बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

ख़ुतबाः अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन वस्सलातो वस्सलामो अला सैयदिना मोहम्मद व आलेही अलताहेरीन व लानतुल्लाहे अला आदाएहिम अजमईन।

 

मैं ख़ुदा का शुक्र अदा करता हूं कि उसने हमें यह मौक़ा दिया कि हम एक बार ‎फिर, भले ही छोटे पैमाने पर, आप सरकारी ओहदेदारों से इस मुबारक महीने में, ‎रमज़ान में मुलाक़ात कर सकें और इन्शाअल्लाह आप लोगों की दुआओं और ‎ख़ुलूस से हमें भी ख़ुदा अपनी बरकतें अता कर दे और हम पर भी उस की ‎रहमत की नज़र हो जाए। प्रेसीडेंट साहब के भी शुक्रगुज़ार हैं, उन्होंने जो रिपोर्ट ‎पेश की है बहुत अच्छी थी और इन्शाअल्लाह सारे काम इसी तरह और मुनासिब ‎रफ़्तार के साथ मुनासिब वक़्त में अंजाम देंगे।

आज मैं आप लोगों की ख़िदमत में जो बातें अर्ज़ करना चाहता हूं वह रमज़ान ‎के मौक़े की कुछ रूहानी बातें है जो सब से पहले तो ख़ुद मेरे लिए हैं। मैं यह ‎बातें बयान करना चाहता हूं कि हो सकता है कि ख़ुद हमारे दिल पर भी उसका ‎असर हो जाए क्योंकि इस तरह की नसीहतों की आप सब से ज़्यादा ख़ुद मुझे ‎ज़रूरत है। गुफ़्तुगू का एक हिस्सा आप मुल्क के ज़िम्मेदारों और ओहदेदारों के ‎कामों, जज़्बे और हौसले से ताल्लुक़ रखता है और दूसरा हिस्सा कुछ मुद्दों के ‎बारे में मेरे अपने तजुर्बे और राय के हिसाब से कुछ सिफ़ारिशों पर आधारित है।   ‎

सच्ची नीयत सच्चे, अनथक और ठोस प्रयास की ताक़त

जिन बातों की तरफ़ ध्यान केन्द्रित कराना है उनमें सब से पहली बात तो यह ‎है कि इस महीने में हमारी एक अपील सच्ची नीयत की है जिसे मासूमीन ‎‎(अ.स.) की दुआओं में भी बयान किया गया है। जैसा कि रमज़ान के मुबारक ‎महीने की दुआ में कहा गया है “हमें ताक़त, ताज़गी, तौबा... और सच्ची नीयत ‎दे”।(2) यह सच्ची नीयत बहुत अहम है। सच्चाई के साथ ख़ुद से वादा और ‎संकल्प करें, अथक रूप से अपना काम करें। नीयत सच्ची हो। अगर आप इस ‎नूरानी महीने में इस तरह की सच्ची नीयत कर सकें और उसे मज़बूत रख सकें ‎तो फिर इस ओहदे पर जब तक आप हैं यह नीयत आप की मददगार होगी और ‎यह सच्ची नीयत आगे बढ़ने में आप की मदद करेगी।

तौबा, ख़ुदा की रहमत व बरकत की वजह

वह चीज़ जो इस महीनें की दुआओं में, सहरी की दुआओं में, रमज़ान के दिनों ‎की दुआओं में, रातों की दुआओं में बार बार दोहरायी गयी है, वह ख़ुदा से ‎मग़फेरत मांगना और तौबा करना है। यानी ख़ुदा से अपने गुनाहों की माफ़ी ‎मांगना जैसा कि दुआओं में कहा गया है कि “यह बख़्शिश का महीना है।” (3) ‎इस महीने की दुआओं में अल्लाह से बख़्शिश की दुआ करने की बात बार बार ‎कही गयी है, बहुत ज़्यादा कही गयी है। अच्छा तो सवाल यह है कि इस्तेग़फ़ार ‎या बख़्शिश की दुआ का क्या मतलब है? यानी माफ़ी मांगना। हम ख़ुदा से ‎माफ़ी मांगते हैं, अपने बहुत से कामों के लिए, बहुत से उन कामों के लिए जो ‎किये हैं और बहुत से उन कामों के लिए जो नहीं कर पाए उन सब के लिए हमें ‎अपने ख़ुदा से माफ़ी मांगनी चाहिए। सच्ची नीयत के साथ जो यह माफ़ी मांगी ‎जाएगी उससे आप के अदंर एक क़िस्म की पाकीज़गी पैदा होगी जो अल्लाह की ‎रहमत की वजह बनेगी। हमारी यह कोशिश होना चाहिए कि हमें अल्लाह की ‎रहमत और बरकत हासिल हो जाए। हम दुआ में पढ़ते हैं “पालने वाले! हम उन ‎चीज़ों का सवाल करते हैं जो तेरी रहमत की वजह बनती  हैं।“(4) ज़िदंगी के हर ‎मैदान में अल्लाह से माफ़ी मांगने का असर होता है। जैसा कि मिसाल के तौर ‎पर आम ज़िंदगी की ज़रूरतों के बारे में सूरए हूद में कहा गया है “लोगो! अपने ‎परवरदिगार से माफ़ी मांगों फिर उसकी तरफ़ वापस जाओ तो वह तुम्हारे लिए ‎मूसलाधार बारिश करने वाले बादल भेजेगा।“ यानी ख़ुदा अपनी रहमत नाज़िल ‎करेगा। इसके बाद कहा जाता है “तुम्हारी ताक़त और बढ़ा देगा।“ (5) यह बहुत ‎अहम बात है। यह किसी एक इन्सान की बात नहीं है। यह तो सब की बात है। ‎पूरी क़ौम से ताल्लुक़ रखने वाली बात है।  ‎

ज़िदंगी के अलग-अलग मैदानों में कामयाबी पर तौबा का असर

इससे ज़्यादा साफ़ तौर पर तौबा का असर, दुश्मन से जंग के मैदान में होता ‎है। जैसा कि सूरए आले इमरान की एक आयत में कहा गया है कि यह लोग ‎जो पैग़म्बरे इस्लाम के साथ जेहाद करते थे,(6) यहां पैग़म्बरे के बारे में भी बता ‎दिया गया है ताकि कोई यह न सोचे कि पैग़म्बर घर में बैठे रहते थे या यह ‎कि हमेशा मस्जिद और इबादतगाहों में रहते थे! जी नहीं! जंग के मैदान में जब ‎पैग़म्बर जाते थे और दुश्मनों से जंग करते थे तो ख़ुदा पर ईमान रखने वाले ‎यानी “रब्बानियून” की दुआ यह होती थी कि पालने वाले हमारे गुनाह बख़्श दे ‎और हमारे क़दम जमा दे और काफ़िरों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर! (7) ‎मतलब, गुनाहों की माफ़ी मांगने का जंग से, क़दम की मज़बूती से, जीत से ‎इस तरह का ताल्लुक़ है। इस्तेग़फ़ार इसे कहते हैं।

अगर इन्सान पूरी सच्चाई के साथ अपनी ग़लतियों की ख़ुदा से माफ़ी मांग ले ‎तो ख़ुदा भी उसे जवाब देगा और माफ़ कर देगा। यह तो क़ुरआने मजीद की ‎आयत में खुल कर कहा गया है। जब इन लोगों ने तौबा किया और अल्लाह से ‎दुआ की कि उनकी मदद की जाए तो अल्लाह की तरफ़ से जवाब आया जिसका ‎ज़िक्र क़ुरआन में है “तो अल्लाह ने आख़ेरत से पहले, दुनिया में उन्हें जवाब ‎दिया, उन्हें दुनिया व आख़ेरत दोनों का सवाब दिया क्योंकि उन्होंने तौबा किया ‎था।“ तो इस तरह हम ने क़ुरआन से यह सीखा कि अलग अलग मैदानों में ‎कामयाबी के लिए तौबा करना चाहिए। यानी तौबा के बारे में हम यही न समझे ‎कि यह गुनाहों से पाक होने और दिल को धोने के लिए ही है। नहीं! तौबा का ‎नेशनल मैदानों में, बड़े बड़े समाजी कामों में असर होता है और इस से हमें बड़ी ‎बड़ी कामयाबियां मिलती हैं।

तौबा की वजह ज़ाहिरी गुनाह, पोशीदा गुनाह, वाजिब को छोड़ना

अब सवाल यह है कि हम तौबा किस चीज़ से करें? हम जो ग़लत काम करते ‎हैं, उनमें से कुछ वह गुनाह हैं जिन्हें मैं, नज़र आने वाले गुनाह कहता हूं। जैसे ‎झूठ, पीठ पीछे बुराई करना, उन चीज़ों को देखना और छूना जिन्हें शरीअत ने ‎हराम किया है, किसी का माल हड़प कर लेना इस तरह के काम, नज़र आने ‎वाले गुनाह हैं। लेकिन दूसरे वे गुनाह हैं तो अंदरूनी होते हैं “बाहरी और अंदरूनी ‎गुनाहों से बचो यक़ीनी तौर पर जो लोग गुनाह करते हैं उन्हें अपने किये की ‎सज़ा ज़रूर मिलेगी।“ (8) तो अंदरूनी गुनाह भी होते हैं जो एक अलग विषय है। ‎गुनाह की और भी क़िस्में हैं। कुछ गुनाह किसी काम को छोड़ने की वजह से ‎होते हैं, मतलब कुछ करके नहीं, बल्कि कुछ न करके गुनाहकार हो जाता है ‎इन्सान। हमें कुछ करना था लेकिन हमने नहीं किया। दोस्तो! हम में से बहुत ‎से लोग यह गुनाह करते हैं। हमें बहुत से काम करने होते हैं, हमारे लिए कोई ‎बात कहना ज़रूरी होता है, कोई काम करना होता है, कहीं दस्तख़त करने होते ‎हैं, कहीं कुछ करना हमारा फ़र्ज़ होता है लेकिन हम ने नहीं किया। काहिली की ‎वजह से, बीमारी की वजह से, या फिर लापवाही की वजह से हमने अपनी ‎ज़िम्मेदारी पूरी नहीं की। यह गुनाह है, इसके बारे में सवाल किया जाएगा।  इसी ‎लिए दुआए मकारेमुलअख़लाक़ में आया है कि “मुझ से वह काम करवा ले ‎जिसके बारे में कल मुझ से सवाल किया किया जाएगा।“(9)‎

