी कर्तव्य में शामिल है और अगर हमने इस पर अमल न किया तो चोट खा जाएंगे।

इस वक़्त आपके पास संसाधन हैं, न्यायपालिका का मतलब है मुल्क में न्याय विभाग, मुल्क की अदालतें आपके हाथ में हैं, ये साधन आपके हाथ में है और इसे ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग कीजिए, आपको “वे नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देंगे, भलाई का हुक्म देंगे और बुराई से रोकेंगे” के मामलों में और क़ुरआन में जिन चीज़ों को कर्तव्य क़रार दिया गया है, उनके संबंध में इसे सबसे ज़्यादा उपयोग करना चाहिए, इस्तेमाल करना चाहिए, अगर आपने इस्तेमाल नहीं किया तो नेमत बर्बाद हो जाएगी। 

आम तौर पर बड़ी ताक़तें दो पहलू से चोट खाती हैः एक ताक़त का ग़लत इस्तेमाल है और दूसरा पहलू ताक़त का इस्तेमाल न होना है। कभी ऐसा होता है कि इंसान के पास एक ताक़त है, वह उससे ग़लत फ़ायदा उठाता है यानी अपनी इच्छाओं, अपने समूह के लोगों की इच्छाओं, भ्रष्टाचार वग़ैरह के लिए इस्तेमाल करता है, यह एक तरह से ताक़त को बर्बाद करना है, दूसरी क़िस्म यह है कि इंसान इस ताक़त को इस्तेमाल ही न करे, इसे यूं ही रहने दे, यह भी ताक़त को बर्बाद करना है, यह भी अल्लाह की नेमत की नाशुक्री है, कोई फ़र्क़ नहीं है, सुस्ती, काहिली, लापरवाही इस बात का कारण बनती है कि यह ताक़त ख़त्म हो जाए।

न्यायपालिका ज़ाहिर है कि मुल्क को चलाने वाला बहुत अहम विभाग है। मैंने भी हमेशा सिफ़ारिश की है, चाहे मौजूदा टर्म की बात हो कि जब दो लोगों या तीन लोगों की मौजूदगी में जनाब मोहसिनी साहब के साथ मीटिंग होती है या फिर जब न्यायपालिका में काम करने वालों से आम मुलाक़ात होती है, इन सब मौक़ों पर हमेशा मैंने नसीहत की है। यह बड़ी अच्छी बात है कि न्यायपालिका के प्रमुख जनाब मोहसिनी, मोमिन और इन्क़ेलाबी हस्ती हैं, वाक़ई यह मोमिन हैं, इन्क़ेलाबी हैं, मेहनती हैं, आम लोगों से जुड़े रहते हैं और सरकारी ताम-झाम से दूर रहते हैं, यह बहुत अहम है। यह आम लोगों से जुड़े हुए हैं, जैसा कि यहां अभी बताया गया, आम लोगों के बीच रहते हैं, लोगों से जाकर मिलते हैं, न्यायपालिका के सभी पहलुओं की मालूमात रखते हैं, यह बरसों तक इस विभाग में रहे हैं और उसके अलग अलग हिस्सों को बख़ूबी जानते हैं, दूसरों की बातें भी सुनते हैं, आलोचकों की बातें सुनते हैं वह जो भी कहते हैं यह सुनते हैं, यह सब इनकी अहम ख़ूबियां हैं। इस बुनियाद पर जो सिफ़ारिश मैं कर रहा हूं, चाहे वह इनसे हो या फिर आप सब भाई-बहनों से, इन्शाअल्लाह उन पर काम होगा और यह बातें सिर्फ़ सिफ़ारिश और नसीहत की हद तक सीमित नहीं रहेंगी।

