बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है और मैं अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं कि उसने यह मौक़ा दिया कि आज मुबारक रमज़ान महीने के पहले दिन, आप अज़ीज़ों के साथ, जो इस नूर में डूबे हुए हैं, इस महफ़िल में शिरकत कर सकूं और क़रीब से आपका दीदार कर सकूं। वाक़ई आज मुझे फ़ायदा हुआ। यह जो तिलावतें हुयीं और जो प्रोग्राम पेश किए गए, उनसे आनंद मिला।

मैं कुछ बातें रमज़ान के मुबारक महीने के बारे में और कुछ बातें क़ुरआन मजीद और कलामुल्लाह (क़ुरआन) से लगाव के बारे में कहना चाहता हूं। इसके बाद तिलावत करने वाले आप कलाकारों के बारे में भी कुछ बिन्दु बयान करुंगा।

रमज़ान के मुबारक महीने के बारे में कहा गया हैः ऐसा महीना है जिसमें आपको अल्लाह का मेहमान बनने की दावत दी गयी है। (2) बड़ी अच्छी बात है, आपको दावत दी गयी है। कभी इंसान को कहीं दावत दी जाती है तो वह उसे क़ुबूल कर लेता है और उस दावत में चला जाता हैं जहाँ उसकी आवभगत होती है। कभी ऐसा होता है कि हमें दावत दी जाती है लेकिन हमारी हिम्मत नहीं होती कि वहाँ जाएं और उस दावत में शरीक हों। तो यह मेरे और आपके हाथ में है।

रमज़ान का महीना, रमज़ान का महीना है। दावत का महीना है। अल्लाह की असीम रहमत के दस्तरख़ान पर बैठने का महीना है। जो इस दस्तरख़ान पर जाकर बैठता वह कौन है? जिसकी आवभगत की जाती है वह कौन है? बुनियादी सवाल यही है। हमें भरपूर कोशिश करनी चाहिए कि दावत के इस विशाल हाल में दाख़िल जो जाएं और उस दस्तरख़ान पर बैठ जाएं। यह दावत क्या है? इंशाअल्लाह अगर आप सब बेहतरीन तरीक़े से दावत के हाल में दाख़िल हो गए और अल्लाह का मेहमान बनना नसीब हुआ तो अल्लाह आपको क्या देगा? अल्लाह की तरफ़ से आवभगत का मतलब है अल्लाह के क़रीब होने का मौक़ा मिलना। मतलब यह कि इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। अल्लाह ने इस महीने में आपको ख़ुद से क़रीब होने का मौक़ा मुहैया किया है, अगर आप इस दावत में पहुंच गए तो इस अंदाज़ से आपकी आवभगत होगी।

यह मौक़ा क्या है? यह मौक़ा रोज़ा है, यह मौक़ा अल्लाह के कलाम की तिलावत है जिसका असीमित बदला है, यह क़ुरआन की तिलावत है। यह मौक़ा अपने आप में सुधार और इसी तरह की दूसरी चीज़ों का दुगना बदला है जिसका पैग़म्बरे इस्लाम सलामुल्लाह अलैह की हदीस में ज़िक्र है। हमें अल्लाह से उन चीज़ों की दुआ करनी चाहिए, दुआ करनी चाहिए कि वह हमें यह तौफ़ीक़ दे कि हम इन मौक़ों से फ़ायदा उठा सकें। यही वजह है कि कहा गया है कि अल्लाह से जो तुम्हारा पालनहार है, सच्ची नीयत और पाक मन से दुआ करो कि तुम्हें रोज़े और क़ुरआन की तिलावत का मौक़ा दे।(3) अल्लाह से यह दुआ मांगिए। अल्लाह का शुक्र कि आपमें से ज़्यादातर जवान हैं और आपके मन पाक और प्रकाशमय हैं, चमक रहे हैं। वाक़ई आप नौजवानों को देखकर रश्क होता है। आप इन अवसरों से बेहतरीन ढंग से फ़ायदा उठा सकते हैं। सहीफ़ए सज्जादिया की दुआ में, चौवालीसवीं दुआ में जो रमज़ान के महीने में दाख़िल होने की दुआ है, हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अल्लाह से इस तरह अर्ज़ करते हैं। वह कहते हैः और इस महीने का रोज़ा रखने में हमारी मदद कर, इस तरह कि जिस्म के अंगों से गुनाह न हो। इस तरह का रोज़ा हो। तो पता चला कि रोज़ा सिर्फ़ ख़ाने से दूरी और इन ज़ाहिरी कामों से दूर रहने का नाम नहीं है। बेशक यह भी रोज़े का हिस्सा है जो आपको अल्लाह से इस तरह क़रीब करता है। जिस्म के अंगों को गुनाहों से रोकना... अलबत्ता यह एक लंबी दुआ है और मेरा मशविरा है कि जिन लोगों ने यह दुआ नहीं पढ़ी है, वह इसे ज़रूर पढ़ें, निश्चित तौर पर आपको फ़ायदा होगा। आप लोगों में यह क़ाबिलियत है कि सहीफ़ए सज्जादिया में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के लफ़्ज़ों से बेहतरीन ढंग से फ़ायदा उठाएं। इसी दुआ में कुछ आगे हज़रत फ़रमाते हैः “और हम क़रीब हो सकें...” अल्लाह अतीत के गुनाहों से भी हमें पाक कर दे और भविष्य में भी सुरक्षित रखे। हमें इस महीने की क़द्र समझनी चाहिए।