हज़रत युनुस के क़िस्से से मिलने वाले सबक़

एक चीज़ जिसे मैं बार बार दोहरता हूं और उस पर ज़ोर देता हूं और जिसका ‎ज़िक्र क़ुरआने मजीद में है, हज़रत युनुस अलैहिस्सलाम का क़िस्सा है। वह ख़ुदा ‎के बड़े पैग़म्बर हैं। “और युनुस को याद करो जब वह ग़ुस्से में चले गये” (10)  ‎उन्हें ग़ुस्सा क्यों था? इसलिए कि उनकी क़ौम काफ़िर थी। वह जो भी कहते थे ‎उनकी क़ौम सुनती ही नहीं थी। बरसों यही चलता रहा। अब मुझे नहीं मालूम ‎कि कितने बरस तक लेकिन इस पूरी मुद्दत में उन्होंने अपनी कौम़ को हक़ की ‎दावत दी लेकिन असर नहीं हुआ तो उन्हें भी ग़ुस्सा आ गया, नराज़ हो गये ‎और अपनी क़ौम को छोड़ कर चले गये। अब अगर हम अपनी ज़िम्मेदारियों से ‎जो भागते हैं उसे देखें तो हज़रत युनुस का यह अमल कोई इतनी बड़ी ग़लती ‎नहीं है। मगर ख़ुदा ने इसके लिए भी उन्हें कटघरे में खड़ा कर दियाः “तो युनुस ‎को लगा कि हम उन पर सख़्ती नहीं करेंगे”(11) बिल्कुल सख़्ती करेंगे। सख़्ती यह ‎थी कि वह वहां मछली के पेट में जाकर फंस गये। इसी तरह क़ुरआने मजीद में ‎एक और जगह कहा जाता है कि “अगर वह अल्लाह की तस्बीह करने वालों में ‎से न होते तो क़यामत तक उसी मछली के पेट में रहते।“(12) ज़रा देखिए तो ‎सही! अपनी ज़िम्मेदारी से भागने के बाद अगर उनकी तरफ़ से तस्बीह और ‎गिड़गिड़ाना न होता यानी अगर वह यह न कहते कि “अल्लाह तू पाक है और ‎मैं तो ज़ुल्म करने वालों में हूं।“ तो क़यामत तक उन्हें क़ैद रहना होता। वैसे इस ‎आयत के बाद एक ख़ुशखबरी भी हैः “तो उन्होंने अंधरे में आवाज़ लगायी कि ‎तेरे अलावा कोई इबादत के लायक़ नहीं है और तू पाक है मैं तो ज़ालिमों में हो ‎गया हूं, तो हमने क़ुबूल किया और उन्हें ग़म से निजात दे दी और हम तो इसी ‎तरह मोमिनों को बचाते हैं।“(13) यह हमारे और आप के लिए अच्छी ख़बर है। ‎यानी हम भी तस्बीह, हम्द, तौबा, अपने गुनाहों को मान कर और उस पर ‎माफ़ी मांग कर निजात पा सकते हैं। तो इस तरह से यह पता चला कि तौबा, ‎ग़लत काम करने पर भी है और ज़िम्मेदारी और ज़रूरी काम छोड़ने और ख़राब ‎प्रबंधन पर भी है। यह दोनों चीज़ें अहम हैं। ‎

अल्लाह की तरफ़ से सवाल की अहमियत और उसके वुजूद का एहसास, लोगों के सवाल से बहुत ऊपर

एक और बात यह है कि हम अपने मुल्क में ओदहेदारों को “मसऊल” कहते हैं। ‎‎“मसऊल” का क्या मतलब? यानी वह जिससे सवाल किया जाए, किस चीज़ के ‎बारे में? उनके कामों के बारे में, उनकी ज़िम्मेदारियियों के बारे में हम उनसे ‎सवाल करते हैं। ‎

वैसे दुनिया में इस तरह के सवाल को अवाम का सवाल कहा जाता है। लेकिन ‎इस से बढ़ कर और इस से ज़्यादा अहम, अल्लाह की तरफ़ से किया जाने ‎वाला सवाल है। यहां इस्लामी जुम्हूरिया में यह ज़्यादा अहम है। यक़ीनी तौर पर ‎अवाम की तरफ़ से किया जाने वाला सवाल भी अहम है और दीनी जुम्हूरियत ‎का अहम हिस्सा है। यानी अवाम के सामने जवाबदेही की अहमियत, इस्लामी ‎जुम्हूरियत और दीनी जुम्हूरियत का एक अहम हिस्सा है लेकिन उससे कई गुना ‎ज़्यादा अहम अल्लाह के सामने जवाबदेही का एहसास है। “परवरदिगार! मुझ पर ‎रहम कर जब मैं मजबूर हो जाऊं ...“ (14) क़यामत में यह होगाः सवाल किया ‎जाएगा और हमारे पास जवाब नहीं होगा, हमारे पास कुछ दलीलें होंगी। हम वह ‎पेश करेंगे लेकिन उन दलीलों को रद्द कर दिया जाएगा। तब हमारी समझ में ‎आएगा कि हमारी दलीलें सही नहीं हैं। मिसाल के तौर पर अगर पूछा जाएगा ‎कि यह काम क्यों किया? यह काम क्यों नहीं किया? तो हमारे पास अपनी कोई ‎वजह होती है, जिसें हम वहां पेश करेंगे। लेकिन वह उसका सही जवाब नहीं ‎होंगी। “मेरी दलीलें खत्म हो जाएंगी...“ दुआए अबू हम्ज़ा सेमाली में यह है। यह ‎होगा। यहां तक कि अगर कोई ओहदेदार लोगों की नज़रों से दूर है, लोगों के ‎सवालों की पहुंच से बाहर है तब भी वह ख़ुदा के सामने है। जैसा कि आप जो ‎काम करते हैं जो ख़िदमत करते हैं वह भी अल्लाह देख रहा होता है। ‎

मैंने मुल्क के अलग अलग विभागों में काम करने वालों से मुलाक़ातों में बार ‎बार कहा है कि यह जो आप अपनी ड्यूटी से आधा घंटा ज़्यादा काम करते हैं, ‎उसका किसी को पता नहीं चलता, यहां तक कि आप के ऊपर वाले ओहदेदार ‎को भी पता नहीं चलता। इसलिए वह एक लफ़्ज़ शुक्रिया का भी नहीं कहता। ‎लेकिन ख़ुदा देख रहा होता है। लापरवाही का भी यही मामला है, गलतियों का ‎मामला भी यही है। ‎

यह जो इमाम ख़ुमैनी रहमुल्लाह अलैह का मशहूर जुमला है कि “यह दुनिया ‎ख़ुदा की बारगाह है।“ (15) वह बहुत अहम बात है। ख़ुदा उनके दरजात को ‎बुलंद करे। यह दुनिया ख़ुदा की बारगाह है, जहां खुदा मौजूद है, हर जगह ख़ुदा ‎है! हम जहां भी हों, अकेले हों, लोगों के बीच हों, हमारे दिलों में, हमारे ख़्यालों ‎में, हमारी नीयतों में, ख़ुदा हर जगह हैं। किसी भी ओहदे की ज़िम्मेदारी को ‎संभालने की बुनियाद यही हैः ख़ुदा की मौजूदगी का एहसास, समाजी और ‎सियासी ज़िम्मेदारियों की बुनियाद है। यह जान लीजिए कि आप जो फ़ैसले ‎करते हैं, जो दस्तख़त करते हैं, जो दस्तख़त नहीं करते, जो काम करते हैं, जो ‎काम नहीं करते, यह सब कुछ अल्लाह की नज़रों के सामने होता है। “और तू ‎उनके पीछे से उन पर नज़र रखे था और जो उन से छुपा था उसका गवाह था” ‎‎(16)।

ओहदे पर रहते हुए, अपनी निगरानी बढ़ाने की ज़रूरत

इस अच्छी बैठक में एक और चीज़ जो मैं कहना चाहता हूं वह यह है कि मेरे ‎और आप के पास इस्लामी जुम्हूरिया में ज़िम्मेदारियां हैं। अब अगर हम अपनी ‎व्यक्तिगत ज़िंदगी में वैसे नहीं हैं। मतलब बहुत ज़्यादा ख़्याल करने वाले नहीं ‎हैं तो भी जब सरकारी ओहदे पर हम आ जाएं तो फिर हमें ज़्यादा ख़्याल रखना ‎चाहिए। मिसाल के तौर पर आप पहले नमाज़े शब, मुस्तहब नमाज़ों और सुबह, ‎भोर में उठने जैसे कामों को अहमियत नहीं देते थे लेकिन अब जब आप ‎सरकारी अफसर हैं तो आप को इन चीज़ों को अहमियत देना होगा। जो चीज़ ‎आप को ख़ुदा से जोड़े रखती है, वह ओहदे पर रहते हुए बढ़नी चाहिए। हमें और ‎आप को कुछ करने या न करने में अल्लाह की मौजूदगी को महसूस करना ‎चाहिए। अगर यह हो गया तो फिर ख़ुदा की बरकतें भी नाज़िल होंगी। वही ‎जिसका ज़िक्र सूरए हूद में किया गया है और कहा गया है कि आसमान से ‎बरकतें नाज़िल होंगी। आसमान की बरकत सिर्फ़ बारिश नहीं है, सब कुछ है , ‎जिसमें ख़ुदा की रहमत भी शामिल है। “तेरी भलाई हम पर नाज़िल होती है।“ ‎‎(17)‎‏ ‏तो इस तरह हम अल्लाह की तरफ जब ध्यान देते हैं उससे फ़ायदा होता ‎है। इस्लामी जुम्हूरिया के लिए, मुल्क के लिए, अच्छा है, ख़ुद हमारे लिए भी ‎अच्छा है। हमारे दिल को रूहानियत से क़रीब करता है और पाकीज़ा ज़िंदगी से ‎हमें क़रीब करता है। तो यह भी कुछ बातें थीं जो कहना थीं और जैसा कि मैंने ‎कहा कि सब से पहले ख़ुद मुझे इस नसीहत की ज़रूरत है। अल्लाह मदद करे ‎और यह सब बातें हमारे दिल पर असर करें

ओहदेदारों को कुछ सिफ़ारिशें

जहां तक सिफ़ारिशों की बात है तो मैं आप भाई बहनों से जो सरकारी काम के ‎मैदान में आए हैं, चाहे पार्लिमेंट में, चाहे सरकार में या फिर दूसरे किसी ‎डिपार्टमेंट में जो नये लोग आए हैं ख़ास तौर पर नौजवानों से कुछ सिफारिशें ‎करना चाहता हूं। अच्छी बात यह है कि सरकारी विभागों में बड़े पैमाने पर ‎नौजवान काम कर रहे हैं जो बहुत ख़ुशी की बात है। अलबत्ता इस शर्त पर कि ‎कुछ बातों का ध्यान रखा जाए।  ‎

1) घमंड और घमंड पैदा करने वाली चीज़ों से दूरी

मैं आज जो सिफ़ारिश करना चाहता हूं वह नुक़सान पहुंचाने वाली दो चीज़ों पर ‎ध्यान देने के बारे में है। एक घमंड और दूसरे इरादे की कमज़ोरी है। यह दो ‎ख़तरनाक चीज़ें हैं जिनसे आप लोगों को ध्यान से बचना होगा। ‎

घमंड तो शैतान का हथियार है। ग़ुरुर यानी घमंड शैतान का हथियार है। इसकी ‎बहुत सी वजहें हो सकती हैं। लेकिन उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वजह जो भी ‎हो। कभी इसकी वजह यही ओहदा होता है जिस पर आप हैं। मिसाल के तौर पर ‎आप कहीं दूर के इलाक़े में काम कर रहे थे फिर आप को एक बड़ा ओहदा मिल ‎जाता है, जैसे पार्लियामेंट में या सरकार में या फिर किसी बड़े डिपार्टमेंट या ‎आर्म्ड फ़ोर्सेज़ में। इस से इन्सान में ग़ुरुर पैदा होता है कि उसे बड़ा ओहदा मिल ‎गया है। घमंड की एक वजह तो यह है। दूसरी वजह कामयाबी है। कभी इन्सान ‎जो काम करता है उसमें उसे कामयाबी मिलती है और आगे बढ़ता है तो इस ‎मौक़े पर भी उसमें घमंड पैदा हो जाता है कि मैंने यह काम कर लिया। एक ‎और वजह, अल्लाह की नेमतों से धोखा खाना है। जिसके बारे में बहुत सी ‎दुआओं यहां तक कि क़ुरआने मजीद में भी कहा गया है कि “तुम धोखा न ‎खाओ“ (18)। घमंड जो शैतान है वह तुम्हें अल्लाह के बारे में धोखे में न डाल ‎दे! अल्लाह के बारे में धोखे में रहने का क्या मतलब है? इसका यह मतलब यह ‎है कि इन्सान अल्लाह की तरफ़ से बिल्कुल बेफ़िक्र हो जाए! उसे अल्लाह का ‎ज़रा भी ख़्याल न रहे। मिसाल के तौर पर यह कहे कि हम तो पैग़म्बर के ‎ख़ानदार के चाहने वालों में से हैं। अल्लाह हमें कुछ नहीं बोलेगा! इसे कहते हैं ‎कि ख़ुदा के सिलसिले में धोखे में रहना। “और सब से ज़्यादा बदक़िस्मत वह है ‎जो तेरे बारे में धोखे में रहे“ मेरे ख़्याल से सहीफ़ए सज़्जादियों की दुआ है। ‎शायद दुआ नंबर 46 है,(19) जुमे के दिन की दुआ। इसे कहते हैं धोखे में रहना। ‎घमंड करना भी इसी तरह है। ‎