सब से पहली चीज़ यही सुधार का दस्तावेज़ है कि जिसके बारे में जनाब ने बात की। यह बदलाव का दस्तावेज़ बेहद माडर्न दस्तावेज़ है, पहले इसे तैयार किया गया, फिर जनाब रईसी के ज़माने में इसकी पुनरसमीक्षा की गयी जिसके दौरान कई अहम बातें इसमें बढ़ायी गयीं, इसे मुकम्मल किया गया, अब इसे लागू किया जाना चाहिए। न्यायपालिका के प्रमुख तो पाबंद आदमी हैं, वह इस पर कार्यवाही करेंगे, लेकिन न्यायपालिका के दूसरे हिस्सों में भी इस पर काम होना चाहिए। जजों को, और दूसरे ओहदेदारों और अधिकारियों को भी इस पर काम करना चाहिए। अब जो रिपोर्टें हमें मिल रही हैं उन के हिसाब से जिस तरह से उम्मीद है काम होने की उस तरह से नहीं हो रहा है। इस दस्तावेज़ की बुनियाद पर कैरेक्टराइज़ेशन होना चाहिए जिसे आजकल फ्रेमिंग कहा जाता है, यह काम होना चाहिए। इस दस्तावेज़ की बुनियाद पर काम करना चाहिए, यानी न्यायपालिका को अफवाहों, बातों और इस तरह की चीज़ों के सामने, बचाव की पोज़ीशन नहीं अपनानी चाहिए। उसके सामने एक सीधा रास्ता है, उसे चाहिए कि वह पूरी ताक़त से इस राह पर आगे बढ़ती रहे, अफवाहों पर या चार को अच्छा लगता है चार को बुरा लगता है इन सब चीज़ों पर ध्यान न दे। यह पहली सिफ़ारिश है।

दूसरी सिफ़ारिश यह है कि करप्शन पर लगाम लगाने का सिलसिला संजीदगी से जारी रखा जाए। करप्शन तो है। मोहसिनी साहब ने अभी हालिया एक मीटिंग में बड़ी अच्छी बात मुझ से कही, उन्होंने जो कहा था उसका मतलब मेरे ख़्याल से यह था कि हम ने यह फ़ैसला किया है कि सब से पहले अपने अंदर, ख़ुद न्यायपालिका में करप्शन ख़त्म करें। जी हां, यही होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका के अंदर करप्शन नहीं है। लेकिन अक्सर जज पाकदामन, शरीफ़, मोमिन, मेहनती और वाक़ई भले इंसान हैं। इसमें कोई शक नहीं लेकिन अगर हज़ार लोगों में दस ख़राब लोग हों तो वे बाक़ी लोगों को भी नुक़सान पहुंचा सकते हैं, मतलब यह कि उनकी इज़्ज़त में कमी कर सकते हैं या उनके काम को ख़राब कर सकते हैं, इन्ही दस लोगों को तलाश करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही यह भी है कि करप्शन पैदा करने वाले सिस्टम से मुक़ाबला किया जाना चाहिए, यह भी होता है कि कुछ संस्थानों में चाहे वह न्यायपालिका हो, या फिर सरकार हो या कोई और संस्थान हो, कभी सिस्टम ही ऐसा होता है जिससे ख़ुद से करप्शन पैदा होता है, इस तरह के सिस्टम को ख़त्म किया जाना चाहिए, इस तरह के सिस्टम को तलाश करें और उसे ख़त्म करें। यह थी दूसरी बात।

