दूसरा अनुभव, ईरान व इस्लामी गणराज्य से अमरीका की गहरी दुश्मनी का है। यह दुश्मनी बड़ी गहरी है, साधारण दुश्मनी नहीं है। विरोध परमाणु मामले जैसे किसी मामले के आधार पर नहीं है, यह बात सभी समझ चुके हैं, मामला इससे कहीं बढ़ कर है। बात यह है कि ये लोग उस व्यवस्था के कट्टर विरोधी हैं जिसने इस संवेदनशील इलाक़े में सिर उठाया है, खड़ी हुई है, डटी हुई है, उसने तरक़्क़ी की है, अमरीका के अत्याचारों का विरोध करती है, अमरीका के संबंध में किसी भी तरह का संकोच नहीं करती, इलाक़े में प्रतिरोध की भावना को बढ़ा रही है, इस्लाम का परचम हाथ में उठाए हुए है। उनकी समस्या यह है कि यह इस्लामी व्यवस्था और इस्लामी गणराज्य नहीं होना चाहिए, न सिर्फ़ यह कि यह व्यवस्था नहीं होनी चाहिए बल्कि वे लोग भी इस व्यवस्था का समर्थन करते हैं, यानी ईरानी राष्ट्र, उससे भी अमरीकी सरकारों के सरग़ना नफ़रत करते हैं। अमरीका के एक उपराष्ट्रपति ने, इस सरकार के नहीं बल्कि एक पिछली सरकार के उपराष्ट्रपति ने खुल कर कहा था कि हमें ईरानी राष्ट्र की, इस्लामी गणराज्य की नहीं, ईरानी राष्ट्र की जड़ खोद देनी चाहिए। तो इस्लामी गणराज्य से अमरीका की समस्या, परमाणु मामले या मीज़ाइल के मामले या इसी तरह के दूसरे किसी अन्य मामले की नहीं है, इन सबकी तो एक अलग ही कहानी है, यानी इन पर जो वे उंगली रखे हुए हैं वह, शायद मैं इस बात को पहले भी कह चुका हूं, इस लिए है कि वे इस्लामी गणराज्य की शक्ति के साधनों को तबाह करना चाहते हैं। ये इस्लामी गणराज्य की ताक़त और ईरानी राष्ट्र की शक्ति के साधन हैं और इसी वजह से ये इन चीज़ों के पीछे पड़े हुए हैं। यह भी एक अनुभव है और इस अनुभव की अनदेखी नहीं की जा सकती। हमें याद रहना चाहिए कि अमरीका, ईरानी राष्ट्र और इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था का दुश्मन है और उसकी दुश्मनी बड़ी गहरी है। परमाणु मामले वग़ैरा की कोई बात ही नहीं है, अस्ल बात इस्लामी गणराज्य की व्यवस्था की है।