घमंड का असर

1- इन्सान की तबाही और समाज से दूरी

ग़ुरुर न करें, घमंड न करें। घमंड अगर हो जाता है तो यह नाकामी की शुरुआत ‎है, तबाही की शुरुआत है, यह घमंड चाहे जिस वजह से हो अगर पैदा हो गया ‎तो इन्सान की तबाही की शुरुआत है। इन्सान में जब ग़ुरुर पैदा हो जाता है तो ‎वह अंदरुनी तौर पर भी तबाह हो जाता है और समाज में भी उसकी पोज़ीशन ‎ख़त्म हो जाती है। इसी तरह उसके आस पास जो समाजी काम होते हैं वह भी ‎ख़त्म हो जाते हैं। क़ुरआने मजीद की यह जो आयत है कि “अल्लाह ने बहुत से ‎मौक़ों पर तुम्हारी मदद की है और हुनैन के दिन जब तुम्हें अपनी तादाद पर ‎घमंड हो गया था तो उसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ और विशाल होने के बावजूद ‎ज़मीन तुम पर तंग हो गयी“ (20)। यह भी इसी बारे में है। हुनैन वह पहली ‎जंग थी जो मक्का पर जीत हासिल होने के बाद हुई थी। पैग़म्बरे इस्लाम के ‎साथ बहुत लोग थे। बद्र की जंग की तरह नहीं जब सिर्फ 313 लोग ही थे, यह ‎लोग कई हज़ार थे। जिनमें नये नये मुसलमान, मुहाजिर और अंसार, मक्का में ‎जीत हासिल करने वाले सब लोग शामिल थे। यह सब लोग हुनैन की जंग के ‎लिए तायफ़ की तरफ़ गये थे। जब मुसलमानों ने अपनी इतनी बड़ी तादाद देखी ‎तो उनमें ग़ुरुर पैदा हो गया। ख़ुदा ने इसी ग़ुरुर की वजह से उन्हें हार का मज़ा ‎चखाया। इतनी बड़ी ज़मीन उनके लिए तंग हो गयी और वह लोग भाग लिये। ‎वह जगहें जब लोग पैग़म्बर को छोड़ कर भाग गये और सिर्फ़ हज़रत अली ‎‎(अ.स.) और कुछ लोग ही उनके पास बचे उनमें से एक जगह हुनैन की जंग है, ‎ओहद की तरह। तो घंमड का नतीजा यही होता है। हालांकि ख़ुदा ने बाद में ‎उन्हें जीत दी और वह जीतने में कामयाब रहे लेकिन ख़ुद पर ग़ुरुर का यही ‎नतीजा होता है। यानी इन्सान ख़त्म हो जाता है, वह हमें तबाह कर देता है और ‎उन लोगों को भी तबाह कर देता है जो हम पर टिके होते हैं। यही वजह है कि ‎दुआए कुमैल में हमें सिखाया गया है कि एक यह भी दुआ करें अल्लाह से कि ‎‎“हमें अपनी क़िस्मत पर ख़ुश और जो मिला उस पर राज़ी रहने की तौफ़ीक़ दे ‎और हर हाल में हमें नरम मिज़ाज का बना“ (21)। हर हाल में विनम्र रहें यह ‎घमंड के उलट है। दुआए कुमैल में इन्सान अल्लाह से इसकी दुआ करता है। ‎

2- लोगों से दूरी

अगर हमारे अंदर घमंड पैदा हो जाए तो उसका एक नुक़सान यह है कि हम ‎लोगों से दूर हो जाएंगे। लोग हमारी नज़र में छोटे हो जाएंगे हम लोगों को ‎कमतर समझेंगे और फिर ज़ाहिर सी बात है कि लोग भी हम से दूर हो जाएंगे। ‎

3- अपनी ग़लतियों को छोटा समझना और उन्हें न सुधारना

घमंड, हमें अपने बारे में ग़लतफ़हमी में डाल देता है, हम जो कुछ हैं ख़ुद को ‎उससे ज़्यादा समझने लगते हैं, घंमड की मुश्किल यह है। जब हम ख़ुद को जो ‎कुछ हैं उससे ज़्यादा समझने लगें तो फिर हमारी ग़लतियां हमारी नज़रों में ‎छोटी हो जाएंगी। हम सब ग़लती करते हैं, हम सब अपने दिल में यह मानते हैं ‎कि, फ़ुलां मामले में, फ़ुला विषय में, उस मसले में हम से ग़लती हुई लेकिन ‎यह ग़लती हमारी नज़र में छोटी हो जाती है। जबकि अगर यही ग़लती कोई ‎दूसरा करता है तो हमें बहुत बड़ी महसूस होती हैं लेकिन हमारी अपनी ग़लती ‎हमारी नज़रों में छोटी हो जाती है। जब ग़लती छोटी हो गयी तो फिर हम उसे ‎सुधारने पर ध्यान नहीं देते, सुधारते नहीं और वही ग़लती दोहराते जाते हैं और ‎वैसे ही बने रहते हैं। ग़ौर कीजिए यह सब घमंड का नतीजा है, कितना बुरा है ‎यह! ‎

4- भला चाहने वालों की नसीहत न सुनना

घमंड हमें भला चाहने वालों की नसीहतों से भी दूर कर देता है। कभी यह होता ‎है कि कोई दुश्मनी में हमें कुछ कहता है तो मान लिया जाए कि हम यह ‎बर्दाश्त नहीं कर पाते और हमें ग़ुस्सा आ जाता है लेकिन कभी कभी लोग सच्चे ‎दिल से और हमारे भले के लिए हमें हमारी बुराई बताते हैं लेकिन हम उसे भी ‎नहीं सुनते, यह भी घमंड का एक असर है, पहला असर। ‎

2- कमज़ोर इरादे से क्या होगा?

दूसरा नुक़सान क्या था? कमज़ोर इरादा। घमंड के दूसरी तरफ़ है कमज़ोर ‎इरादा। यानी दोनों एक दूसरे के उलट हैं। यह भी एक बीमारी है, यह भी इन्सान ‎को तबाह कर देता है। कमज़ोर इरादे का क्या मतलब है? यानी इरादा न कर ‎पाना, ख़ुद को कमज़ोर समझना, ख़ुद को बेकार समझना, यह सोचना कि बस ‎अब मेरे बस का नहीं है, अब सब कुछ ख़त्म हो चुका है, अब अच्छाई की कोई ‎उम्मीद नहीं है, यह सब कमज़ोर इरादे का असर है। ख़ुदा की रहमत से ‎नाउम्मीद होना इसी बीमारी का एक असर है, जो ख़ुद गुनाहे कबीरा यानी बड़े ‎गुनाहों में से है। “अल्लाह की रहमत से मायूस न होना” (22) अल्लाह की ‎रहमत से मायूस होना बड़े गुनाहों में शामिल है। यह कमज़ोर इरादे का नतीजा ‎है कि इन्सान यह कहे कि अब कुछ नहीं हो सकता। यह बहुत ख़तरनाक ज़हर ‎है। एक संस्था के हेड के लिए सच में यह ज़हर है कि वह समझे कि बस अब ‎कुछ नहीं हो सकता। हमारे दुश्मन भी इस बात की बहुत कोशिश कर रहे हैं ‎और इस बात को वह हम सब के दिमाग़ में, अलग अलग तरीक़ों से, मिल कर, ‎बात चीत करके, नारे लगा कर, इन्टरव्यू करके, ख़बरों से और इसी तरह के ‎दूसरे कामों की मदद से बिठा देना चाहते हैं कि हमारे बस का कुछ नहीं! हम ‎सब को नाउम्मीद करना चाहते हैं। यह भी एक ख़तरा और नुक़सान है।

सब्र व तक़वा उदासीनता से निजात का तरीक़ा

अलबत्ता बुरे नतीजे की इस दूसरी हालत यानी बे अमली के सिलसिले में हमारे हाथ खुले हुए हैं। यानी अल्लाह की मेहरबानी से इस्लामी गणराज्य ईरान में इस बे उदासीनता से मुक़ाबले का रास्ता मौजूद है। पहली बात तो यह है कि अल्लाह का वादा है। क़ुरआन की आयतें हैं कि अल्लाह के वादे में किसी तरह की संदेह नहीं है। सूरए आले इमरान में हमारे मुक़ाबले में और हमारे सिलसिले में दुश्मन के एहसास को बयान करने के बाद कहा गया हैः “अगर तुम्हारे साथ कुछ अच्छा होता है तो उन्हें बुरा लगता है और अगर तुम्हारा कुछ बुरा हो जाता है तो उस पर वे ख़ुश होते हैं।”(23) इसके बाद कहा गया हैः “अगर तुम सब्र करोगे और तक़वा का रास्ता अपनाओगे तो उनकी साज़िश तुम्हें कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकेगी।” क़ुरआन ने दुश्मन से मुक़ाबले की राह हमें दिखाई हैः सब्र और तक़वा। मैं तक़वा के बारे में अर्ज़ करूंगा कि इस तरह की जगहों पर इससे क्या मुरादा है? तो हमें इस बात पर यक़ीन है कि क़ुरआन के वादे सच्चे हैं। यानी इसमें ज़र्रा बराबर भी शक नहीं है। “अगर तुम सब्र करोगे और तक़वा का रास्ता अपनाओगे तो उनकी साज़िश तुम्हें कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकेगी।” यानी उनकी साज़िश और धोखाधड़ी तुम पर असर नहीं करेगी। वे तुम्हें पीछे नहीं हटा पाएंगे। यह अल्लाह का वादा है।

सब्र का अर्थ है मज़बूत क़दमों से डट जाना और न थकना

सबसे पहले तो यह कि अगर तुम सब्र करोगे और तक़वा के रास्ते पर चलोगे, इस वाक्य में सब्र का क्या मतलब है? सब्र यानी न थकना। बहुत से अनुवादों में सब्र का मतलब दृढ़ता बयान किया गया है। यह सही है। यानी न थकना। अगर सहन कहा जाए तो इसका भी अर्थ न थकना है। सब्र का मतलब यह है कि आप न थकिए। इबादत में सब्र का भी यही मतलब है। गुनाह के मुक़ाबले में सब्र का भी यही अर्थ है। कोई गुनाह है जो इंसान को आकर्षक लगता है। मुसलसल उसे अपनी तरफ़ ख़ींचता है। इंसान लगातार संयम दिखाता है। यह संयम धीरे धीरे उसे थका देता है और वह मन की इच्छाओं के सामने हथियार डाल देता है। सब्र का मतलब है न थकना। मुसीबत के समय भी यही स्थिति है और दुश्मन के मुक़ाबले में भी यही स्थिति है। सब्र का यह मतलब है। मैदान से न निकलना और बाहर न जाना सब्र है।