तीसरी बात, जुडीशियल नॉलेज को बेहतर बनाना है। जुडीशियल नॉलेज मज़बूत होना चाहिए। बहुत से फ़ैसले कमज़ोर होते हैं या फिर उनमें कमी होती है, कभी ऐसे ही हमारे पास आने वाली किसी रिपोर्ट में कोई फ़ैसला होता है। जब हम उस पर ग़ौर करते हैं तो इनमें से कुछ फ़ैसले बहुत कमज़ोर नज़र आते हैं। मिसाल के तौर पर जज ने अपने एक फ़ैसले के लिए दस दलीलें पेश की हैं लेकिन उनमें से अक्सर दलीलों को ग़लत साबित किया जा सकता है, वह कमज़ोर होती हैं। दलील, मज़बूत होनी चाहिए। सिर्फ़ अदालत में ही नहीं बल्कि, उससे पहले के स्टेज पर भी मज़बूत दलील होना चाहिए। सरकारी वकील जिन दलीलों की बुनियाद पर क्रिमिनल चार्ज लगाता है उनका मज़बूत होना भी ज़रूरी है, ताकि उनका डिफ़ेन्स किया जा सके लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सरकारी वकील जो भी कह दे वही मान भी लिया जाएगा, लेकिन बहरहाल उसकी दलीलें ऐसी होना चाहिए जिनका डिफ़ेन्स किया जा सके और जिन्हें मज़बूती के साथ पेश किया जा सके। अदालत और जज के सिलसिले में इस चीज़ की अहमियत बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है। तो यह तो थी जुडीशियल नॉलेज की बात, सब्जेक्ट के बारे में भी और फ़ैसले के बारे में भी, यानी जुडीशियल नॉलेज को बढ़ाया जाना चाहिए।

चौथी बात, न्यायपालिका के अंदर लोगों को इनाम और सज़ा दिये जाने की बात है। सज़ा की तो बात की मैंने लेकिन इसके साथ ही अच्छा काम करने वालों का हौसला भी बढ़ाया जाना चाहिए। देखिए! कुछ लोग हैं, नज़र आता है, यानी पता होता है अब चूंकि हमें दूर से मालूम है इस लिए उनका ज़िक्र मुनासिब नहीं लेकिन हैं इस तरह के लोग जो सच में बहुत मेहनत करते हैं, कभी कभी तो अपने काम में अपने आराम का वक़्त भी लगा देते हें, तो इन लोगों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें इनाम दिया जाना चाहिए जैसा भी इनाम हो। इनाम सिर्फ़ पैसे से नहीं दिया जाता, इज़्ज़त देकर भी इनाम दिया जा सकता है, एलान करके भी इनाम दिया जाता है यह सब काम करके जैसे भी बहरहाल उन्हें इनाम मिलना चाहिए, यह भी एक बात थी।

पांचवी बात यह है कि मुल्क के संविधान में न्यायपालिका को जो ज़िम्मेदारियां और पॉवर दिये गये हैं उनका कोई भी हिस्सा, बिना इस्तेमाल के न रहे, कोई भी हिस्सा। मिसाल के तौर पर पब्लिक राइट्स के मैदान में एटार्नी जनरल की कुछ ज़िम्मेदारियां होती हैं और उसे इस पर नज़र रखना होती है ताकि आम लोगों के राइट्स की हिफ़ाज़त हो जिसकी एक मिसाल का ज़िक्र बाद में मैं करूंगा। जहां भी उसे यह महसूस हो कि पब्लिक राइट्स को नुक़सान पहुंच रहा है, संजीदगी के साथ उसे मैदान में आना चाहिए, क़ानून के हिसाब से। मैं इन सब मामलों में जज़बात और नारेबाज़ी में यक़ीन नहीं रखता बल्कि इन सब मामलों में मज़बूत क़ानून का सहारा लेकर मैदान में आना चाहिए। ज़ाहिर सी बात है यह अहम काम है, या जुर्म की रोक-थाम का मामला है जो न्यायपालिका की एक ज़िम्मेदारी है और संविधान में भी आया है। इस पर भी संजीदगी से ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है और इस सिलसिले में किसी तरह की लापरवाही ठीक नहीं है।

आम क़ानूनों के सिलसिले में जो न्यायपालिका का रोज़मर्रा का काम है, यह जो ज़मीनों के बारे में क़ानून था कि जिसके तहत गांवों और शहरों की ज़मीनों के हर मीटर के बारे में यह बताना था कि किसका है? क्या है? यह कुछ क्लियर होना चाहिए, यह काम पूरा होना चाहिए, इस पर काम होना चहिए, अगर यह काम हो जाएगा तो सरकारी ज़मीनों पर, पहाड़ों पर नाजायज़ क़ब्ज़े का सिलसिला ख़त्म हो जाएगा क्योंकि सरकार और दूसरों की ज़मीनों पर क़ब्ज़ा, ख़ुद बहुत सी मुश्किलों की वजह है।