जहाँ तक अल्लाह की किताब से लगाव की बात है तो क़ुरआन मजीद के मुबारक नामों में से एक ‘ज़िक्र’ है। ख़ुद क़ुरआन में कई जगहों पर ज़िक्र शब्द इस्तेमाल हुआ है और इससे मुराद क़ुरआन मजीद है। मिसाल के तौर पर “और यह मुबारक ज़िक्र है जिसे हमने नाज़िल किया है।”(4) अंबिया सूरे में क़ुरआन को ज़िक्र कहकर पहचनवाया गया है। क़ुरआन में पाँच-छह जगहें हैं जहाँ क़ुरआन को ज़िक्र कहा गया है। ज़िक्र क्यों? ज़िक्र का मतलब है याद। इसका क्या मतलब है कि क़ुरआन ज़िक्र है? मतलब यह है कि क़ुरआन याद दिलाने वाला है, क़ुरआन हमें याद दिलाता रहता है। यह ख़ूबी सुपरलेटिव डिग्री के तौर पर इस्तेमाल हुयी है। अरबी ज़बान में जब किसी चीज़ की बहुत ज़्यादा मेक़दार और अतिश्योक्ति को ज़ाहिर करना चाहते हैं तो नॉमिनेटिव केस या हाइपर्बली के तौर पर इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि इन्फ़िनिटिव के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कहते हैं “ज़ैदुन अदल” जब वह यह कहना चाहते हैं कि ज़ैद बहुत ज़्यादा इंसाफ़ करने वाला है तो ज़ैद आदिल नहीं बल्कि ज़ैद अद्ल कहते हैं। क़ुरआन ज़िक्र है यानी याद दिलाने की चरम सीमा पर है। यह क़ुरआन है।

ज़िक्र संपर्क का ज़रिया है। ज़िक्र यानी याद। अगर आपको याद हो तो आप किसी शख़्स या किसी चीज़ से संपर्क बनाते हैं और अगर आपको याद न हो तो फिर आप संपर्क नहीं बना सकते। ज़िक्र स्वाभाविक रूप में संपर्क का ज़रिया है। अगर हम अल्लाह से संपर्क रखना चाहते है, स्वर्ग से संपर्क रखना चाहते हैं, अपने श्रेष्ठ मन से संपर्क रखना चाहते हैं जिसे अल्लाह ने हमारे लिए क़रार दिया है और हम उस तक पहुंच सकते हैं और उसे व्यवहारिक रूप दे सकते हैं, अगर हम किसी शख़्स या किसी चीज़ से संपर्क रखना चाहते हैं तो वह हमें याद रहनी चाहिए। अगर हम भूल गए तो ग़फ़लत में घिर जाएंगे और यह ग़फ़लत वही चीज़ है जिसकी ओर से क़ुरआन में बार बार सचेत किया गया है। “तुम इससे ग़ाफ़िल हो थे...” (6) क़यामत में काफ़िर और गुमराह से कहा जाएगाः “तुम तो ग़फ़लत में थे...” यह सूरए क़ाफ़ में है। अंबिया नाम के सूरे में हैः “धिक्कार हो हम पर हम ग़फ़लत में थे...” (7) काफ़िर क़यामत में इस तरह से कहेगाः “धिक्कार हो मुझ पर”। हम ग़फ़लत में घिरे थे। ग़फ़लत बहुत बड़ी आफ़त है। इसलिए नफ़्ल की नमाज़ की एक दुआ में आया हैः या अल्लाह हम सुस्ती, ग़फ़लत और संगदिली से तेरी पनाह चाहते हैं।” (8) अल्लाह हम ग़फ़लत से तेरी पनाह चाहते हैं। तो ग़फ़लत, ज़िक्र का विलोम है और क़ुरआन ज़िक्र है तो आप क़ुरआन से जितना ज़्यादा लगाव पैदा करेंगे, ज़िक्र उतना ही बढ़ता जाएगा। अलबत्ता ज़िक्र और मुराक़ेबा यानी अपनी निगरानी क़रीब क़रीब एक जैसी हालतें हैं या एक ही अर्थ रखती हैं। मुराक़िबे का मतलब है ख़ुद पर नज़र रखना, जिस पर आत्मज्ञानी बहुत ज़्यादा बल देते हैं और कहते हैं कि इंसान के चरम पर पहुंचने की सीढ़ी मुराक़ेबा है। जहाँ तक मुझे याद है मरहूम आख़ुन्द मुल्ला हुसैन क़ुली हमदानी या उनके किसी शिष्य का कहना है कि उन्होंने फ़रमाया कि बिन मुराक़िबे के भी कभी कभी इंसान के भीतर एक हालत पैदा होती है, लेकिन वह बाक़ी नहीं रहती; अगर मुराक़ेबा हो तो वह आध्यात्मिक हालत इंसान के भीतर बाक़ी रह जाती है।

इसलिए क़ुरआन की तिलावत की ये ख़ूबियां हैं। क़ुरआन की तिलावत, क़ुरआन से लगाव, ये सब अल्लाह से बातें करना ही तो है। जब हम क़ुरआन पढ़ते हैं तो अल्लाह हमसे बात करता है। यह बात करना सिर्फ़ अतीत और क़ुरआनी क़िस्सों और घटनाओं तक सीमित नहीं है बल्कि आज के हालात से संबंधित है, जो इस ख़ास ज़बान में अंजाम पा रहा है। यह इसलिए है कि हम अपना रास्ता ढूंढ लें और अल्लाह की बातें सुनने के लिए बैठ जाएं। यह एक बड़ी नेमत है जो अल्लाह ने हमें दी है। एक नेमत तो यह है कि जब भी हमारा मन चाहे, अल्लाह से बात कर सकते हैं (बग़ैर किसी सिफ़ारिश के) (9) और इसी तरह जब भी हम इरादा करें, जैसा इफ़्तेताह नाम की दुआ में है, अल्लाह से बात कर सकते हैं। यह दुआ है और हम जब भी इरादा करें, ख़ुदा की बातें सुन सकते हैं। वक़्त आपके हाथ में है, वक़्त का निर्धारण अस्ल में आप कर रहे हैं कि अल्लाह की बातें सुनें और उससे फ़ायदा उठाएं। इस नज़र से क़ुरआन की तिलावत को देखिए। हमें क़ुरआन को इस नज़र से देखना चाहिए।