तक़वा यानी मुकम्मल निगरानी

तक़वा का मतलब क्या है? यानी मुकम्मल पहरेदारी, ख़याल रखना और निगरानी करना। तक़वा का मतलब हर जगह यही है। “तो बेशक सबसे अच्छा सफ़र का सामान तक़वा है।”(24) क़ुरआने मजीद में जहां कहीं भी तक़वा है उसका अर्थ है मुकम्मल देखभाल और निगरानी। उस शख़्स की तरह देखभाल जो एक लम्बे लिबास के साथ हमारे जैसे लम्बे लिबास के साथ कांटों से भरे मैदान में चल रहा है। तो वह इस बात का बहुत ख़याल रखेगा कि उसका दामन कांटों में न फंस जाए। हर लम्हा ख़याल रखना, क़दम ब क़दम। अपने पैरों के नीचे भी देखे और यह भी देखे कि कहां कांटे कम हैं ताकि उसी तरफ़ बढ़े। अपने पैरों के नीचे भी नज़र रखे और आगे भी देखता रहे। यही तक़वा है। यह जो अल्लाह का तक़वा कहा जाता है यह भी इसी अर्थ में है, जिसका यह मतलब बताया जाता है कि इंसान अल्लाह से डरे। अल्लह से डर यानी यही। यानी पूरी तवज्जो से इस बात का ख़याल रखे कि अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़, अल्लाह के आदेश के ख़िलाफ़ अमल न हो। यह तक़वा है। उन जगहों पर जहां क़ुरआन कहता है कि अगर सब्र करोगे और तक़वा का रास्ता अपनाओगे, एक ख़ास चीज़ पायी जाती हैः यह तक़वा दुश्मन से मुक़ाबले में है। यानी चौकन्ना रहना, दुश्मन की तरफ़ से चौकन्ना रहना, उसकी हरकत पर नज़र रखना, उसके मुक़ाबले में अपने हर क़दम का ख़याल रखना, उसकी कार्यवाहियों पर तवज्जो रखना, आपकी ओर से किए जाने वाले काम पर नज़र रखना कि मुमकिन है कि वह काम आपकी ग़फ़लत की निशानी हो। तक़वा का मतलब यह है। यही वह चीज़ है जिसके बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया हैः“जंग के मैदान का सिपाही चौकन्ना रहता है अगर वह सो गया तो उसका दुश्मन जाग रहा है।”(25) यानी चौकन्ना रहना, जागते रहना। यहां तक़वा का यह मतलब है। तक़वा का जो आम मतलब है वही यहां मुराद है लेकिन यहां इसकी शक्ल इस तरह हैः दुश्मन पर नज़र रखो। हर मैदान में यही है। कूटनीति में तक़वा ज़रूरी है, आर्थिक मामलों में तक़वा ज़रूरी है, सेक्युरिटी के मैदान में तक़वा ज़रूरी है। इन सब में तक़वा ज़रूरी है। अलग अलग मामलों में और हर मामले में उसके हिसाब से तक़वा ज़रूरी है। अल्लाह की मदद से, अल्लाह से मदद मांगना और गहराई से नज़र रखना। तो यह अल्लाह का हुक्म था।

हमारा अनुभव भी यही दिखाता है। कभी हम इन आयतों को पढ़ते थे। इसका अनुभव इतिहास में था और हम इस्लाम के शुरुआती दौर को अनुभव के तौर पर बयान करते थे लेकिन अब यह स्थिति नहीं है। अब तो हम ख़ुद इसका अनुभव और प्रयोग कर चुके हैं। हमने ख़ुद अलग अलग मैदान में इसे अपनी आंख से देखा है कि अगर हमारे पास सब्र हो, तक़वा हो तो हम कामयाब हो जाएंगे जिस दिन जंग शुरु हुआ, मैं आठ साल तक चले मुक़द्दस डिफ़ेन्स की बात कर रहा हूं, तो हम लोग सोच रहे थे कि जंग मिसाल के तौर पर एक हफ़्ता, दस दिन, बीस दिन जारी रहेगी। लेकिन वह आठ साल तक चलती रही। जंग पूरे आठ साल चलती रही। इमाम ख़ुमैनी पहले दिन से संतुष्ट थे। यह नहीं कि वे खुले शब्दों में कहें कि जंग हम जीत जाएंगे। नहीं, लेकिन हमें उनके अंदर किसी तरह की बेचैनी नहीं दिखाई देती थी। वह सवाल करते थे, ब्योरा पूछते थे। दूसरे विभागों के प्रमुखों के साथ हमारी उनके सामने मीटिंग होती थी। इसमें वह ब्योरा पूछते थे, सवाल करते थे कि क्या हुआ? क्यों हुआ? इस तरह के काम तो होते थे लेकिन उनके चेहरे पर, उनके अंदाज़ में और उनकी बातों में कभी घबराहट नज़र नहीं आती थी। यानी उनका दिल पूरी तरह संतुष्ट था कि अंजाम अच्छा ही होगा। वह डटे रहे। अलग अलग अवसरों पर मज़बूत क़दमों से खड़े रहे।

कुछ लोग उस वक़्त भी एतेहराज़ करते थे कि फ़ुलां मौक़े पर यह फ़ैसला क्यों नहीं किया गया? क्योंकि वे लोग मौजूद नहीं होते थे, नहीं जानते थे, हालात से पूरी तरह बाख़बर नहीं थे। उस मौक़े पर जो काम अंजाम पाए, मैं आम कामों की बात कर रहा हूं, उनके ब्योरे में नहीं जाना चाहता, क्योंकि मुमकिन है कि ब्योरे में कुछ ग़लतियां भी हुई हों लेकिन कुल मिलाकर जो काम हुआ वह सब्र व तक़वा के साथ हुआ और आख़िर में अल्लाह की मेहरबानी से हमें विजय मिली। अलग अलग मामलों में यही चीज़ नज़र आती है।

ताक़त और प्रगति के कुछ इंडिकेटर्ज़

अलग अलग क्षेत्रों में हमारा जो इतना कामयाब तजुर्बा है उसके मद्देनज़र अगर कोई आज अवाम में मायूसी फैलाना चाहे, उनके अंदर उदासीनता का एहसास पैदा करना चा और अवाम के जज़्बे और ओहदेदारों के संकल्प को कमज़ोर करना चाहे तो वाक़ई यह अवाम पर भी जुल्म है, देश पर भी ज़ुल्म है और इंक़ेलाब के साथ भी ज़ियादती है।

(1) अर्थ व्यवस्था

यक़ीनन कुछ मामलों में हमारे इंडीकेटर नेगेटिव हैं। अर्थिक मैदान में हमारे इंडीकेटर अच्छे नहीं हैं। इसे हम सब मानते हैं। अगले और पिछले अधिकारी और सभी जानते हैं कि यह इंडीकेटर, अच्छे नहीं हैं जो कई साल से अब तक इसी तरह चले आ रहे हैं। अलबत्ता यह सब के सब ठीक हो सकते हैं। यह सारी आर्थिक समस्याएं यक़ीनी तौर पर दूर हो सकती हैं और दूर होंगी। लेकिन मुल्क में सिर्फ़ आर्थिक क्षेत्र ही ताक़त और विकास का पैमाना तो नहीं है। दूसरे इंडीकेटर भी हैं, उन्हें भी देखना चाहिए। यहां तक कि इसी आर्थिक क्षेत्र में भी अलग अलग विभागों में कामयाबी की निशानियां मौजूद हैं जिनमें से कुछ के बारे में, मैं अर्ज़ करूंगा।

(2) इकानामी की मज़बूती

पहली बात तो यह है कि हमारे देश के ख़िलाफ़ जो पाबंदियां लगाई गईं, हमारे ख़िलाफ़ जो लगाई गईं और अब भी लगी हुई हैं, उनकी कोई नज़ीर नहीं है। ख़ुद उन लोगों ने कहा है कि इतिहास में किसी भी देश के ख़िलाफ़ इस तरह की पाबंदियां नहीं लगाई गईं। इन पाबंदियों के बावजूद विदेशियों के तख़मीनों और भविष्यवाणियों के विपरीत हमारी अर्थ व्यवस्था को शिकस्त नहीं हुई। वे कह रहे थे कि ईरान दीवालिया हो जाएगा। बिल्कुल नहीः अर्थ व्यवस्था अपने पैरों पर खड़ी रही। अर्थ व्यवस्था की इतनी मज़बूती एक बड़ी कामयाबी है।

(3) पाबंदियों के हालात में आत्म निर्भरता का मिशन

इसके अलावा हमने पाबंदियों से भी फ़ायदा उठाया है। हमारी क़ौम, हमारे ओहदेदारों, हमारे ज़िम्मेदारों ने ख़ुद प्रतिबंधों से फ़ायदा उठाया। बहुत से मैदानों में हम आत्म निर्भरता तक पहुंच गए हैं। अगर हम पर पाबंदी न लगती। मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए जब कोरोना की महामारी आई तो हम जाकर दुनिया के अलग अलग देशों से वैक्सीन इम्पोर्ट करते और वैक्सीन बनाने के बारे में न सोचते। आज पांच छह सेंटर्ज़ में, जैसा कि मननीय राष्ट्रपति ने भी बताया, वैक्सीन बनाई जा रही है। यह ईरानी क़ौम का गौरव है। ईरान राष्ट्र के लिए एक प्रतिष्ठा है। जी हां हमने दूसरों की वैक्सीन भी इस्तेमाल की, करना भी था, इसमें कोई हरज भी नहीं था लेकिन यह एक कामयाबी है कि हम ख़ुद आगे बढ़े। बहुत सारे क्षेत्रों में हम आत्म निर्भरता और अविष्कार तक पहुंच चुके हैं। टेलीवीज़न में इस तरह की बहुत सी चीज़ें दिखाते हैं कि चार पांच नौजवान इकट्ठा हए और उन्होंने कोई चीज़ तैयार की। वह चीज़ जिसके लिए विदेशी मुद्रा बाहर भेजनी पड़ती थी। उन्होंने वह चीज़ मुल्क के अंदर ही तैयार कर ली। इसकी क्वालिटी भी बाहर वालों से बेहतर है। यह टीवी पर दिखाते हैं। सबकी नज़रों के सामने है। हम देख रहे हैं। यह एक क़ौम की कामयाबियां हैं। यह एक क़ौम की प्रगति है। यही चीज़ अर्थ व्यवस्था के बारे में है।

(4) क़र्ज़ मुक्त होना

इसी आर्थिक क्षेत्र में हमारा देश पाबंदियों के बावजूद, बड़े सख़्त हालात के बावजूद, क़र्ज़े में नहीं डूबा। बहुत से देशों पर आप नज़र डालिए, हमारे पड़ोसी देश भी और दूसरे भी। हालांकि उन पर पाबंदियां भी नहीं थीं और न ही इतनी दुश्मनी थी। इसके बावजूद वे तीन सौ अरब, चार सौ अरब डालर विश्व बैंक, आईएमएफ़ या किसी देश के क़र्ज़दार हो गए। हमारा क़र्ज़ लगभग शून्य है। शून्य तो नहीं है लेकिन शून्य के क़रीब है। यह मामूली कामयाबी नहीं है। यह बहुत अहम है। यानी इसी इकानामी के क्षेत्र में भी जिसमें बहुत से नेगेटिव इंडीकेटर्ज़ हैं यह मज़बूत इंडीकेटर्ज़ भी मौजूद हैं।

वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति

हमारी एक और कामयाबी जो अपने आप में एक इंडीकेटर है और उस पर तवज्जो दी जानी चाहिए, हमारी वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति और टेक्नालोजी के मैदान की उन्नति है। बहुत से अंतर्राष्ट्रीय दबाव के दौरान, अलग अलग दौर में हमने साइंस और उद्योग के अलग अलग क्षेत्रों में हमने प्रगति की। यह कोई मामूली बात नहीं है, बहुत अहम चीज़ है। बहुत सी अवामी संस्थाओं यानी अवामी निवेश वाली संस्थाओं ने बहुत बड़े काम अंजाम दिए हैं। अभी कुछ हफ़्ता पहले इसी इमामबाड़े में एक बैठक हुई (26) जिसे टीवी पर भी प्रसारित किया गया, आपने देखा होगा। आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लोग आए, उन्होंने रिपोर्ट दी। रिपोर्टें ज़बानी नहीं थीं। यहां उनकी तसवीरें भी दिखाई जा रही थीं, रिपोर्टों में भी बताया गया कि बड़े बड़े काम हुए हैं। पैदावारी और ग़ैर पैदावारी क्षेत्रों में सक्रिय कंपनियों ने काफ़ी काम किया है।