छठीं बात जुडीशियल अफ़सरों से, न्यायपालिका का मज़बूत ताल्लुक़ भी बहुत अहम है। कई तरफ़ से ध्यान देने की ज़रूरत है। एक तो इस तरफ़ ध्यान दिया जाए कि जुडीशियल अफ़सरों के रवैये की निगरानी हो कि जिसके बारे में इन्होंने कुछ दिनों पहले कुछ फ़ैसले किये हैं जिसके बारे में मैंने टीवी पर सुना, यह फ़ैसले मुल्ज़िमों के बारे में जुडीशियल अफ़सरों के कुछ कामों के बारे में थे जो उन्हें नहीं करना चाहिए। तो यह मामले का एक पहलू है कि जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि अदालती अफ़सर, मुल्ज़िमों के साथ बुरा और सख़्त रवैया या इस तरह का कोई काम न करने पाएं।

एक बात यह है कि न्यायपालिका को, जुडीशियल अफ़सरों के असर में नहीं रहना चाहिए, ज़ाहिर है जुडीशियल अफ़सर, अहम और असरदार होते हैं, उनके पास ताक़त भी होती है, लोगों और मामलों के बारे में उनकी अपनी राय भी होती है तो इस लिए यह ज़रूरी है कि न्यायपालिका, ख़ुद काम करे, इन अफ़सरों की राय के असर में रह कर काम न करे। यह भी एक बात है।

एक और बात यह है कि इन्ही अफ़सरों का नज़रिया कभी एक्सपर्ट की राय होता है जिस पर काम हुआ होता है, इस तरह के नज़रिये की अनदेखी न की जाए, न्यायपालिका, एक्सपर्ट की इस तरह की राय से फ़ायदा उठाए, चाहे पुलिस में या फिर ख़ुफिया डिपार्टमेंट में या कहीं और, ऐसे अफ़सर होते हैं जिनका नज़रिया एक्सपर्ट के नज़रिये की तरह होता है इस लिए उनसे फ़ायदा उठाया जाना चाहिए।

एक बात यह है कि न्यायपालिका के अफ़सर अक्सर हम से यह शिकायत करते हैं कि मिसाल के तौर पर हम जब एतेराज़ करते हैं कि क्यों फ़ुलां मामले में कार्यवाही नहीं की गयी तो हम से कहा जाता है कि हम ने न्यायपालिका के हवाले कर दिया और न्यायपालिका ने इस मामले पर छोड़ दिया। न्यायपालिका से पूछते हैं कि क्यों यह हुआ? तो जवाब मिलता है कि क़ानून नहीं है! अच्छा तो अगर क़ानून नहीं है तो क़ानून का इंतेज़ाम कौन करेगा? आप लोग तैयार करेंगे, बिल बनाएं, तैयार करें, पार्लियामेंट में भेजें ताकि वहां से उसे मंज़ूरी मिले। यह न हो कि अफ़सर मेहनत करे, कोशिश करे, कुछ करे, फिर वह मामला न्यायपालिका में पेश किया जाए लेकिन न्यायपालिका की लापरवाही या जज के पास मालूमात न होने की वजह से सब कुछ ख़त्म हो जाए। यह छठीं बात है यानी न्यायपालिका और अफ़सरों में पूरी तरह संपर्क रहे।