तिलावत बार बार होनी चाहिए। नाचीज़ बार बार कह चुका है। बार बार तिलावत करनी चाहिए। क़ुरआन को शुरू से आख़िर तक पढ़ें, फिर दोबारा शुरू से पढ़ें आख़िर तक। नियमित रूप से क़ुरआन से फ़ायदा उठाना चाहिए।

क़ुरआन पैग़म्बरे इस्लाम का चमत्कार है। यह पैग़म्बर जो आख़िरी पैग़म्बर (स.अ.) हैं, उनका धर्म भी अमर है। तो उनके चमत्कार को भी अमर होना चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम का धर्म हमेशा रहने वाला है। उनका चमत्कार भी हमेशा बाक़ी रहने वाला होना चाहिए। किस लेहाज़ से अमर? यानी पूरे इतिहास में जब तक यह धर्म है, यानी हमेशा के लिए, हर दौर में अपनी ज़िन्दगी की ज़रूरत के मुताबिक़ शिक्षाएं क़ुरआन से मिल जाएंगी। ज़िन्दगी से तात्पर्य है जीवन का व्यापक अर्थ। आध्यात्मिक ज़िन्दगी, अल्लाह के लिए पाक ज़िन्दगी, भौतिक ज़िन्दगी, पारिवारिक ज़िन्दगी हुकूमत से जुड़े मामले, सामूहिक संपर्क से लेकर अल्लाह से संपर्क तक। ये इंसान की ज़िन्दगी के अनेक आयाम हैं, क़ुरआन के पास इन सभी बड़े मैदानों में आपके सवालों का जवाब होना चाहिए और उसके पास जवाब है, वह उच्च आत्मज्ञान की ओर मार्गदर्शन कर सकता है, क़ुरआन इंसान की इस ज़िन्दगी से जुड़ी महान बातें हमें बता सकता है। अलबत्ता यह हासिल होगा गहरे ज्ञान से। इसे न भूलें! जी हाँ! ज़्यादातर लोग न कि सब, क़ुरआन के ज़ाहिरी रूप से एक अर्थ समझते हैं, लेकिन क़ुरआन के गहरे अर्थ तक पहुंच सिर्फ़ गहरे ज्ञान से हासिल होती है। जैसा कि नहजुल बलाग़ा के ख़ुतबा नंबर 110 में आया है क़ुरआन का इल्म हासिल करना, या इसके थोड़े ही फ़ासले पर आया हैः ‘तफ़क़्क़हू फ़ीह’। ‘तफ़क़्क़ोह’ का मतलब है गहरा ज्ञान, गहरे ज्ञान को तफ़क़्क़ोह कहते हैं। क़ुरआन के बारे में गहराई से ज्ञान हासिल कीजिए “यह दिलों का बसंत है” दिलों की बहार है। मन को ताज़गी देता है, मन खिल जाता है इसके लिए ग़ौर-फ़िक्र, इल्म और गहरा ज्ञान ज़रूरी है। 

इसकी शर्त भी मन का पाक होना है। हमें अपने मन को पाक करना चाहिए, मन को बहुत सी उन बातों से मुक्ति दिलाएं जो दिल में आ जाती हैं। यह भी आप जैसे नौजवानों के लिए मुझ नाचीज़ की तुलना में ज़्यादा आसान है। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि इसे समझिए! हम आपके दौर से गुज़र चुके हैं, उसका तजुर्बा भी है, अपने दौर का हमें तजुर्बा है जो आपको नहीं है। जो बात मैं आपसे कह रहा हूं वह आपके दौर में हमारे दौर की तुलना में ज़्यादा आसान है। मन की पाकीज़गी, “और इसे सिर्फ़ पाकीज़ा लोग ही स्पर्श कर सकते हैं”। (10) मन को पाक करना पड़ेगा तब क़ुरआन के गहरे अर्थ तक पहुंच पाएंगे।

मरहूम अल्लामा तबातबाई ने एक हदीस का हवाला दिया है (11) मेरा दिल चाहा कि आपके सामने भी बयान करूं। यह हदीस अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम की है जिसके बारे में मरहूम तबातबाई कहते हैं कि हदीसों में बहुत चुनिंदा हदीस है। यह पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत की सबसे अहम हदीसों में से एक है। एक शख़्स हज़रत से पूछता हैः “क्या आपके पास इस क़ुरआन के अलावा अल्लाह का ख़ास पैग़ाम वहि है?” अमीरुल मोमेनीन से पूछता कि आपके पास इस क़ुरआन के अलावा जो हमारे पास भी है, किसी तरह की ‘वहि’ है? हज़रत फ़रमाते हैं कि “नहीं” अल्लाह की क़सम हमारे पास इससे बढ़कर कोई चीज़ नहीं है, “हां यह मुमकिन है कि अल्लाह किसी बंदे को अपनी किताब की ख़ास समझ प्रदान कर दे।” जी हाँ आम फ़ारसी ज़बान में इसका अनुवाद इस तरह होगाः “हाँ अगर अल्लाह रास्ता खोल दे और जो इस किताब में है हम उस पर ग़ौर करें, तो बहुत ज़्यादा चीज़ें हमें हासिल हो सकती हैं।” मरहूम अल्लामा तबातबाई कहते हैं कि तौहीद (एकेश्वरवाद) के बारे में अमीरुल मोमेनीन का यह जुमला, अल्लाह की पहचान के बारे में जो उनके शब्दों में अमीरुल मोमेनीन की हैरत में डालने वाली बातें हैं जिसे आप नहजुल बलाग़ा में देखिए तो वाक़ई अजूबा लगती हैं, उनके शब्दों में अजूबा हैं, वह कहते हैं कि यह सब अमीरुल मोमेनीन ने क़ुरआन से हासिल किया है। इस हदीस से पता चलता है कि ये सभी गूढ़ अर्थ वाले उच्च ज्ञान, जिन्हें आम अक़्ल नहीं समझ सकती, इंसान सोचे, सीखे, पढ़े ताकि समझे कि ये सब ज्ञान अमीरुल मोमेनीन ने क़ुरआन से हासिल किया, क़ुरआन से फ़ायदा उठाया। यह क़ुरआन है, यह गहरा समुंदर, यह स्थिति है।