सुचारू लोकतांत्रिक प्रक्रिया

एक और इंडिकेटर जिस पर हम तवज्जो दे सकते हैं, वह यह है कि मुल्क में जुमहूरी प्रक्रिया बड़े सुचारू ढंग से आगे बढ़ रही है। आप देखिए कुछ देशों में संचालन के मामलों में, उनके यहाँ चुनावों में मुश्किलें हैः मध्यावधि चुनाव, चुनाव का रद्द होना और इस तरह की चीज़ें। यहाँ ऐसा नहीं है, यहाँ (बड़ी ताक़तों की तरफ़ से) इतनी दुश्मनी के बावजूद, काम क़ानूनी तौर पर आगे बढ़े और नतीजे तक पहुंचे। ये देश के मामलों के अहम इंडिकेटर हैं। जब इनकी कुछ दूसरे देशों के तुलना करेंगे तो पता चलेगा कि ये कितने अहम हैं।

पूरे यक़ीन से कहना चाहता हूं कि ये कारनामे और दूसरी मिसालें हैं जैसे स्ट्रैटेजिक गहराई और दूसरे देशों में नैतिक पैठ और इसी तरह की चीज़ों ने इस्लामी गणराज्य को एक आकर्षक नमूने में बदल दिया है। इस बात में शक नहीं कि आज इस्लामी गणराज्य बहुत से राष्ट्रों के लिए एक आकर्षक नमूना है। अलबत्ता हमारा प्रोपैगंडा सीमित प्रोपैगंडा है, दूसरे हमारे ख़िलाफ़ बहुत प्रचार करते हैं, यानी जो प्रचार इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ हो रहा है वह हमारे प्रचार से कई गुना ज़्यादा है। इस वजह से बहुत से राष्ट्रों और देशों को पता नहीं हैं। अल्लाह की कृपा से इस्लामी गणराज्य उनके लिए आकर्षक नमूना है जो संपर्क में हैं, ख़बर रखते और जानते हैं।

इसलिए इन इन्डिकेटर्ज़ को मद्देनज़र रखना चाहिए, यानी जो लोग देश की हालत, देश की स्थिति के बारे में राय क़ायम करना चाहते हैं, उनकी निगाह सिर्फ़ आर्थिक मुद्दे तक सीमित न रहे। अर्थव्यवस्था एक इन्डिकेटर है। सुरक्षा भी इन्डिकेटर है, वैज्ञानिक तरक़्क़ी का भी इन्डिकेटर है, पाबंदियों को नए आविष्कार के लिए इस्तेमाल करना भी इंडिकेटर, कूटनीति से जुड़ा इंडिकेटर है, ये सब इंडिकेटर हैं, इनको भी देखें। एक मुल्क की ताक़त पूरा सिस्टम होता है, आपस में जुड़े अनेक कारकों की एक व्यवस्था  होती है। ताक़त और सिस्टम की इस पूरी शक्ल को न देखने और न समझने से ग़लत राय क़ायम होगी। तो पूरे सिस्टम को देखना चाहिए और इंसान जब पूरे सिस्टम को देखता है तो ख़ुश होता है। 

ख़ैर दुश्मन को बहुत लालच है, मायूसी फैलाने वाली बेबुनियाद बातें करता है, पहले भी करता था, इस वक़्त भी ऐसा ही है। क्रांति के आग़ाज़ में सद्दाम हुसैन ने जब ईरान पर हमला किया, तो उसने हमारी सरहद के क़रीब एक इंटरव्यू दिया, ईलाम के क़रीब, वहाँ एक इंटरव्यू किया, कहा अगला इंटरव्यू तेहरान में! इस तरह कहा था। ख़ुद को और अपने सुनने वालों को वचन दिया कि अगले हफ़्ते तेहारन आएगा, तेहरान को फ़त्ह करेगा और अगला इंटरव्यू करेगा। आपने देखा कि जंग में क्या अंजाम हुआ और जंग के बाद क्या हुआ। जंग के दौरान एक सैन्य ऑप्रेशन में सद्दाम हुसैन ऐसी जगह फंस गया था कि आईआरजीसी फ़ोर्सेज़ के हाथों गिरफ़्तार होने वाला था। यानी फ़त्हुल मुबीन सैन्य ऑप्रेशन के दौरान अगर हमारे जवान आधा घंटा पहले पहुंच जाते तो सद्दाम को गिरफ़्तार कर लेते। उसकी क़िस्मत ने साथ दिया कि भाग निकला। बाद में बदक़िस्मती और बदहाली का मुंह देखना पड़ा। ईरान की शर्तों को मानना और ईरान की शरण लेना पड़ा। बाद की घटना में उसने अपने विमानों को बिना इजाज़त एक के बाद एक हमारे यहां भेजा। उसकी यह स्थिति रही। अभी हाल में- शायद पिछले साल- एक अमरीकी जोकर ने कहा था कि क्रिस्मस का जश्न तेहरान में मनाएंगे। (27) इस तरह की बातें करते हैं, ख़ैर हक़ीक़त और जो उनका दिल चाहता है, जिसकी तलाश में वो हैं, दोनों में बहुत ज़्यादा फ़ासला है।

ख़ैर आप देख रहे हैं कि अमरीकी साफ़ तौर पर कह रहे हैं कि ईरान के ख़िलाफ़ ज़्यादा से ज़्यादा दबाव की नीति को शर्मनाक हार हुयी। यह बहुत अहम बात है, बहुत बड़ी बात है। यह जो घमंडी अमरीका,  मग़रूर अमरीका, साम्राज्यवादी अमरीका इस बात को मान रहा है कि ईरान के ख़िलाफ़ ज़्यादा से ज़्यादा दबाव की नीति को शर्मनाक शिकस्त हुयी, बहुत अहम बात है। इसलिए मेरे अज़ीज़ो! न हम घमंडी हों न ही निष्क्रयता के शिकार हों। न अपने मनोबल को खोएं, न अपने आप से ग़ाफ़िल हो जाएं। मैंने यह दो बातें अर्ज़ कर दीं।

देश में नॉलेज बेस्ड इकानामी की संभावना और उसके ज़रिए रोज़गार और आर्थिक काम

कुछ बातें काम के बारे में हैं, इंशाअल्लाह अगर ज़्यादा लंबी बात न हुयी तो बयान करूंगा। एक विषय नारे का, साल के नारे का है। हमने कहा प्रोडक्शन दो ख़ूबियों के साथः एक नॉलेड बेस्ड हो और दूसरी ख़ूबी रोज़गार पैदा करे। एक एतेराज़ किया गया, हमसे कहा गया कि यह दोनों चीज़ें आपस में मेल नहीं खातीं। बात ठीक कही है। कुछ जगहों पर यही मुश्किल है। यानी टेक्नॉलोजी जितनी तरक़्क़ी करती जाएगी, इंसानी वर्क फ़ोर्स की ज़रूरत कम होती जाएगी। कुछ लोगों ने मैसेज भेजा कि यह किस तरह होगा? इसका मेरे पास जवाब है। जी हाँ बहुत सी जगहों पर ऐसा ही है, लेकिन हमारे देश के संबंध में ऐसी स्थिति नहीं है। चूंकि हमारी डाउन स्ट्रीम इंडस्ट्री में बहुत से कारख़ाने और कंपनियां बंद हैं या क्षमता का आधा प्रोडक्शन कर रहे हैं, इनकी तादाद ज़्यादा है, बहुत ज़्यादा हैं। इसलिए कंपनियों को नॉलेज बेस्ड बनाने की प्रक्रिया, इन कंपनियों से विशेष हो सकती है। यानी रोज़गार के मौक़े कई गुना हो सकते हैं, बढ़ सकते हैं, ऐसी स्थिति है। इसलिए हम साथ ही साथ रोज़गार भी पैदा कर सकते हैं। इसके अवाला नई टेक्नॉलोजी की ख़ूबी उसका स्वाभाविक रूप से फैलना है, यानी इंसान टेक्नॉलोजी में जितना तरक़्क़ी करता है, उसके सामने नए रास्ते खुलते जाते हैं। इसलिए रोज़गार के अवसरों को ज़रा भी नुक़सान नहीं होगा, नॉलेज बेस्ड प्रोडक्शन को मद्देनज़र रखा जा सकता है, साथ ही रोज़गार भी पैदा कर सकते हैं।

मानव संसाधन की क्वालिटी में बेहतरी नॉलेज बेस्ड प्रोडक्शन के बारे में एक और बिन्दु और उसका जवाब ज़ेहन में आ रहा है। वह यह कि अगर हम अपना प्रोडक्शन नॉलेज बेस्ड कर लें तो वास्तव में रोज़गार से लगे मैन पावर की क्वालिटी को आप ज़रूर बेहतर बनाएंगे। यानी नॉलेज बेस्ड कंपनियों में किस तरह के लोग काम करेंगे? हमारे शिक्षित जवान। आज युनिवर्सिटी में तालीम पूरी करके निकलने वाले नौजवानों का प्रतिशत मुझे जो बतया गया है उसके हिसाब से बहुत ज़्यादा है, एक आंकड़ा दिया, चूंकि हमने ख़ुद इसकी जांच नहीं की, इसलिए यह आंकड़ा नहीं दे सकते, लेकिन तादाद बहुत ज़्यादा है, यह नौजवान ऐसी फ़ील्ड में काम कर रहे हैं जो उनकी तालीम से मेल नहीं खाते। ऐसा है। यह बहुत बड़ी कमी है। यह अस्ल में एक तरह की बेरोज़गारी है। मेहनत की, पढ़ाई की, पैसे ख़र्च किए, एक लंबा वक़्त ख़र्च हुआ लेकिन उससे फ़ायदा  नहीं उठा पाते। यह एक तरह की बेरोज़गारी है। जब हम नॉलेज बेस्ड कंपनियों के क्षेत्र को फैलाएंगे, ये सभी जवान उसमें काम में लग जाएंगे और मानव संसाधन की क्वालिटी हमारे कार्य तंत्र को बहुत ऊपर ले जाएगी, बेहतरी होगी। एलिट आएंगे काम करेंगे फिर हमारे एलिट वर्ग कम अहमियत वाली सेवाएं देने जैसे काम करने पर मजबूर नहीं होंगे।