सातवीं बात लोगों की साइकोलोजिकल सिक्योरिटी की है। पब्लिक राइट्स के सिलसिले में जिस बात का मैं ज़िक्र करना चाहता था यही थी, आम लोगों का एक हक़ यह है कि उन्हें साइकोलोजिकल सिक्योरिटी हासिल होना चाहिए। साइकोलोजिकल सिक्योरिटी का क्या मतलब है? यानि यह कि हर रोज़ कोई अफ़वाह, कोई झूठ, और लोगों को डराने वाली कोई बात न फैलाई जाए। कल तक अख़बारात यह काम करते थे, अब सोशल मीडिया भी आ गया है। अब हर कुछ अर्सा बाद या हर कुछ दिन बाद या हर घंटे सोशल मीडिया में कोई झूठ, कोई अफ़वाह किसी ख़ास आदमी या किसी के बारे में भी फैलायी जाती है और लोग फ़िक्रमंद हो जाते हैं, लोगों का दिमाग़ ख़राब होता है। एक झूठ फैला देते हैं, अफ़वाह फैलाते हैं, तो ज़ाहिर है कि इस से लोगों की साइकोलोजिकल सिक्योरिटी को नुक़सान पहुंचता है। न्यायपालिका की एक ज़िम्मेदारी, इस तरह के मामलों पर कार्यवाही करना है। मैंने यहां भी कुछ लोगों से सुना कि कहा गया कि क़ानून नहीं है, पहली बात तो यह कि मौजूदा क़ानूनों को ही इस्तेमाल किया जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि फ़ैसला कैसा हो? अगर क़ानून भी नहीं है तो जल्दी से क़ानून बनाएं, यह सब अहम बातें हैं। यह भी एक मुद्दा है। वैसे कभी कभी इस तरह की ख़बरें ख़ुद न्यायपालिका से बाहर आती हैं। यानी कभी यह भी होता है कि न्यायपालिका का कोई ओहदेदार किसी के बारे में या किसी डिपार्टमेंट के बारे में कुछ लोगों के बीच कुछ कहता है तो इस से भी लोगों की सोच पर असर पड़ता है।

आख़िरी बात यह है कि जो मामला शुरु करें उसे आख़िर तक ले जाएं और ख़त्म करें। तरह तरह के जो आम लोगों से ताल्लुक़ रखने वाले मामले न्यायपालिका ने अपने हाथ में लिये हैं, मिसाल के तौर पर कुछ कारख़ानों के मामले या ग़ैर क़ानूनी क़ब्ज़े के मामले जो हैं उन सब को निपटाएं। यह न हो कि घाव का मुंह तो खोल दिया और फिर उसे वैसा ही छोड़ दिया। यह होता है कि शुरु में शोर मचाया जाता है कि यह काम किया जा रहा है लेकिन फिर धीरे धीरे उसे भुला दिया जाता है। यह ठीक नहीं। जो काम भी शुरु करें, जो भी मुद्दा हो, अब जनाब ने यहां पर मामले पर ध्यान देने की बात की तो यह अच्छी बात है, अस्ल मुद्दे पर ध्यान देना बहुत अच्छा है, आप जिस मामले को भी अहम होने की वजह से शुरु करते हैं उसे निपटा दें, पहले मामला ख़त्म करें उसके बाद अलग हो जाएं।

आप का काम मुश्किल है, आप का काम सख़्त है! वाक़ई बेहद मुश्किल कामों में से एक न्यायपालिका में काम करना है। मैं इन्क़ेलाब के शुरु से ही अलग अलग ओहदों पर रहा हूं, मैं हमेशा कहा करता था कि मैं न्यायपालिका में कोई ओहदा लेने से डरता हूं, क्योंकि बहुत मुश्किल काम है, बहुत भारी ज़िम्मेदारी है, आप ने बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी ली है। तो ज़ाहिर है इसी तरह उसका सवाब भी ज़्यादा है, यानि काम जितना मुश्किल है उसका अल्लाह की तरफ़ से सवाब भी उतना ज़्यादा होगा, इन्शाअल्लाह।