ख़ैर कुछ बातें और कुछ बिन्दु तिलावत से जुड़ें मामलों के बारे में जो आपके लिए क़ीमती हैं।

पहली बात यह कि अल्लाह की कृपा से अच्छी तिलावत करने वाले क़ारियों की नज़र से हम नमूना देशों में से एक हैं। यानी इस्लामी जगत में शायद मिस्र को छोड़कर जिसे इस मैदान में ख़ास मक़ाम हासिल है, मुझे नहीं लगता बाक़ी मुल्कों में इतनी तादाद में अच्छे अंदाज़ में दुरुस्त  तिलावत करने वाले क़ारी होंगे जितने अल्लाह की कृपा से हमारे मुल्क में हैं। यह इस्लामी जुमहूरिया की देन है। हम कहाँ थे, कहाँ पहुंचे हैं। कहाँ थे, कहाँ पहुंच गए?! क्रांति के आग़ाज़ में हमारी चाहत और कोशिश यह थी कि हमारे क़ारियों को इस बात का इल्म हो कि कहाँ पढ़ें, कहाँ मिला कर पढ़ें, कहाँ रुक जाएं, कहाँ सांस तोड़ दें, यानी सिर्फ़ इस हद तक। वह भी ऐसे क़ारी बहुत कम थे। आज अल्लाह की कृपा से देखिए तो अनेक, बहुत तादाद में, नाचीज़ को क़ुरआन रेडियो से लगाव है, अल्लाह की कृपा है जब ख़ाली वक्त मिलता है तो सुनता हूं। रेडियो में इतनी ज़्यादा अच्छी तिलावतें और टीवी में तिलावतें सुनने का कम ही मौक़ा मिलता है, बहरहाल वह मौजूद है जिस पर वाक़ई अल्लाह का शुक्र करना चाहिए। मैं ज़्यादा तर जब तिलावत सुनता हूं तो अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं। आज के प्रोग्राम के इन क़ारियों में से बहुत से क़ारी, मैं यह नहीं कहता कि सभी, उस लेवल तक नहीं पहुंचे, उस लेवल के लिए काम कीजिए, यह एक अहम बात थी जिसे अलग से कहना चाहूंगा कि आप अच्छी तिलावत करते हैं, सही तिलावत करते हैं, सुनने वाले को जोश में ले आते हैं लेकिन यह न सोचिएगा कि परफ़ेक्ट हो गये। जब भी, जहाँ भी इंसान ने यह सोचा कि वह परफ़ेक्ट हो गया है, इससे आगे अब कुछ नहीं है, वहीं से उसका पतन शुरू होता है। मैं शायरों से भी यही कहता हूं, लेखकों से भी यही कहता हूं, स्टूडेंट्स से भी यही कहता हूं। आगे बढ़ते रहिए। और भी आगे बढ़िए, परफ़ेक्शन की कोशिश कीजिए, परफ़ेक्शन के लिए अभी भी गुंजाइश है। ऐसा न हो कि यह सोच बैठें कि बस अब ज़रूरत नहीं रह गयी।

लेकिन जो यह वक़्त है, इन्साफ़ की बात यह है कि फ़ख़्र के लायक़ है। यानी जो कुछ आज हमारे पास है, ख़ुदा के शुक्र से यह तादाद और यह क्वालिटी उस मुल्क के अलावा जिसका अभी नाम लिया कहीं और नहीं मिलेगी। बल्कि हमारे आज के बहुत से क़ारी उन क़ारियों से भी बेहतर हैं जिन्हें हमने दावत देकर यहां बुलाया, उन्हें पैसे भी दिये, उनकी तिलावत सुनी, हज़ारों लोगों ने बिला वजह “अल्लाह अल्लाह“ कहकर दाद भी दी जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। कभी तो उनकी तिलावत भी इतनी अच्छी नहीं होती थी लेकिन लोग 'अल्लाह अल्लाह' कहकर दाद देते थे, क़ारी समझ जाता था कि अच्छी और ख़राब तिलावत की इन लोगों में समझ नहीं है इस लिए वह अच्छी तिलावत की कोशिश भी नहीं करता था। मैंने ख़ुद कुछ मिस्री क़ारियों की मिस्र में की जाने वाली तिलावत सुनी, अच्छी तिलावत की थी उन्होंने। लेकिन जब यहां उन्होंने तिलावत की तो अच्छी नहीं थी। कुछ ख़ास तिलावत नहीं की। यह बहुत अहम बात है। आप लोगों का तिलावत सुनने वालों से तअल्लुक़ रहता है आप लोगों को चाहिए कि उन्हें इसके बारे में बताएं। हालांकि अब बरसों से इस तरह के मेहमान क़ारी को नहीं बुलाया जाता है। अच्छी बात है, ख़ुदा के शुक्र से ख़ुद हमारे क़ारी बहुत अच्छे हैं।

आप देखिए आज ही जिन क़ारियों ने तिलावत की है जब मैं ध्यान देता हूं तो नज़र आता है कि जो तिलावतें मैंने सुनी हैं जैसे नज़रियान साहब (12) ने तिलावत की है, सूरए क़सस के उस हिस्से की तिलावत की है जिसकी तिलावत मुस्तफ़ा इस्माईल ने भी की है, नज़रियान साहब की तिलावत बहुत अच्छी थी, वाक़ई बहुत अच्छी थी। या जैसे मुक़द्दमी साहब (13) ने सूरए हूद के एक हिस्से की तिलावत की जो बहुत ही अच्छी तिलावत थी बहुत ज़्यादा अच्छी थी, बहुत ध्यान देने वाली तिलावत थी। सच तो यह है कि हमारे हामिद साहब (14) की सभी तिलावतें इसी तरह अच्छी हैं। बहुत से दोस्तों ने आज यहां जो तिलावत की है उनमें से भी बहुत सी तिलावतें इसी तरह हैं। लेकिन चूंकि मैं सब को नहीं पहचानता और सब के नाम भी नहीं जानता इस लिए मैं किसी का नाम नहीं लूंगा। यहां जो चंद लोगों ने तिलावत की है उनका नाम लिया है। यह लोग जो यहां आए हैं और तिलावत की है वह उन से बहुत बेहतर हैं जिन्हें 'उस्ताद' कह कर याद किया जाता है। ख़ुदा का शुक्र है कि यह भी हमारे लिए एक फ़ख़्र की बात है। यह तो थी पहली बात।