नॉलेज बेस्ड कंपनी के लिए क्वालिटी के नियम तय होने की ज़रूरत

नाचीज़ की निगाह में नॉलेड बेस्ड कंपनियों और नॉलेड बेस्ड प्रोडक्शन के बारे में एक अहम बिन्दु जिसके बारे में होशियार कर देना ज़रूरी समझता हूं यह है -अलबत्ता इससे पहले भी मुतवज्जेह कर चुका हूं लेकिन इसके साथ एक बार फिर ध्यान दिलाना चाहता हूं– नॉलेड बेस्ड कंपनियों के लिए क्वालिटी के नियम तय हों। ऐसा न हो कि कोई कंपनी जो 40 साल पुरानी टेक्नॉलोजी से काम कर रही है, वह आए और नॉलेड बेस्ड कंपनी के तौर पर ख़ुद को दर्ज कराए और मसलन इन कंपनियों की सहूलतों व सुविधाओं से फ़ायदा उठाए। यह सही नहीं है। सही अर्थ में नॉलेज बेस्ड कंपनी में इनोवेशन हो, दूसरी ख़ूबियों को भी बयान करुंगा। या असेंबलिंग करने वाली कंपनी, असेंबलिंग करने वाले हालांकि असेंबलिंग हक़ीक़त में अंधाधुंध आयात है एक दूसरे रूप में। यह प्रोडक्शन नहीं है, यह प्रोडक्शन तैयार करना नहीं है। यह एक तरह का इम्पोर्ट है। यही कंपनी आए और नॉलेज बेस्ड कंपनी के तौर पर ख़ुद को परिचित कराए! यह नहीं होना चाहिए। इसलिए ज़रूरी है कि सटीक इंडिकेटर्ज़, क्वालिटी इंडिकेटर्ज़ –मुझे लगता है इसका संबंध वाइस प्रेज़िडेन्सी फ़ॉर साइन्स ऐन्ड टेक्नॉलोजी से है या जहां इन कंपनियों को दर्ज किया जाता है– वे तय करें और इसे गंभीरता से लें।

नॉलेज बेस्ड कंपनियों के मूल्यांकन के इंडिकेटर्ज़

एक और अहम बिन्दु यह है कि इस मुल्यांकन के लिए कि हमारा मुल्क नॉलेज बेस्ड हुआ या नहीं, इसके लिए सिर्फ़ कंपनियों की तादाद काफ़ी नहीं है। नए साल के पहले दिन मैंने तादाद की बात की थी।(28) मैंने कहा कि मिसाल के तौर पर मुझे बताया गया  कि इतनी तादाद की वृद्धि की गुंजाइश है, हमने कहा नहीं, इससे ज़्यादा। कहा गया कि 30 फ़ीसदी वृद्धि मुमकिन है। हमने कहा नहीं कम से कम 50 फ़ीसदी या सौ फ़ीसदी बढ़े। यह तादाद की बात है। ख़ैर यह एक इंडिकेटर तो है लेकिन यह काफ़ी नहीं है। जो कंपनियां आ रही हैं उनमें ऐसी ख़ूबियां हों जो बुनियादी अहमियत रखती हों, बहुत अहम हो।

1-इनोवेशन की ख़ूबी

एक ख़ूबी यह है कि उसमें इनोवेशन हो। एक यह कि विदेशी मुद्रा का ख़र्च कम हो। हम अभी मिसाल के तौर पर एक प्रोडक्ट के इम्पोर्ट में बहुत ज़्यादा विदेशी मुद्रा ख़र्च करते है। अगर इसे नॉलेज बेस्ड कंपनी बनाए या प्रोडक्शन के क़रीब तक पहुंचाए तो इससे विदेशी मुद्रा के ख़र्च में कमी आएगी या फिर विदेशी मुद्रा ख़र्च करने की ज़रूरत ही नहीं होगी। यह भी उन इंडिकेटर्ज़ में एक है।

2 रोज़गार पैदा करने और एक्सपोर्ट को बढ़ावा देने वाली

रोज़गार पैदा करना उन इंडिकेटर्ज़ में है। कंपनियां सही अर्थ में रोज़गार पैदा करने वाली हों। इसके साथ ही एक्सपोर्ट करने की क़ाबिलियत रखती हों। यानी वैश्विक प्रोडक्ट्स से कंपटीशन कर सकें, इस तरह के इंडिकेटर्ज़ तय हों, इंशाअल्लाह इस पर काम करें।

3-प्रॉब्लम बेस्ड हो

एक अहम बिन्दु यह है कि नॉलेज बेस्ड कंपनियों के विस्तार में प्राथमिकताओं को मद्देनज़र रखा जाए। एक अहम प्राथमिकता यह है कि कंपनियां प्राब्लम को हल करने वाली हों। हमारे पास देश की अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रॉब्लम्स हैं। ये कंपनियां मुश्किल हल करने पर ध्यान दें, प्राब्लम का हल हो, ज़रूरत के मुताबिक़ वजूद में आएं यानी इन कंपनियों की ज़रूरत का मुल्यांकन हो। ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर आर्थिक सुरक्षा टिकी हुयी है। मिसाल के तौर पर खेती का क्षेत्र, मैंने इत्तेफ़ाक़ से नौरोज़ की स्पीच में कहा था कि हमारा कृषि क्षेत्र सबसे ज़्यादा इम्पोर्ट और विदेशों पर निर्भर है। यह ऐसी हालत में है कि कृषि क्षेत्र हमारी खाद्य सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। यह बहुत अहम मुद्दा है।

नॉलेज बेस्ड कंपनियों में इस बिन्दु का पालन हो, या आर्थिक सुरक्षा उस पर निर्भर हो या उसमें बेरोज़गार माहिर वर्क फ़ोर्स को अपने यहां काम देने की काफ़ी गुंजाइश हो, या ऐसे क्षेत्र जिनमें कंपनियां कच्चा माल निर्यात करती हैं जैसे खदानों का क्षेत्र। अफ़सोस हमारे मुल्क में खदानों के क्षेत्र में, हमारे सामने बहुत सी मुश्किलें हैं। एक मुश्किल इसी कच्चे माल को बेचना है। तेल अपनी जगह है। तेल में तो हक़ीक़त में हमने कोई वैल्यु ऐडेड नहीं की, गैस में कुछ हद तक वैल्यु ऐडेड का काम हुआ। हालांकि जैसा माहिरों का कहना है कि तेल के क्षेत्र में बहुत ज़्यादा वैल्यु ऐडेड का काम हो सकता है। वैल्यु ऐडेड को वजूद दिया जा सकता है, अगर तेल की डाउन स्ट्रीम इंडस्ट्रीज़ पर ध्यान दिया जाए। इसी तरह गैस भी है, खदानों का क्षेत्र भी इसी तरह है। हमारी धातुएं, पत्थर, मुल्क में क़ीमती पत्थर, मुल्क में क़ीमती पत्थर की कितनी खदानें मौजूद हैं?! इन्हें बग़ैर किसी वैल्यु ऐडेड के, इन पर किसी तरह का काम किए बिना, निर्यात किया जा रहा है। यह अहम क्षेत्र है हमें नॉलेज बेस्ड कंपनियों का ध्यान इस ओर मोड़ना चाहिए।

सरकार और सरकारी विभाग की ओर से नॉलेज बेस्ड कंपनियों का सपोर्ट

नॉलेज बेस्ड प्रोडक्ट्स के बारे में एक अहम बिन्दु यह है कि हम हक़ीक़त में नॉलेज बेस्ड कंपनियों का सपोर्ट करें। सरकारी विभाग सपोर्ट करें। देश में सबसे बड़ी कंज़्यूमर सरकार है। सरकार नॉलेज बेस्ड प्रोडक्ट्स को इस्तेमाल में ला सकती है। यानी इससे बे लगाम इम्पोर्ट को रोकना, इसका मैने दोबारा ज़िक्र किया, इन कंपनियों और इनके प्रोडक्ट्स के सपोर्ट की अच्छी मिसाल है।   

कच्चे माल नहीं प्रोडक्ट्स का निर्यात

एक अहम आर्थिक मुश्किल कच्चे माल का बेचा जाना है जिस पर पहले भी मैं बात कर चुका हूं। हम कच्चा माल कम क़ीमत पर एक्सपोर्ट करते हैं और उसी से बनने वाले प्रोडक्टस को विदेश से इम्पोर्ट करते हैं ऊंची क़ीमत पर। इन दोनों क़ीमतों में अंतर हमें लिख कर दिया गया है, माहिर लोगों ने इस बात का ज़िक्र किया है। अंतर काफ़ी ज़्यादा है। हम कच्चे माल को कम क़ीमत पर एक्सपोर्ट करते हैं, एन्ड प्रोडक्ट्स को ऊंची क़ीमत पर इम्पोर्ट करते हैं, हालांकि हमें एन्ड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट करना चाहिए। देश के एक्सपोर्ट को इस दिशा में हरकत करना चाहिए, प्रोडक्ट्स को इस दिशा में जाना चाहिए, नॉलेड बेस्ड कंपनियां इस ओर बढें कि हम अनेक पदार्थों के एन्ड प्रोडक्ट्स को एक्सपोर्ट कर सकें।

बुनियादी नीतियों के मुताबिक़ सातवीं पांच वर्षीय विकास योजना बनाने की ज़रूरत

देश का एक अहम मुद्दा जिसके बारे में अधिकारियों से कह चुका हूं –इस वक़्त यहां सरकार और संसद दोनों के अधिकारी मौजूद हैं– सातवीं पांच वर्षीय विकास योजना का मुद्दा है कि जिसे पिछले साल पास हो जाना चाहिए था और इस साल उसी के आधार पर सालाना प्रोग्राम बनाए जाने चाहिए थे, ख़ैर पिछले साल नहीं हो पाया। इस साल इसे किसी जगह तक इंशाअल्लाह पहुंचा दीजिए। हिम्मत दिखाइये ताकि बुनियादी नीतियों के मुताबिक़ ये प्रोग्राम तैयार हों, सरकार और संसद इसे अंत तक पहुंचाए।

अधिकारियों की अवामी ज़िंदगी  

एक अहम मुद्दा अधिकारियों की अवामी ज़िंदगी का है जिसकी ओर माननीय राष्ट्रपति ने भी इशारा किया और सही भी है। लोगों के बीच जाना और प्रांतीय दौरे बहुत ही अहम काम हैं, अच्छा काम है, इससे मुश्किलें हल होती हैं। कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं कि इंसान जब तक मैदान में जाकर न देखे, इंसान ख़ुद न देखे या मैदान में सरगर्म लोगों से न सुने या उन भरोसेमंद लोगों से जो मैदान में जाते हैं और देखते हैं, ठोस ख़बर न मिले– जब तक ऐसा न हो, सच्चाई को न तो समझा जा सकता है और न ही सही समझ की बुनियाद पर प्रोग्राम बनाया जा सकता है।

अवाम के संपर्क में रहना बहुत अहम है, लेकिन अवाम के संपर्क में रहने का एक अहम बिन्दु इस प्रक्रिया को क़ायम रखना है। अवाम के संपर्क में बने रहिए, थकिए नहीं। जिस सब्र का ज़िक्र किया गया, उसकी एक मिसाल यहाँ है। ऐसा न हो कि शुरू में अवाम के संपर्क में रहें, फिर धीरे-धीरे छोड़ दें, नहीं! अवाम के साथ संपर्क में बने रहिए। मेरा मतलब यह नहीं है कि प्रांतीय दौरे कार्यकाल के अंत तक जारी रहें। नहीं! एक जगह मुमकिन है रुक जाएं, कोई हरज नहीं है, लेकिन अवाम के संपर्क में होने का मतलब सिर्फ़ प्रांतीय दौरा नहीं है। अवाम से संपर्क, उनकी बात सुनना, बिन्दुओं को सुनना, कभी एक आम नागरिक से ऐसी बात सुनने को मिल जाती है कि साथ में रहने वाले अनुभवी सलाहकार से सुनने में नहीं आती। इससे फ़ायदा उठाना चाहिए। अवाम से संपर्क और उनकी रिपोर्टों की यह ख़ूबी है।