अल्लाह के लिए काम करें, अल्लाह की हिदायत की रौशनी में काम को आगे बढ़ाएं तो इन्शाअल्लाह अज्र व सवाब मिलेगा। हो सकता है कि आप कोई अच्छा काम करें और किसी को पता भी न चले, यहां तक कि आप के इन्चार्ज को भी न पता चले, आप के बॉस को, आप के मातहत को यह न पता चले कि मिसाल के तौर पर आप ने कितने घंटे ज़्यादा काम किये हैं, यह काम बहुत बारीकी से किया है, आप ने करप्शन का डट कर मुक़ाबला किया है, हो सकता है यह सब किसी को पता ही न चले लेकिन लिखने वाले दोनों फ़रिश्तों को तो पता चलता है न! और ख़ुदा भी सब कुछ देखता है इन्शाल्लाह इसका अज्र व सवाब अल्लाह देगा।

मेरी दुआ है कि ख़ुदा इमाम ख़ुमैनी की रूह को ख़ुश करे, शहीदों का हिसाब किताब, उनके मौला के साथ करे, ख़ुदा शहीद बहिश्ती का हिसाब उनके मौला के साथ करे और हम सब का अंजाम अच्छा करे। 

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहू

1 इस मुलाक़ात के शुरू में न्यायपालिका प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन ग़ुलाम हुसैन मोहसिनी एजेई ने एक रिपोर्ट पेश की।

2        सैयद अबुल हसन बनी सद्र

3        29 सितंबर 1981 को फ़ौजी कमांडरों मेजर जनरल वलीयुल्लाह फ़लाही, ब्रिगेडियर जनरल जवाद फ़कूरी, ब्रिगेडियर जनरल सैयद मूसा नामजू, यूसुफ़ कुलाहदूज़ और मोहम्मद जहाँ आरा, हवाई जहाज़ से तेहरान आ रहे थे कि इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) को रिपोर्ट पेश करें, तेहरान के क़रीब हवाई जहाज़ हादसे का शिकार हो गया और उसमें सवार सभी लोग शहीद हो गए।

4        यासीन सूरे की 38वीं और 39वीं आयत का एक भाग

5        सूरे यासीन की आयत 40 का एक हिस्सा;

6        बक़रा सूरे की आयत 194 का एक हिस्सा; और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है।

7        अंकबूत सूरे की आयत 6 का एक हिस्सा; ... जो भी जेहाद करता है वह अपने लिए ही जेहाद करता है...

8        निसा सूरे की आयत 122 का एक भाग; ...और अल्लाह से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा है?

9        हज सूरे की आयत 40 का एक हिस्सा; ...यक़ीनन जो अल्लाह के धर्म की मदद करेगा, अल्लाह उसकी मदद करेगा...

10      मोहम्मद सूरे की आयत 7 का एक हिस्सा; ...अगर अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा...

11      इब्राहीम सूरे की आयत 7 का हिस्सा; ...अगर सच में शुक्र अदा करोगे, तुम्हारी नेमतों को बढ़ा देंगे...

12      अंकबूत सूरे की आयत 69

13      24 नवंबर 1980 को पूरे देश से आए हुए स्वयंसेवियों के समूह से मुलाक़ात

14      अंफ़ाल सूरे की आयत 48 का एक हिस्सा; ..जिस वक़्त दो गिरोहों ने एक दूसरे को देखा...

15      शोअरा सूरे की आयत 61 का एक हिस्सा

16      शोअरा सूरे की आयत 62 का एक हिस्सा

17      मोहम्मद सूरे की आयत 7 का एक हिस्सा; ..अगर अल्लाह की मदद करोगे तो तुम्हारी मदद करेगा...

18      जिन सूरे की आयत 16

19      इब्राहीम सूरे की आयत 7 का एक हिस्सा; और याद करो जब तुम्हारे परवरदिगार ने तुम्हें सूचित कर दिया था कि अगर मेरा शुक्र अदा करोगे तो मैं तुम्हें और ज़्यादा दूंगा और अगर नाशुक्री करोगे तो मेरा अज़ाब सख़्त है

20      आले इमरान आयत 173

21      आले इमरान सूरे की 152 आयत का एक हिस्सा

22      फ़त्ह सूरे की आयत 23

23      हज सूरे की आयत 41 का एक भाग

(24) नहजुल बलाग़ा हिकमत नंबर 374