दूसरी बात यह है कि लोगों के बीच तिलावत करना एक आर्ट है। एक पाकीज़ा हुनर है। इसे पाकीज़ा कलाओं में सब से बेहतर समझा जाता है। इसी लिए इस आर्ट को अल्लाह की याद और उसकी तरफ़ बुलाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। क़ुरआन ख़ुद ज़िक्र है। आप की तिलावत, ज़िक्र के लिए होना चाहिए। इस तरह से तिलावत करना चाहिए कि मैं एक सुनने वाले की हैसियत से अल्लाह को याद करने लगूं, क़यामत को याद करूं और आख़ेरत नज़रों के सामने आ जाए। इन्सान को आप की तिलावत सुन कर अल्लाह की याद आने लगे, आप लोगों को तिलावत के वक़्त इस बात पर ध्यान देना चाहिए, इस तरह की तिलावत होनी चाहिए।

इधर उधर की चीज़ें, दिखावटी काम, हम मानते हें कि हम कमज़ोर इन्सान हैं, हमारे कामों में थोड़ा बहुत दिखावा होता है। ठीक है, अगर कम है तो कोई बात नहीं, मैं बाल की खाल नहीं निकालना चाहता लेकिन बहरहाल हमें इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि दिखावा बहुत ज़्यादा न हो जाए।  तिलावत में यह दिखावा इतना न बढ़ जाए कि अल्लाह की याद और लोगों की हिदायत जैसे उद्देश्य पीछे चले जाएं। इसे सिर्फ़ एक हुनर नहीं समझना चाहिए, दूसरे मुल्कों के बहुत से क़ारी, तिलावत को सिर्फ़ एक आर्ट समझते हैं। जी नहीं! यह सिर्फ़ हुनर नहीं है, यह अल्लाह की तरफ़ बुलाने का एक ज़रिया है। इसे इस तरह देखना चाहिए, कुछ इस तरह से होना चाहिए कि “और जब उन पर इसकी आयतें पढ़ी गईं तो उनके ईमान में इज़ाफ़ा हआ” (15)  जब आप क़ुरआन पढ़ें तो मेरा ईमान बढ़ जाए, सुनने वालों का ईमान बढ़ जाए। इसका एक हिस्सा आप के ज़िम्मे है जिसे आप लोगों को पूरा करना है लेकिन ज़्यादातर ज़िम्मेदारी क़ारी के कांधों पर है।

आप लोग तिलावत की शुरुआत, शैतान से दूरी की दुआ के साथ करते हैं, यह दुआ सच्चे दिल से होना चाहिए।“और जब तुम क़ुरआन पढ़ो तो मरदूद शैतान से अल्लाह की पनाह चाहो” (16) इस दुआ के ज़रिए आप सच्चे दिल से अल्लाह की पनाह में जाएं जैसा कि सूरए नेह्ल में कहा गया है, तिलावत अगर शैतान से बचने की दुआ और अल्लाह की पनाह में जाने की ख़्वाहिश से शुरु हो तो वह शैतानी मक़सद के लिए कभी नहीं इस्तेमाल होगी। यह भी एक बात है।

एक दूसरी बात तिलावत में इंजीनियरिंग की है। मैंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया है। कई बार हमारे पास कुछ क़ारियों ने तिलावत की जिनसे मैं कुछ बातें करना चाहता था लेकिन वक़्त नहीं मिला। एक चीज़ जो एक क़ारी की हैसियत से आप को नज़र में रखना है वह तिलावत की इंजीनियरिंग है। आप, लोगों के बीच जो तिलावत करने वाले हैं उसके बारे में पूरा प्लान पहले से ही अपने दिमाग़ में तैयार रखें। यक़ीनी तौर पर धीरे धीरे यह आप की आदत हो जाएगी लेकिन शुरु में बल्कि काफ़ी दिनों तक इस बात पर ख़ास तौर पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

इंजीनियरिंग का क्या मतलब? यह कई तरह की होती है। पहली चीज़ तो हर हिस्से के लिए सही धुन चुनना है। मिसाल के तौर पर, जहां कुछ वाक़ेआत बताए गये हों उस जगह के लिए हर धुन सही नहीं होती। या अज़ाब और डराने वाली आयतों के लिए हर धुन मुनासिब नहीं होती। जो बात है उसके हिसाब से धुन होना चाहिए। इस बारे में सच तो यह है कि कुछ मिस्री क़ारी बहुत अच्छे हैं क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि कौन सी आयत को किस धुन में पढ़ा जाए। यह एक क़िस्म है।

अगर डराया गया है, अगर धमकी है, अगर ख़ुशख़बरी है, अगर जन्नत का वादा है, इन सब की अपनी ज़रूरत है, अगर कोई वाक़ेआ बयान किया गया है तो उसकी अपनी ज़रूरत है और धुन उसी हिसाब से होना चाहिए। यह सब पहले से सोचना चाहिए। एक और चीज़, आवाज़ ऊंची और नीची करना है। इसके बारे में भी पहले से सोच लेना चाहिए। कब आवाज़ ऊंची करना है, कब नीची करना है, यह भी बहुत अहम है। कुछ लोग बिला वजह ही आवाज़ ऊंची करते हैं उस जगह जहां आवाज़ ऊंची करने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती। आप को यह पता होना चाहिए कि कहां तेज़ आवाज़ में पढ़ना है और कहां धीरे से पढ़ना है। वैसे दुनिया के मशहूर क़ारियों की तिलावत में कभी हम यह सुनते हैं कि वह कहीं ऊंची आवाज़ में पढ़ते हैं तो कहीं आहिस्ता पढ़ते हैं जो ख़ुद उनका अपना तरीक़ा है और मेरे ख़याल में दूसरों के लिए उसी नक़ल करना अच्छा नहीं है। आप लोगों को ख़ुद यह फ़ैसला करना है कि कहां उठाना और और कहां गिराना है। इस बात पर ध्यान देना चाहिए।