धारा-44 की नीतियों को पूरी तरह लागू करने की ज़रूरत

एक और बिन्दु जिस पर फिर दोबारा ताकीद करता हूं, धारा-44 की नीतियों को लागू करने का मुद्दा है जिसका नोटीफ़िकेशन कई साल पहले भेजा गया (29) और सभी ने इसकी तारीफ़ की, सराहना की कि कितनी अच्छी नीतियां है?! लेकिन अमल नहीं हुआ। अनेक सरकारों में ताकीद हुयी, उन्होंने भी कहा कि हम अमल करना चाहते हैं, या अमल कर रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त में धारा-44 की नीतियां लागू नहीं हुयीं। देश की अर्थव्यवस्था को सही अर्थ में लोगों के कांधे पर होना चाहिए, सरकार अपना ख़ास रोल निभाए, ख़ुद ऑप्रेटर न हो, यह बहुत अहम है। एक बार आप अपने कांधे पर कोई बोझ उठाते हैं, चाहते हैं पैदल इस बोझ को इस शहर से दूसरे शहर पहुंचाएं, कभी आप उसे किसी सवारी पर चढ़ाते हैं, ख़ुद गाड़ी चलाते भी हैं। इस चीज़ को सक्रिय कीजिए, लेकिन साथ ही उनके काम की निगरानी कीजिए, नीतियां बनाइये, ध्यान दीजिए कि कोई ग़लती पेश न आए, कोई कमी न रह जाए। लेकिन प्राइवेट सेक्टर को काम करने दीजिए, उनका भी फ़ायदा होगा, लोगों का भी भला होगा, आपका भी सरकारी अधिकारी के तौर पर फ़ायदा होगा, यह भी एक मुद्दा है।

बिना तेल की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने की ज़रूरत

एक और मुद्दा जो बहुत अहम है, अलबत्ता लंबी मुद्दत का काम है, तेल के सहारे के बग़ैर आर्थिक विकास का मुद्दा है। उन देशों की तरह जिनके पास तेल नहीं है, लेकिन आर्थिक विकास कर रहे हैं, आर्थिक तरक़्क़ी कर रहे हैं, कम भी नहीं हैं। तेल के रूप में इस नशीले पदार्थ की अफ़सोस कि 100 साल से अब तक हमको लत लगी हुई है। वाक़ई बहुत बुरी लत है। अलबत्ता यह लक्ष्य कम मुद्दत में हासिल नहीं होगा बल्कि लंबी मुद्दत में हासिल होगा, एक या दो दिन और किसी एक सरकार का काम नहीं है। यानी अगर सरकारें हिम्मत दिखाएं, मुमकिन है मिसाल के तौर पर आठ-आठ साल के दो टर्म वाली दो सरकारों में इस काम को अंजाम दिया जा सकता है। अलबत्ता मैंने बरसों पहले इस नज़रिए को पेश किया था,(30) अगर उस दिन से काम शुरू हो जाता तो आज देश की हालत कुछ दूसरी होती, अमल नहीं किया।

इंफ़्रास्ट्रक्चर पर विदेशी मुद्रा को ख़र्च करने की ज़रूरत

एक अहम मुद्दा विदेशी मुद्रा के इस्तेमाल का है कि हम इस संसाधन को कहाँ ख़र्च करें और किस तरह ख़र्च करें। ध्यान रहे कि अगर विदेशी मुद्रा का रास्ता खुल जाए मिसाल के तौर पर कहीं से विदेशी मुद्रा आए, तो यह संसाधन बेलगाम इम्पोर्ट पर ख़र्च न हो। इंफ़्रास्ट्रक्चर के काम पर ख़र्च हो। मुल्क को इंफ़्रास्ट्रक्चर से जुड़े काम को अंजाम देने की ज़रूरत है। ट्रांसपोर्ट का मुद्दा, रेल ट्रांसपोर्ट का मुद्दा, इसी नॉलेड बेस्ड कंपनियों से जुड़े अनेक मुद्दे, ये सब मूल ढांचे से जुड़े काम हैं जिन्हें अंजाम पाना चाहिए, देश को भी इनकी ज़रूरत है। उद्योगों के रेनोवेशन का काम। हमारे उद्योग पुराने हैं जिनके रेनोवेशन के लिए विदेशी मुद्रा से हासिल आय की ज़रूरत है। इन चीज़ों पर ख़र्च होनी चाहिए। यह न हो कि जैसे ही कुछ पैसे हमारे हाथ आए, मिसाल के तौर पर लग्जरी सामान के इम्पोर्ट को खोल दें। कहा जाता है कि इनमें ज़्यादातर तस्करी के रास्ते आने वाला सामान है। मगर तस्करी पर भी रोक लगनी चाहिए। यानी एक बड़ा व अहम काम यही है। कुत्ते का चारा विदेश से इम्पोर्ट हो, कॉस्मेटिक्स के सामान बहुत ज़्यादा क़ीमत पर इम्पोर्ट हों! इन पर तो एक नया पैसा भी ख़र्च नहीं होना चाहिए, बहुत ज़्यादा पैसे तो दूर की बात है। हमारे पास इंफ़्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में बहुत से काम हैं। यही मुल्क में पानी का मुद्दा, पानी की मुश्किल, यह बुनियादी कामों में है और इसे हल करना भी पूरी तरह मुमकिन है, लेकिन इसके लिए पैसों की ज़रूरत है। इस वक़्त मैं जानता हूं, मुझे पता है कि इस सरकार ने इस क्षेत्र में अच्छा काम किया और अच्छा काम अंजाम दे रही है। ऐसे काम अंजाम पाने चाहिए। पानी का मुद्दा भी उन्हीं अहम मुद्दों में है।

देश की मुश्किल के हल के लिए पालिकाओं के अध्यक्षों की समन्वय परिषद की मदद लेना देश के अधिकारियों के एक अच्छी संभावना है, यही पालिकाओं के अध्यक्षों की आर्थिक समन्वय परिषद है जो पिछली सरकार में बनी और उसने काम शुरू किया। उसने बड़े काम किए। अलबत्ता इस परिषद की मूल ज़िम्मेदारी तीन चार बुनियादी काम थे जिसमें एक बजट के प्रारूप में मूल सुधार था, एक बैंकों का मुद्दा था कि जिनके पीछे लगे रहना चाहिए, बजट के ढांचे में सुधार हो। बजट में ढांचागत मुश्किल है। शुरू से ही इस परिषद की एक ज़िम्मेदारी पाबंदियों से निपटने का के प्रयासों को व्यवस्थित करना था। इन क्षमताओं से इंशाअल्लाह पूरी तरह फ़ायदा उठाया जाए, तीनों पालिकाओं के अधिकारी पूरे तालमेल व संजीदगी से-जो अल्लाह की कृपा से है, आपस में आत्मीयता पायी जाती है- इसके पीछे लगें। ख़ैर ये आर्थिक मुद्दे थे जिसमें हमारे वक़्त का बड़ा हिस्सा चला गया, (बातचीत) लंबी हो गयी।

संस्कृति के मामले में समझदारी से संघर्ष की ज़रूरत

संस्कृति का मुद्दा बुनियादी व अहम मुद्दा है और इल्म और कल्चर के मैंदान में बड़ी सूझबूझ के साथ संघर्ष की ज़रूरत है। संघर्ष सही दिशा में हो। सबसे पहले इस्लामी संस्कृति व मार्गदर्शन मंत्रालय, तबलीग़ात (धार्मिक प्रचार) संस्था, तबलीग़ात कार्यालय, ब्रॉडकास्टिंग विभाग, सांस्कृतिक क्रांति की उच्च परिषद से यह गुज़ारिश है। दूसरे दर्जे पर– अलबत्ता दूसरा दर्जा नहीं कहना चाहिए– पूरे देश में फैले सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। अल्लाह की कृपा से उनकी तादाद कम नहीं बुहत है। सभी लोग सांस्कृतिक मुद्दे पर ध्यान दें, इसे अहमियत दें। लेकिन सबसे पहले इस काम के लिए दिन-रात कोशिश करनी होगी, दूसरे यह कि समझदारी से होना चाहिए। आँख बंद करके और बिना सोचे समझे नहीं होना चाहिए। सही दिशा में होना चाहिए। यह भी एक अहम विषय है।

परमाणु वार्ता की वजह से देश की कूटनीति थमे नहीं

एक और अहम मुद्दा कूटनीति का है। अल्लाह की कृपा से मुल्क की कूटनीति अच्छी दिशा में बढ़ रही है। कूटनीति से जुड़े मामलों में जिस बिंदु पर ध्यान है वह परमाणु मुद्दा है, ख़ैर आप लोग परमाणु मामले की ख़बरों पर यक़ीनन नज़र रखते होंगे, ताज़ा स्थिति ज़रूर अपनी नज़र के सामने होगी। हमने पहले भी कहा है, सरकारी अधिकारियों ने भी कहा है, जनाब राष्ट्रपति ने भी बार बार कहा है कि आप अपने काम के प्रोग्राम को परमाणु वार्ता से न जोड़िए। हरगिज़ नहीं। अपना काम करते रहिए, मुल्क के मौजूदा हालात को देखिए, मौजूदा हालात की बुनियाद पर योजना बनाइए। मुमकिन है वार्ता किसी नतीजे तक पहुंचे, सार्थक नतीजा, 50 प्रतिशत सकारात्मक नतीजे या नकारात्क नतीजा निकले, जो भी हो आप अपना काम करते रहिए, अपने काम को उससे मत जोड़िए। अच्छी बात है कि जनाब विदेश मंत्री और वार्ताकार टीम के अधिकारी सटीक रिपोर्ट राष्ट्रपति को पेश करते हैं, उच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को पेश करते हैं, हालात की जानकारी होती है, फ़ैसले लेते हैं और अमल किया जाता है, मामले के पहलुओं का जायज़ा लिया जाता है।

अधिकारियों के काम की आलोचना सोच के साथ हो, लोगों में निराशा न फैलाए

इन अधिकारियों के काम की आलोचना में कोई बुराई नहीं है, टिप्पणी में कोई हरज नहीं है, लेकिन सबसे पहले इस बात का ध्यान रहे कि समीक्षा और बयान दुर्भावना के साथ न हो। मैंने इस चीज़ की ओर से अधिकारियों को, सभी सरकारों में सचेत किया कि जो शख़्स मैदान में है, फ़्रंट लाइन पर काम कर रहा है, उसके बारे में नकारात्मक नज़रिया न रखें, दुर्भावना न हो। मोमिन, क्रांतिकारी, संघर्षशील और मेहनती लोग काम में लगे हैं, इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अगर समीक्षा हो तो सार्थक नज़र के साथ हो, नकारात्मक नज़रिए के साथ नहीं होनी चाहिए। दूसरे यह कि इन लोगों के मनोबल को कमज़ोर करने की वजह न बने जो इस मैदान में काम कर रहे हैं। अवाम में भी उम्मीद का जज़्बा कमज़ोर करने वाली न हो, यानी इस तरह बात की जाए कि लोग नाउम्मीद न हों।

देश में बंद गली जैसे हालात नहीं

हमारी वार्ताकार टीम ने अल्लाह की कृपा से सामने वाले पक्ष की धौंस और ज़्यादा  कंसेशन लेने की कोशिश का मुक़ाबला किया और वह अल्लाह की कृपा से डटी रहेगी। जिसने वादा ख़िलाफ़ी की वह सामने वाला पक्ष है। वह ख़ुद ही अब इस वादा ख़िलाफ़ी में फंस गए हैं, बेबस हैं। यानी वादा ख़िलाफ़ी करने वाला पक्ष जिसने उन्हीं के बक़ौल  समझौते को फाड़ डाला, इस वक़्त ख़ुद उसी में फंस गया है और पहले से ज़्यादा बेबसी महसूस कर रहा है। हम अल्लाह की कृपा से बंद गली में नहीं हैं। हम कठिनाइयों से गुज़र गए, पार कर गए। बहुत सी मुश्किलें हमने पार कर लीं, दूसरी मुश्किलों को भी अल्लाह की कृपा से पार कर लेंगे।   

