इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के ईरान रवाना होने और ख़ुरासान आने के बाद जो अहम घटनाएं ‎हुईं उनमें से एक यही थी। शायद यह पहलू भी बुनियादी तौर पर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ‎मद्देनज़र रहा हो। इससे पहले तक शिया, हर जगह इक्का-दुक्का बिखरे हुए थे लेकिन उनका आपस ‎में संपर्क नहीं था। निराशा की स्थिति, कोई स्पष्ट मंज़िल सामने नहीं थी, उम्मीद की कोई किरण ‎नहीं थीं। ख़लीफ़ाओं की सरकार का हर जगह वर्चस्व था। इससे पहले हारून, अपनी फ़िरऔनी ताक़त ‎के साथ मौजूद था। इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम जब ख़ुरासान आए और इस रास्ते से गुज़रे तो ‎लोगों की निगाह उस हस्ती पर पड़ी जिसका पूरा वुजूद ज्ञान, महानता, वैभव, सच्चाई और नूर से ‎सुशोभित था। लोगों की नज़रों ने ऐसी हस्ती देखी ही नहीं थी। इससे पहले के ज़माने में कितने ‎शिया, ख़ुरासान से सफ़र करके मदीना जा पाते थे और इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम की ‎ज़ियारत करते थे? इस बार इस लम्बे सफ़र के दौरान हर जगह लोगों ने इमाम को क़रीब से देखा। ‎बड़ा हैरत अंगेज़ दृश्य था। मानो लोग पैग़म्बर की ज़ियारत कर रहे थे। वह वैभव, वह रूहानी ‎महानता, वह गरिमा, वह शिष्टाचार, वह ईश्वरीय भय, वह नूरानियत और ज्ञान का वह ठाठें मारता ‎समंदर कि जो भी पूछो, जो भी चाहो, सब उसके पास मौजूद है। यह तो (इन इलाक़ों के) लोगों ने ‎कभी देखा ही नहीं था। एक कौतूहल मच गया।
इमाम ख़ुरासान और मर्व पहुंचे। मर्व, शासन का केंद्र था जो इस समय तुर्कमानिस्तान में स्थित है। ‎एक दो साल बाद इमाम रज़ा की शहादत हो जाती है और लोगों पर ग़म का पहाड़ टूट पड़ता है। ‎इमाम के आगमन, जो उन चीज़ों और विशेषताओं के सामने आने का कारण बना जिनके लिए लोगों ‎की आंखें तरसी हुई थीं, और इसी तरह उनकी शहादत के नतीजे में, जिससे अजीब दुख फैल गया, इन ‎इलाक़ों के हालात, शियों के पक्ष में हो गए। ऐसा नहीं था कि सब शिया हो गए हों मगर इतना ज़रूर ‎हुआ कि सब अहले बैत से प्यार करने लगे थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के बाद इमाम हसन ‎अस्करी अलैहिस्सलाम की शहादत के वक़्त तक ऐसा ही रहा। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम और ‎इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम इसी सामर्रा शहर में पूरे इस्लामी जगत से व्यापक संपर्क ‎स्थापित करने में कामयाब हो गए जो वास्तव में किसी छावनी की तरह था। यह कोई बड़ा शहर ‎नहीं था बल्कि नया नया बनाया गया शासन केंद्र या राजधानी था। सरकार के अहम अधिकारी, ‎अफ़सर और दरबारी जबकि जनता में से बस उतने लोग वहां बस गए थे जो रोज़ाना की ज़रूरतें पूरी ‎कर सकें। जब हम इमामों की ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं का जायज़ा लेते हैं तो पता चलता है कि ‎वे किस तरह संघर्ष करते थे। यानी सिर्फ़ यह नहीं था कि वे रोज़ा, नमाज़ और अन्य धार्मिक मामलों ‎के बारे में ही सवालों के जवाब दिया करते थे। इमामत के पद के सभी पहलुओं के साथ, इमाम उस ‎पद पर विराजमान होते थे और अवाम के सामने अपनी बात रखते थे। मेरी नज़र में अन्य पहलुओं ‎के साथ यह पहलू भी ध्यान योग्य है। आप देखते हैं कि हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम को ‎मदीने से सामर्रा लाया गया और जवानी की उम्र में, 42 साल की उम्र में उन्हें शहीद कर दिया गया। ‎या हज़रत इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम को 28 साल की उम्र में शहीद किया गया। ये सारी ‎बातें इतिहास में इमामों, उनके साथियों और शियों के आंदोलन की महानता और वैभव की निशानियां ‎हैं। हालांकि ख़लीफ़ाओं की सरकारें अत्यंत कठोर पुलिस स्टेट की तरह काम करती थीं लेकिन इसके ‎बावजूद, इमामों ने इस अंदाज़ से कारनामे अंजाम दिए। बहरहाल, परदेस में इमामों पर होने वाले ‎अत्याचारों के साथ ही उनकी महानता और गरिमा पर भी नज़र रहनी चाहिए।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की 10 मई 2003 की तक़रीर का एक भाग