एक और चीज़ पढ़ने का तरीक़ा है। यह भी बहुत अहम चीज़ है। मैं यहां पर एक मिसाल देता हूं। अब्दुल फ़त्ताह शअशाई ने जो सूरए फ़ातिर की तिलावत की है वह सच में बहुत ज़बरदस्त तिलावत है। वह जब "हे लोगो! तुम अल्लाह के मोहताज हो"(17) पर पहुंचते हैं तो इस आयत को बहुत अच्छे अंदाज़ में पढ़ते हैं। आप सब को मालूम है कि अरब लंबी सांस बहुत पसंद करते हैं और जब क़ारी कोई आयत लंबी सांस के साथ पढ़ता है तो 'अल्लाह अल्लाह' करके दाद देते हैं। अरब, छोटी सांस पसंद नहीं करते। अब्दुल फ़त्ताह की सांस लंबी नहीं है लेकिन वह इस आयत को ऐसी धुन में पढ़ते हैं कि वहां हंगामा मच जाता है। मेरी नज़र में आप लोगों को यह तिलावत सुनना चाहिए। वहां हंगामा मच जाता है क्योंकि धुन बहुत अच्छी थी। इस तरह होना चाहिए। इस पर ध्यान दीजिए। अच्छी और सही धुन पर, यह इंजीनियरिंग का हिस्सा है।

एक इंजीनियरिंग और भी है। वह है तिलावत का ख़ास अंदाज़ जो सुनने के सामने घटना की तसवीर खींच दे। यानी इस तरह पढ़ा जाए कि आप वैसे तो सुन रहे हैं लेकिन महसूस यह हो कि आप वाक़ेआ  अपनी आंखों से देख रहे हैं। इस मामले में मशहूर उस्ताद शैख़ मुस्तफ़ा इस्माईल का नाम लिया जा सकता है। इस पहलू से बेमिसाल हैं। सूरए क़सस की इन आयतों “और (आठ दिन फाक़ा करते चले) जब शहर मदियन के कुओं पर (जो शहर के बाहर था) पहुँचें तो कुओं पर लोगों की भीड़ देखी कि वह (अपने जानवरों को) पानी पिला रहे हैं और उन सबके पीछे दो औरतों (हज़रत शुएब की बेटियों) को देखा कि वह (अपनी बकरियों को) रोके खड़ी हैं मूसा ने पूछा कि तुम्हारा क्या काम है वह बोलीं जब तक सब चरवाहे (अपने जानवरों को) ख़ूब छक के पानी पिला कर फिर न जाएँ हम नहीं पिला सकते और हमारे वालिद बहुत बूढे हैं।* तब मूसा ने उन की (बकरियों) के लिए (पानी निकाल कर) पिला दिया फिर वहाँ से हट कर छांव में जा बैठे तो (चूँकि बहुत भूक थी) अर्ज़ क़ी परवरदिगार (उस वक्त) ज़ो नेअमत तू मेरे पास भेज दे मै उसका सख्त हाजतमन्द हूँ।* इतने में उन्हीं दो मे से एक औरत शर्मीली चाल से आयी (और मूसा से) कहने लगी-मेरे वालिद तुम को बुलाते हैं ताकि तुमने जो (हमारी बकरियों को) पानी पिला दिया है तुम्हें उसकी मज़दूरी दें ग़रज़ जब मूसा उनके पास आए और उनसे अपने किस्से बयान किए तो उन्होंने कहा अब कुछ अन्देशा न करो तुमने ज़ालिम लोगों के हाथ से नजात पायी।*” (18) की तिलावत इस अंदाज़ से करते हैं कि आप मानो देख रहे हैं कि वह लड़की शर्मीली चाल चलती आती है। यह शर्म एक ख़ास एहसास की वजह से है। वह लड़कियां अपने बाप के पास गयीं, इस नौजवान के बारे में बताया और उनके बाप ने कहा कि अच्छी बात है, जाओ उसे बुला कर लाओ। “तो उनमें से एक शर्मीली चाल चलती हुई आई।” इस जुमले को बार बार दोहराते हैं।

या मिसाल के तौर पर सूरए नम्ल हैः “(जब वह जा चुका) तो सुलेमान ने अपने अहले दरबार से कहा ऐ मेरे दरबार के सरदारो तुममें से कौन ऐसा है कि क़ब्ल इसके वह लोग मेरे सामने फरमाबरदार बनकर आयें* मलिका का तख़्त मेरे पास ले आए (इस पर) जिनों में से एक विशालकाय बोल उठा कि क़ब्ल इसके कि हुज़ूर (दरबार बरख़ास्त करके) अपनी जगह से उठें मै तख्त आपके पास ले आऊँगा।*” (19) वह इस जुमले को! “मैं उसे ले आउंगा ” इस तरह बार बार दोहराते हैं कि सुनने वाले को लगता है कि जैसे वह अपनी आंखों से देख रहा है कि वह जिन्नात बड़े घमंड के साथ कह रहा है कि मैं ले आऊंगा इस से पहले कि आप अपनी जगह से खड़े हों।  "इससे पहले की आप अपनी जगह से उठें।" उसके बाद यह आयत पढ़ते हैः" इस पर अभी सुलेमान कुछ कहने न पाए थे कि वह शख्स (आसिफ़ बिन बरख़िया) जिसके पास किताबे (ख़ुदा) का किसी क़द्र इल्म था बोला कि मै आप की पलक झपकने से पहले तख्त को आप के पास हाज़िर किए देता हूँ।” (20)