फ़िलिस्तीन ज़िंदा है

एक अहम मुद्दा फ़िलिस्तीन का मुद्दा है। इस पर भी एक बात कहना चाहता हूं। फ़िलिस्तीन साबित कर रहा है कि अल्लाह की कृपा से ज़िंदा है। फ़िलिस्तीन ज़िंदा है। अमरीकी और अमरीका पिट्ठुओं की नीतियों के ख़िलाफ़ जो चाहते थे कि फ़िलिस्तीन का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला जाए, इस विषय को भुला दिया जाए, लोग पूरी तरह भूल जाएं कि फ़िलिस्तीन नाम की कोई सरज़मीं थी और फ़िलिस्तीन नाम का कोई राष्ट्र था, उनकी इच्छाओं के विपरीत दिन ब दिन फ़िलिस्तीन का मुद्दा उभरता जा रहा है। आज 1948 में क़ब्ज़े में लिए गए इलाक़ों में फ़िलिस्तीनी जवान, दूरदराज़ के इलाक़ों में नहीं, वहीं अतिग्रहित फ़िलिस्तीन के केन्द्र में जाग गए हैं, हरकत में आ गए हैं, कोशिश कर रहे हैं, काम कर रहे हैं और यह सिलसिला जारी रहेगा। इस बात में शक नहीं कि आगे भी जारी रहेगा और अल्लाह की कृपा से और अल्लाह के वादे के मुताबिक़ कामयाबी भी फ़िलिस्तीनी जनता को ही मिलेगी।

सऊदी नेताओं को नसीहत कि यमन की जंग बंद कर दें

यमन का मुद्दा भी ऐसा ही है। यमन के मामले में मैं सऊदी साहेबान को एक नसीहत करना चाहता हूं भलाई की भावना के साथ। आप उस जंग को क्यों जारी रखे हुए हैं जिसके बारे में यक़ीन है कि विजय नहीं मिलेगी? क्या यमन जंग में सऊदियों के कामयाब होने की संभावना है? इसकी संभावना नहीं है। जो हिम्मत यमन की जनता के पास है, जिस बहादुरी का उनके नेता परिचय दे रहे हैं, जिस क्षमता का विभिन्न क्षेत्रों में वे प्रदर्शन कर रहे हैं, उसे देखते हुए कामयाबी की संभावना नहीं है। जब किसी जंग में फ़तह की संभावना न हो तो वह क्यों जारी है? कोई रास्ता निकालिए, ख़ुद को इस जंग से बाहर निजात दिलाइए। ख़ैर हाल में वार्ता हुयी, चाहे काग़ज़ पर या ज़बानी तौर पर ही सही दो महीने के लिए संघर्ष विराम का एलान किया गया, बहुत अच्छा है। अगर इंशाअल्लाह सही अर्थों में जंग रुक जाए चाहे दो महीने के लिए ही सही, तो क़ीमती मौक़ा है, बहुत अच्छा है। इसे जारी रहना चाहिए। यमन के अवाम धैर्यवान हैं और इस मामले में तो पूरी तरह मज़लूम हैं। अल्लाह भी मज़लूमों की मदद करता है और यमन के प्रतिरोधक अवाम, फ़िलिस्तीन के मुजाहिद अवाम इंशाअल्लाह अल्लाह की कृपा के पात्र बनेंगे।

ओहदेदारों को नसीहत, कार्यकाल की क़द्र कीजिए, दिखावे से बचिए, देशहित को निजी हित के ऊपर रखिए

मेरी आख़िरी बात यह है कि प्रिय भाइयो, प्रिय बहनो! इस मौक़े की क़द्र कीजिए, इसके हर घंटे का भरपूर इस्तेमाल कीजिए, ओहदे का कार्यकाल बहुत जल्दी गुज़र जाता है, बहुत जल्दी गुज़र कर ख़त्म हो जाता है। इस मौक़े को ग़नीमत समझिए, इसके हर घंटे को सही तरह इस्तेमाल में लाइये।

दूसरी नसीहतः दिखावे के लिए काम न कीजिए। यह सोचना कि जिस इलाक़े के लोगों ने मुझे चुना है, या फ़र्ज़ कीजिए जो लोग टेलीविज़न पर मेरी बात सुन रहे हैं, उन्हें मेरी बात अच्छी लगे! सही नहीं है। यह बातें ज़ेहन में न आएं। इससे काम की बर्कत ख़त्म हो जाएगी। आप बस इस सोच में रहें कि लोग आपको पसंद करें, काम की अहमियत और अल्लाह की रज़ामंदी मद्देनज़र न हो तो इससे काम की बर्कत ख़त्म हो जाती है और बुहत से मौक़ों पर काम का कोई नतीजा नहीं निकलता।

तीसरी बात हितों के टकराव की है। संसद में हितों के टकराव का लफ़्ज़ बार बार सुनने में आता है। यह हितों का टकराव सिर्फ़ अर्थव्यवस्था में नहीं है। दूसरे क्षेत्रों में भी हितों का टकराव है। अगर हमारा और आपका एक हित है, एक हित पूरे देश के अवाम से जुड़ा है, यहाँ हितों का टकराव है, हम किसे प्राथमिकता देंगे? अगर हम अपनी इज़्ज़त और लोगों के बीच अपनी लोकप्रियता को प्राथमिकता दें देश के हित पर, तो यह हितों का टकराव है। हमें अल्लाह को मद्देनज़र रखना चाहिए। यह भी एक अहम बात है

सरकार और संसद के बीच काम और अधिकार क्षेत्र की रेखा

संविधान में संसद और सरकार के काम तयशुदा हैं। मैंने पहले भी एक मुलाक़ात में इस बात को पेश किया था कि इस रेखा का ख़याल रखिए। इस तरह हो कि सरकार के पास उसकी ज़िम्मेदारी वाले काम हों ताकि सरकार से सवाल किया जा सके। संसद से उसके कामके बारे में सवाल किया जा सके, संसद के बारे में भी राय क़ायम की जा सके, फ़ैसला किया जा सके, अगर काम आपस में मिल गए तो फ़ैसला करना मुश्किल होता है।

हे पालनहार! रसूले ख़ुदा और उनके परिजनों के सदक़े में हमारी नीयत को सच्चाई प्रदान कर। जो कहा, जो किया, जो कर रहे हैं, जो कह रहे हैं, वह तेरे लिए और तेरी राह में हो। हे पालनहार! हमारे मन को अपने पाक अमल की भावना से भर दे। हे पालनहार! रसूले ख़ुदा और उनके परिजनों के सदक़े में हमारे महान इमाम को जिन्होंने इस राष्ट्र को यह रास्ते दिखाया, हमें इस मैदान में लाए, इस रास्ते पर लाए, अपने पैग़म्बरों, अपने वलियों के साथ उठा। उनकी पाकीज़ा रूह को हमसे राज़ी रख। शहीदों की पाकीज़ा रूहों को हमसे राज़ी रख। शहीदों के परिवारों को अच्छे परितोषिक , धैर्य, और अपनी रहमत से नवाज़।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बर्कत हो

 

1- इस मुलाक़ात के शुरू में राष्ट्रपति सैयद इब्राहीम रईसी ने एक रिपोर्ट पेश की।

‎2- किताब मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 611‎

‎3- किताब मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 610‎

‎4- किताब मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 1 पेज 61‎

‎5- सूरए हूद आयत 52 और तुम्हारी मौजूदा ताक़त पर अतिरिक्त ताक़त का इज़ाफ़ा करेगा।

‎6- सूरए आले इमरान आयत 146‎  और 147 इससे पहले कितने ही नबी गुज़र चुके हैं जिनके साथ मिलकर बहुत से ख़ुदा परस्तों ने जंग की। अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उन पर पड़ीं उनसे वह निराश नहीं हुए, उन्होंने कमज़ोरी नहीं दिखाई, वह (बातिल के आगे) नहीं झुके इन्हीं सब्र करने वालों को अल्लाह पसंद करता है। उनकी दुआ बस यह थी कि हे हमारे पालनहार! हमारी ग़लतियों और ख़ामियों को माफ़ फ़रमा। हमारे काम में तेरी निर्धारित की गई सीमाओं का जो उल्लंघन हुआ है उसे माफ़ कर दे।

‎7- सूरए आले इमरान आयत आयत 147 उनकी दुआ बस यह थी कि हे हमारे पालनहार! हमारी ग़लतियों और ख़ामियों को माफ़ फ़रमा। हमारे काम में तेरी निर्धारित की गई सीमाओं का जो उल्लंघन हुआ है उसे माफ़ कर दे।

8- सूरए अनआम आयत 120 और तुम ज़ाहिरी गुनाहों से भी बचो और अंदरूनी गुनाहों से भी, जो लोग गुनाह कमाते हैं वह अपनी इस कमाई का बदला पाकर रहेंगे। ‎

‎9- सहीफ़ए सज्जादिया, दुआ नंबर 20‎

‎10- सूरए अंबिया आयत 87 और ज़ुन्नून को याद कीजिए जब वह बिगड़ कर चला गया था और उसने समझा था कि हम उस पर गिरफ़्त न कर सकेंगे।  ‎

11-सूरए अंबिया आयतें 87 और 88 आख़िर उसने तारीकियों में पुकारा और कहा तेरे अलावा कोई माबूद नहीं है। पाक है तेरी हस्ती, बेशक मैंने क़ुसूर किया। तब हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और उसे ग़म से निजात बख़्शी और इसी तरह हम मोमिनों को बचा लिया करते हैं।  ‎

12- सूरए साफ़्फ़ात आयतें 143-144 तो अगर वह तसबीह करने वालों में से न होते तो क़यामत के दिन तक उसी मछली के पेट में रहते। ‎

‎13- सूरए अंबिया आयतें 87 और 88 आख़िर उसने तारीकियों में पुकारा और कहा तेरे अलावा कोई माबूद नहीं है। पाक है तेरी हस्ती, बेशक मैंने क़ुसूर किया। तब हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और उसे ग़म से निजात बख़्शी और इसी तरह हम मोमिनों को बचा लिया करते हैं।

14- मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 592‎

‎15- इमाम ख़ुमैनी का सहीफ़ा जिल्द 8 पेज 388‎

‎16- मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 849‎

‎17- मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 586‎

‎18- सूरए लुक़मान, 33 सूरए फ़ातिर आयत 5 ‎

‎19- सहीफ़ए सज्जादिया दुआ नंबर 46

20- सूरए तौबा आयत 25 यक़ीनन अल्लाह इससे पहले बहुत से मौक़ों पर तुम्हारी मदद कर चुका है और हुनैन जंग के दिन भी जब तुम्हें अपनी बड़ी तादाद का ग़ुरूर हो गया था। मगर वह तुम्हारे कुछ काम न आई और ज़मीन अपनी व्यापकता के बावजूद तुम्हारे लिए तंग हो गई और तुम पीठ फेर कर भाग निकले। ‎

21- मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 845‎

22- सूरए युसुफ़ आयत 87 देखो अल्लाह की रहमत से मायूस न होना।‎

23- सूरए आले इमरान आयत 120 अगर तुम्हारा भला होता है तो उनका बुरा मालूम होता है और तुम पर कोई मुसीबत आती है तो यह ख़ुश होते हैं। अगर तुम सब्र से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो तो उनका कोई हथकंडा तुम्हारे ख़िलाफ़ कारगर नहीं हो सकता।

24- सूरए बक़रा आयत 197

25- नहजुल बलाग़ा ख़त नंबर 62

26 कारखानों के मालिकों और उद्यमियों से मुलाक़ात 30/01/2022

27- जॉन बोल्टन अमरीका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार

28- नए हिजरी शम्सी साल 1401 के पहले दिन टेलीविज़न ने प्रसारित होने वाली तक़रीर 21/03/2022

29- धारा-44 की मूल नीतियों का नोटिफ़िकेशन जारी किया गया 22/05/2005

30- वर्कर्ज़ और टीचरों के बीज स्पीच 3/05/1993