यानि उस जिन्नात को मुंह तोड़ जवाब दिया और कहा कि आप की पलक झपकने से पहले ही मैं ले आऊंगा और ले भी आए। इस आयत को इस तरह से पढ़ते हैं जैसे इन्सान खुद अपनी आंखों से यह सब देख रहा है यह भी एक इंजीनियरिंग है।

कुल मिला कर क़ारी की तिलावत में असर होना चाहिए। आप लोग जो तिलावत करते हैं इस तरह तिलावत करना चाहिए जिससे सुनने वाले पर असर हो। आप लोगों को इस तरह क़ुरआन की तिलावत करना चाहिए कि उस का असर हो। “तुम तो बस उसी शख्स को डरा सकते हो जो नसीहत माने और बेदेखे भाले खुदा का ख़ौफ़ रखे तो तुम उसको (गुनाहों की) माफी और एक बाइज्ज़त (व आबरू) अज्र की खुशख़बरी दे दो” (21) आपकी तिलावत से इताअत का जज़्बा बेदार हो। आपकी तिलावत से इताअत का जज़्बा पैदा हो। यह कुछ बातें थीं जो मैंने बयान कर दीं।

एक बात, अलग अलग क़िराअतों के बारे में भी कह दूं। गुज़रे बरसों में जब हम मिस्र के क़ारियों को बुलाया करते थे तो उनमें से कुछ कई तरह से क़ुरआन की तिलावत करते थे। अब चूंकि मैं क़िराअत कि क़िस्मों के विषय का पूरा ज्ञान नहीं रखता इस लिए यक़ीन के साथ यह तो नहीं कह सकता कि वह लोग, नादिर और दुर्लभ शैली में भी तिलावत करते थे। क़िराअत की चौदह क़िस्में हैं उनके अलावा कुछ शैलियां जो बहुत ही कम इस्तेमाल होती हैं और जिन्हें “शाज़ यानी दुर्लभ”कहा जाता है। मुझे यह महसूस होता है कि मिस्री क़ारियों में से कुछ अपनी तिलावतों में जब आयतों को दोहराते थे तो इस तरह की दुर्लभ शैली में भी क़ेराअत करते थे। यह तरीक़ा मेरी नज़र में ठीक नहीं है और इसमें न तो अल्लाह का ज़िक्र ताज़ा होता है और न ही किसी को अल्लाह के रास्ते की दावत दी जाती है।

मैं अलग अलग तरीक़ों से क़ुरआन की तिलावत किए जाने के ख़िलाफ़ नहीं हूं लेकिन बस एक हद तक ठीक है। क़िराअत और तिलावत का वह तरीक़ा जिसे “वर्श”कहा जाता है इस लिए अहम हैं क्योंकि उत्तरी अफ्रीक़ा से लेकर इस्लामी दुनिया के पश्चिमी इलाक़ों तक इसका रिवाज है। वर्श खुद बरसों तक मिस्र में रहे हैं। शायद वर्श और क़ालून वग़ैरा बरसों तक मिस्र में रहे हैं। यही वजह है कि वर्श की तिलावत का तरीक़ा, मिस्र, नार्थ अफ़्रीक़ा और ट्यूनेशिया वगैरा में मशहूर है। वहां पर वर्श और क़ालून की तिलावत के तरीक़े के हिसाब से क़ुरआन छापे गये हैं, जो हमारे लिए भी भेजे गये और मैंने ख़ुद देखा। यह तो 'वर्श' की क़िराअत या तिलावत के तरीक़े की बात है। इस लिए वर्श के तरीक़े से क़ुरआन की तिलावत में कोई हरज नहीं है। क्योंकि इस तरीक़े का भी रिवाज है भले ही “हफ़्स” की तिलावत के तरीक़े के जितना नहीं लेकिन फिर भी रिवाज तो इसका भी है। यह भी अच्छा है।

क़िराअते हम्ज़ा या हम्ज़ा का तिलावत का तरीक़ा भी है जिसकी एक झलक आज हमारे नौजवान क़ारी (22) की तिलावत में नज़र आयी। यह तरीक़ा भी एक तरह से अच्छा ही है और वह भी इसलिए कि हम्ज़ा तरीक़े की तिलावत में जो बीच में ठहराव है, यानि “साकिन की अलामत”और “हम्ज़ा”के बीच जो ठहराव है उस से तिलावत में ख़ूबसूरती आती है। तो इस तरह से कभी कभी पढ़ने में कोई हरज नहीं है। अलबत्ता मेरी नज़र में अगर इन दोनों तरीक़ों से तिलावत की जाए तो अच्छी बात है। लेकिन तरह तरह की तिलावतों और क़िराअतों का तरीक़ा और किसी एक लफ़्ज़ को अलग अलग तरह से पढ़ने की मेरी नज़र में कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है यानी जो चीज़ हमें आप लोगों से चाहिए यानि अल्लाह की याद ताज़ा कर देना, अल्लाह की राह तरफ़ दावत और ग़लत कामों से रोकना वगैरा इस तरह की तिलावतों में नहीं है। यह एक सच्चाई है।

यहां पर एक बात और मुझे कहना है और वह यह है कि क़ुरआन के सिलसिले में हमारे यहां बहुत काम हुए हैं लेकिन काफ़ी नहीं है। हमें और ज़्यादा कोशिश की ज़रूरत है। एक बात जो हम से कही गयी और सही भी है वह मैं आप लोगों के सामने पेश करता हूं। आप लोगों में से जो चाहे यह काम कर सकता है। वह यह है कि मोहल्ले की मस्जिद को मिसाल के तौर पर तेहरान के किसी इलाक़े की चार पांच मस्जिदों को क़ुरआन का सेन्टर बना दिया जाए और उन सभी मस्जिदों को एक दूसरे से जोड़ दिया जाए और हर सेन्टर के लोग दूसरे सेन्टर में जाएं। फिर उनमें मुक़ाबला हो। यह मुक़ाबले आम तौर वक़्फ़ के इदारे और दूसरे इदारों की तरफ़ से होने वाले मुक़ाबलों से अलग हों। इस तरह के काम होने चाहिए। नौजवानों और बच्चों को क़ुरआन के मैदान में उतारने का यह बहुत अच्छा तरीक़ा है। हमें इसकी बहुत ज़रूरत है।

हमारे मुल्क के नौजवानों को क़ुरआन के मैदान में उतरना चाहिए ख़ास तौर पर क़ुरआन का हाफ़िज़ बनना चाहिए क्योंकि हमें बहुत ज़्यादा हाफ़िज़ों की ज़रूरत है जिसकी सलाह मैंने कुछ बरस पहले दी थी (23) और इस सिलसिले में काम भी हुआ है। लेकिन अभी मंज़िल दूर है। अगर आप एक करोड़ हाफ़िज़ बनाना चाहते हैं तो उसका रास्ता यह है कि हमारे मुल्क के नौजवान इस मैदान में उतरें। जब नौजवान मैदान में आएंगे तो क़ुरआन याद करना आसान हो जाएगा। इसका तरीक़ा भी यही है कि मस्जिदों में यह काम किया जाए और हर मस्जिद को क़ुरआन सेन्टर बना दिया जाए। मोहल्ले की सभी मस्जिदें एक दूसरे से जुड़ी रहीं, मिल जुल कर काम करें, पढ़ाने वाले एक दूसरे से जान पहचान पैदा करें। इस मस्जिद के उस्ताद उस मस्जिद में जाएं वहां के उस्ताद यहां आएं! मशहद में हम यह काम कर चुके हैं। मस्जिदे करामत में भी और मस्जिदे इमाम हसन में भी यह काम करते थे। अल्लाह रहमत नाज़िल करे मशहद के बहुत अच्छे क़ारी जनाब मुख़्तारी पर और इसी तरह जनाब मुर्तज़ा फ़ातेमी पर जो मशहद के सब से अच्छे बल्कि मुल्क के जाने माने क़ारियों में शामिल हैं। मैंने इन दोनों क़ारियों को बुलाया था, दावत दी थी। वे बरसों मस्जिद करामत में क़ुरआन का जल्सा कराते थे। इसी तरह मस्जिद इमाम हसन में भी यही होता था। इन दोनों मस्जिदों में मेरा आना जाना था। इन दोनों मस्जिदों में यह लोग आते थे और तिलावत करते थे। मस्जिदों, क़ारियों और तिलावत सुनने वालों के बीच ताल्लुक़ इस मक़सद के लिए बहुत अच्छी चीज़ है। यहां पर मरहूम मौलाई साहब को भी याद करना चाहिए क्योंकि तेहरान में क़ुरआने मजीद की तिलावत में उनका बहुत अहम रोल है। उनका बहुत योगदान है। उन्होंने बहुत सेवा की है। मरहूम ग़फ़्फ़ारी और दूसरे भाई जो बीते बर्सों में यहां हमारे साथ होते थे लेकिन आज नहीं हैं। ख़ुदा उन सब के दरजात बुलंद करे।

परवरदिगार! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद का वास्ता! हमें क़ुरआन वालों में क़रार दे। हमारे दिल में क़ुरआन से लगाव पैदा कर। हमें क़ुरआन के साथ ज़िन्दा रखा और क़ुरआन के साथ दुनिया से उठा। हमें क़ुरआन के साथ महशूर कर। क़ुरआन की तालीमात को हमारे दिल में परवान चढ़ा और हमारे दिल में उन्हें ज़िन्दा रख। परवरदिगार! हमारे उस्तादों को उन लोगों को जिन्होंने हमें यह रास्ता दिखाया है, क़ुरआन की मुहब्बत हमारे दिलों में डाली है उन सब पर अपनी रहमत नाज़िल कर। इमाम ख़ुमैनी और हमारे सभी शहीदों को पैग़म्बरे इस्लाम के साथ महशूर कर। हमें भी उनकी राह पर मज़बूती से डटे रहने की तौफ़ीक़ दे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

(1)          इस मुलाक़ात के शुरू में- जो सन 1443 हिजरी क़मरी में रमज़ान मुबारक की पहली तारीख़ को हुयी- कुछ क़ारियों ने क़ुरआन की तिलावत की।

(2)          अमालिए सुदूक़ मजलिसे बिस्तुम पेज-93

(3)          (वही)

(4)          अंबिया सूरे की आयत 50 का एक हिस्सा

(5)          हिज्र सूरे की आयत 9

(6)          क़ाफ़ सूरे की आयत 22 का एक भाग

(7)          अंबिया सूरे की आयत 97 का एक भाग

(8)          काफ़ी, जिल्द-2, पेज 586

(9)          मिस्बाह कफ़अमी, पेज-589 (दुआए अबी हम्ज़ा)

(10)        वाक़ेआ सूरे की आयत 79; “पाक लोगों के सिवा कोई उसे न छुए”

(11)        अलमीज़ान फ़ी तफ़सीरिल क़ुरआन, जिल्द-3, पेज-71

(12)    जनाब वहीद नज़रियान

(13)    जनाब क़ासिम मुक़द्दमी

(14)    जनाब हामिद शाकिर नेजाद

(15)    सूरा अनफ़ाल आयत 2

(16)    सूरा नह्ल आयत 98

(17)    सूरा फ़ातिर आयत 15

(18)    सूरा क़सस आयत 23 से 25 तक

(19)    सूरा नम्ल आयत 38 और 39

(20)    सूरा नम्ल आयत 40

(21)    सूरा यासीन आयत 11

(22)    जनाब अली रज़ा हाजीज़ादे तबरेज़

(23)    पूरे मुल्क के क़ारियों से मुलाक़ात में तक़रीर 2 अगस्त 2011